पाकिस्तान का वर्तमान संकट और शासक वर्ग के गहराते अन्तरविरोध

तपीश

pak azadi marchपाकिस्तान एक बार फिर राजनीतिक गतिरोध के दौर से गुज़र रहा है। इमरान खान की पार्टी तहरीक-ए-इंसाफ़ और कनाडा से अचानक पाकिस्तान में अवतरित हुए मौलाना ताहिर-उल-क़ादरी की पार्टी पाकिस्तान अवामी तहरीक़ के नेतृत्व में प्रदर्शनकारी नवाज़ शरीफ़ सरकार के इस्तीफ़े की माँग को लेकर अगस्त के मध्य से संसद के बाहर डेरा डाले हुए हैं। पाकिस्तानी तालिबान के आतंकी दस्ते सेना के ठिकानों पर हमलावर हैं और सेना उनके ख़िलाफ़ ऑपरेशन ज़र्ब-ए-अज़्ब का संचालन कर रही है। पाकिस्तान इस समय गम्भीर आर्थिक संकटों से घिरा हुआ है। सन 2008 के बाद से ही वहाँ की अर्थव्यवस्था पटरी से उतरी हुई है। असल में पाकिस्तान के वर्तमान संकट के मूल में आर्थिक संकट ही है। ऐसे समयों में शासक वर्ग के विभिन्न धड़े आपस में टकराने लगते हैं और आज पाकिस्तान में यही हो रहा है। बहुधा राजनीतिक विश्लेषक पाकिस्तान की ऐसी छवि प्रस्तुत करते हैं मानो वह भारत और विश्व के लिए आसन्न ख़तरा हो जबकि सच्चाई तो यह है कि पाकिस्तान की सेना और वहाँ के इस्लामिक कट्टरपन्थी सबसे ज़्यादा ख़तरा तो वहाँ की आम मेहनतकश आबादी के लिए पैदा कर रहे हैं। भारतीय मीडिया में पाकिस्तान को हरे राक्षस के रूप में चित्रित करने का चलन रहा है और वहाँ की सारी समस्याओं के लिए इस्लामिक कट्टरपन्थ को ज़िम्मेदार मान लिया जाता है। इस तरह उन गहरे सामाजिक-आर्थिक कारकों पर पर्दा डाला जाता है जो वास्तव में इस पूरे खेल का संचालन कर रहे हैं।

पाकिस्तान के वर्तमान संकट को समझने को लिए ज़रूरी है कि हम इसे इसके विकास क्रम में समझने का प्रयास करें। इसके साथ ही साम्राज्यवाद, सेना, इस्लामिक कट्टरपन्थ के अन्तरसम्बन्धों और उन ठोस सामाजिक-आर्थिक आधारों की पड़ताल भी ज़रूरी है जो इन शक्तियों को पाकिस्तान की राजनीति में न सिर्फ़ सक्रिय रखती हैं बल्कि उनके अस्तित्व का औचित्य भी प्रदान करती हैं।

पाठकों को याद होगा कि वर्ष 2013 में नवाज़ शरीफ़ के नेतृत्व में पाकिस्तान मुस्लिम लीग (नवाज़) भारी बहुमत के साथ सत्ता में आयी थी। उस समय राजनीतिक विश्लेषकों ने इसे पाकिस्तान के इतिहास में सबसे सफल और शान्तिपूर्ण सत्ता हस्तान्तरण कहा था। यह वही पार्टी थी जिसकी सरकार का 1999 में जनरल मुशर्रफ़ ने तख़्ता उलट दिया था और फिर कुछ समय के कारावास के बाद सरकार के भूतपूर्व प्रमुख नवाज़ शरीफ़ को सऊदी अरब निर्वासित कर दिया था। सैन्य शासन के ख़िलाफ़ नफ़रत से ओतप्रोत और आर्थिक परेशानियों से आजिज़ जनता को 2013 की सरकार से काफ़ी उम्मीदें थीं। उसी समय इमरान ख़ान की पार्टी तहरीक़-ए-इंसाफ़ को ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा में जमाते-इस्लामी के सहयोग से प्रादेशिक सरकार बनाने में सफलता मिली। उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान का यह इलाक़ा तालिबान का गढ़ है और इमरान ने चुनावी वायदा किया था कि सरकार में आने को बाद वे अमेरिका द्वारा प्रायोजित आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध से पाकिस्तान को अलग कर लेंगे।

चुनाव के दो महीने बीतते-बीतते पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था डाँवाडोल होने लगी। बढ़ती ग़रीबी, महँगाई, बेरोज़़गारी और बिजली, पेट्रोल तथा गैस की बढ़ती क़ीमतों के कारण नयी सरकार जल्दी ही लोकप्रियता खोने लगी। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था के गहराते अन्तरविरोध इसी रूप में सामने आते हैं और किसी नवाज़ शरीफ़ या किसी सैन्य तन्त्र की परवाह किये बिना अपना प्रभाव दिखाते हैं। हालाँकि स्वयं नवाज़ शरीफ़ भी इस हक़ीकत को अच्छी तरह से समझते हैं कि पूँजीवादी तन्त्र के रहते इसके सिवा और कुछ सम्भव नहीं है। सत्ता सँभालने के कुछ ही महीनों बाद सरकार को एक और संकट का सामना करना पड़ा। उसके और पाकिस्तानी सैन्य तन्त्र के बीच तीन अहम मुद्दों पर अन्तरविरोध पैदा हुए। पहला मसला विदेश नीति से जुड़ा हुआ है। नवाज़ शरीफ़ का इस बात पर ज़ोर था कि भारत के साथ पाकिस्तान के सम्बन्धों को आपसी बातचीत तथा व्यापारिक साझेदारी को बढ़ावा देकर सामान्य बनाया जाये जबकि सेना भारत के साथ तनाव बरकरार रखना चाहती थी। दूसरा मुद्दा पाकिस्तानी तालिबान के विरुद्ध सैन्य कार्रवाई को लेकर था। सेना का एक बड़ा हिस्सा उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान को वज़ीरिस्तान और ख़ैबर-पख़्तनूख़्वा में सैन्य कार्रवाई पर ज़ोर दे रहा था जबकि सरकार बातचीत के ज़रिये समाधान निकालना चाहती थी। यहाँ बताते चलें कि पाकिस्तानी सेना जहाँ एक ओर अफ़गानी तालिबान का समर्थन करती है वहीं वह पाकिस्तानी तालिबान के सख़्त ख़िलाफ़ है। पिछले कुछ महीनों में ही पाकिस्तानी तालिबान ने नौसेना और सेना के कराची, रावलपिण्डी सहित दो अन्य महत्त्वपूर्ण ठिकानों को अपने हमलों का निशाना बनाया है। अन्तरविरोध का तीसरा बिन्दु परवेज़ मुशर्रफ़ का मसला था। सरकार मुशर्रफ़ के ख़िलाफ़ मुक़दमा चलाकर उसे जेल भेजना चाहती थी ताकि एक नज़ीर उपस्थित हो सके। जबकि सेना का मत था कि उसे चुपचाप देश छोड़कर जाने दिया जाय। संक्षेप में कहें तो नागरिक सरकार जहाँ एक ओर अपनी स्वतन्त्रता पर बल दे रही थी, वहीं दूसरी ओर पाकिस्तानी सेना-तन्त्र राजनीतिक हस्तक्षेप के अपने जन्मना अधिकार पर अड़ा हुआ था। इसके मूल कारणों की संक्षिप्त पड़ताल हम आगे करेंगे।

वर्तमान संकट ने उस समाय रूपाकार ग्रहण करना शुरू किया जब सेना ने उत्तर-पश्चिमी पाकिस्तान के इलाक़ों में ऑपरेशन ज़र्ब-ए-अज़्ब शुरू किया। पहले यहाँ हवाई गोलाबारी की गयी और फिर पैदल सेना और टैंकों को ज़मीनी कार्रवाई में उतार दिया। हाल ही में सेना ने बताया है कि उस ऑपरेशन के दौरान अब तक 900 आतंकी मारे जा चुके हैं। सैन्य कार्रवाई शुरू होते ही क़ादरी ने खुलकर इन हमलों की वकालत की और सेना के समर्थन में हर शुक्रवार रैली आयोजित करने की घोषणा कर डाली। पाकिस्तान अवामी तहरीक़ के क़ादरी सूफ़ी इस्लाम की एक हल्की कट्टरपन्थी धारा के विचारक हैं। इनका आधार मुख्यतः निम्न-मध्यवर्ग में है। ये जनाब वैसे तो इंक़लाब की बात करते हैं लेकिन वास्तव में इनका राजनीतिक एजेण्डा लोकरंजकतावाद की चाशनी में लिपटा हुआ प्रतिक्रियावाद ही है। पाकिस्तान की राजनीति में इनका उभार एक हालिया परिघटना है। उधर इमरान ख़ान, जो मध्यवर्ग और कुछ हद तक उच्च-मध्यवर्ग में लोकप्रिय हैं, के लिए यह सम्भव न था कि वे सेना के इस ऑपरेशन का खुला विरोध करते। इसलिए उन्होंने सरकार पर दबाव बनाने के मक़सद से चुनाव के 14 महीनों बाद बूथ रिगिंग का आरोप लगाते हुए नवाज़ शरीफ़ सरकार के इस्तीफे़ की माँग की। उन्होंने नवाज़ शरीफ़ सरकार के समक्ष राष्ट्रीय सरकार के गठन या फिर चुनाव में जाने का विकल्प भी रखा है। यदि हम उत्तर-पश्चिमी प्रान्त की राजनीति और वहाँ इमरान की पैठ तथा उनकी चुनावी घोषणाओं को ध्यान में रखें तो उनका यह क़दम स्वाभाविक जान पड़ता है। कुछ ही समय की तैयारी के बाद इमरान ने आज़ादी मार्च नाम से लाहौर से इस्लामाबाद तक मार्च की घोषणा की। इस तथाकथित आज़ादी मार्च को आयोजित करने के पीछे एक और कारण भी था। इमरान की पार्टी तहरीक़-ए-इंसाफ़ की सरकार भी उसी प्रकार और उन्हीं कारणों से ख़ैबर-पख़्तूनख़्वा की जनता के बीच अलोकप्रिय हो रही थी जिस तरह केन्द्र की नवाज शरीफ़ सरकार पाकिस्तानी जनता के बीच अपना विश्वास खो रही थी। इसलिए इमरान के लिए ज़रूरी हो गया था कि वह अपनी पार्टी की सरकार की असफलाओं से जनता का ध्यान हटाने के लिए कोई नया मुद्दा खड़ा करें।

Atta-and-Presidential-crisisइस तरह हम देख सकते हैं कि सेना, तहरीक़-ए-इसाफ़ और क़ादरी तथा पाकिस्तान की जनता का एक छोटा सा मध्यमवर्गीय हिस्सा अपनी-अपनी वजहों से पाकिस्तानी सरकार के ख़िलाफ़ उतर पड़ा है। यहाँ पाकिस्तानी जनता के आर्थिक हालातों पर एक नज़र डालना ज़रूरी है। 2008 की शुरुआत से ही पाकिस्तान के आर्थिक हालात बेहद ख़राब हैं। उस समय पाकिस्तान की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को दिवालिया होने से बचाने के लिए विश्व मुद्रा कोष (आईएमएफ) से पाँच प्रतिशत की दर पर 7.9 अरब डॉलर का कर्ज़ मिला था। इस कर्ज़ की अदायगी के लिए उस समय सरकार ने पाकिस्तानी जनता पर 100 अरब रुपये के नये कर थोप दिये थे। सन् 2013 तक पहुँचते-पहुँचते एक बार फिर पाकिस्तानी अर्थतन्त्र में वैसे ही हालात पैदा हो गये। जुलाई 2013 में पाकिस्तान का मुद्रा भण्डार 5.5 अरब डॉलर तक गिर गया था। इससे केवल पांच सप्ताह का आयात बिल चुकाया जा सकता था। सरकार ने एक बार फिर आईएमएफ से 6.7 अरब डॉलर का क़र्ज़ लिया। आईएमएफ से मिलने वाले इन ऋणों की शर्तें काफी कड़ी थीं। मसलन सरकार को बजट घाटा 2012-13 के 8.8 प्रतिशत से घटाकर 3 वर्षों के भीतर 4 प्रतिशत तक लाना था। इसके लिए दो तरीक़े अपनाये गयेः 1) जनता पर नये करों का बोझ लादकर, 2) सामाजिक सुरक्षा, सार्वजनिक कल्याण तथा जनता को मिलने वाली हर क़िस्म की सरकारी मदद में भारी कटौती करके। इस नीति का सीधा परिणाम बढ़ती महँगाई के रूप में सामने आया। यह भी ग़ौर करने की बात है 2007 से 2013 के बीच पाकिस्तानी रुपये का 40 प्रतिशत अवमूल्यन भी हुआ। मज़ेदार तथ्य यह है कि सरकार ने कर्ज़ अदायगी के लिए कॉरपोरेट टैक्स या व्यापारी वर्ग की आमदनी पर टैक्स लगाने से साफ़ इन्कार कर दिया। उसने पाकिस्तान के सबसे शक्तिशाली पूँजीपति घरानों को सरकार की तरफ़ से मिलने वाली 239 अरब रुपये की टैक्स छूटों को वापस लेने से भी साफ़ इन्कार कर दिया। कृषि प्रधान देश होने के बावजूद पाकिस्तान को अपनी ज़रूरत के खाद्यान का एक बड़ा हिस्सा आयात करना पड़ता है। पिछले वर्ष के मुक़ाबले इस वर्ष कृषि की विकास दर में गिरावट भी आयी है। यह 2.9 प्रतिशत से 2.1 प्रतिशत पहुँच गयी। कृषि पाकिस्तान के सकल घरेलू उत्पाद में 25 प्रतिशत का योगदान करती है और 45.7 प्रतिशत आबादी को रोज़़गार देती है। खराब पैदावार का सीधा असर महँगी होती खाद्य सामग्री के रूप में सामने आता है। औद्योगिक उत्पादन की हालत भी काफ़ी ख़स्ता है और मज़दूरों को बेहद ख़राब परिस्थितियों में काम करने को मजबूर होना पड़ता है। पाकिस्तानी उद्योग में कुल श्रमिक आबादी का 20.7 प्रतिशत हिस्सा काम में लगा है। पाकिस्तान के 5 करोड़ लोग ग़रीबी रेखा के नीचे गुज़र-बसर कर रहे हैं और क़रीब 3.5 करोड़ लोग कुपोषित हैं। पाकिस्तान के श्रम बाज़ार में हर साल 8 लाख युवा आबादी जुड़ जाती है। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ बेरोज़़गारी की दर 6.5 प्रतिशत है। शहरों में यह जहाँ 10.1 प्रतिशत है तो गाँवों मे 5 प्रतिशत के स्तर पर बनी हुई है। यहाँ यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि सरकार अर्द्ध-बेरोज़़गारों को इस गिनती से अलग रखती है। अतः वास्तविक बेरोज़़गारी की दर सरकारी आँकड़ों से काफ़ी अधिक है। पाठक कल्पना कर सकते हैं कि पाकिस्तान का शासक वर्ग ऐसी परिस्थितियों से घिरा है जहाँ जनता का भीतर ही भीतर उबलता आक्रोश और कंगाली के कग़ार पर खड़ी अर्थव्यवस्था को लगने वाला एक हल्का सा झटका भी उसके अस्तित्व को समाप्त कर सकता है। यही वजह है कि पाकिस्तानी शासक अपनी डूबती अर्थव्यवस्था की ऋण आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए साम्राज्यवाद के सामने घुटने टेकते हैं। इसके साथ ही साथ वे आम जनता के दबे हुए आक्रोश को भारत-विरोधी युद्धोन्माद या फिर धार्मिक उन्माद में बदलकर अपनी जान बचाने की कोशिश करते हैं। यह रणनीति अल्पकालिक तौर पर कुछ कारगर होते हुए भी दीर्घकालिक नज़रिये से आत्मघाती है।

हमने पहले बताया था कि पाकिस्तान का सैन्य तन्त्र नागरिक सरकार के मामलों में हस्तक्षेप करना अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानता है। यूँ तो किसी भी वर्ग विभाजित समाज में राज्यसत्ता दमन का उपकरण हुआ करती है, लेकिन बुर्जुआ लोकतन्त्र में सेना और नागरिक सरकार के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा भी होती है और केवल आपातकालीन परिस्थितियों में ही कोई बुर्जआ लोकतन्त्र अपने जनवाद के लबादे को खूँटी पर टाँग कर अपने वास्तविक सार को प्रकट करता है और नग्न दमन का रास्ता अपनाता है। पाकिस्तान का सैन्य तन्त्र इस आम नियम से कुछ इतर व्यवहार करता नज़र आता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पाकिस्तानी पूँजीवाद विश्व-रंगमंच पर बहुत देर से और बेहद कमज़ोर उत्पादक शक्तियों के साथ एक अपेक्षाकृत उन्नत सैन्य तन्त्र को लिए हुए जिस विशिष्ट भू-राजनीतिक परिदृश्य पर उपस्थित हुआ वहाँ विकास का इससे भिन्न कोई अन्य मार्ग मौजूद न था। 1947 के समय पाकिस्तान का पूँजीपति वर्ग बेहद पिछड़ा और कमज़ोर था। उसमें इतनी शक्ति न थी कि वह अपने बूते प्रारम्भिक पूँजी निवेश करके अपना विस्तार करता। वह प्रगतिशील जनवादी तरीक़े से पूँजीवाद का विकास कर ही नहीं सकता था। उसके पास साम्राज्यवाद की आर्थिक-सामरिक-वैज्ञानिक और तकनीकी मदद थी और एक सेना थी जहाँ से उसे अपनी विकास यात्रा को शुरू करना था। अपनी इस जन्मना विवशता के चलते पाकिस्तान आज तक अमेरिकी साम्राज्यवाद पर निर्भर है।

पाकिस्तान में पूँजीवादी विकास की दिशा कुछ इस तरह रही कि सेना के अधिकारियों का एक बड़ा तबका स्वयं पूँजीपतियों में तब्दील हो गया। इसका अन्दाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि आज सेना के मुट्ठी भर अधिकारी पाकिस्तान के सकल घरेलू उत्पाद का 7 फ़ीसदी हिस्सा नियंत्रित करते हैं। पाकिस्तान के एक-तिहाई भारी उद्योग का स्वामित्व सेना के पास है। सेना 11.58 लाख हेक्टेयर भूमि की स्वामी है। आज सेना पाकिस्तानी अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में मौजूद है। ग़ौरतलब है कि ब्रिटिश काल से ही सेना के अधिकारियों को भूमि-दान की परम्परा थी। पाकिस्तान की स्थापना के बाद भी यह प्रथा जारी रही। अयूब खान के समय में सेना के अधिकारियों को उद्योग, अर्थव्यवस्था और वित्त व्यवस्था में महत्त्वपूर्ण पद सौंपने की व्यवस्था शुरू हुई। यहाँ से बढ़ते हुए सेना के अधिकारियों ने स्वयं को अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र में स्थापित कर लिया। इस तरह पाकिस्तान में एक सैन्य-कुलीन तन्त्र अस्तित्व में आया जिसके पास ज़बर्दस्त आर्थिक शक्तिमत्ता है और वह सामरिक शक्ति का भी संचालन करता है। यह एक राजनीतिक चेतनासम्पन्न वर्ग है जो जानता है कि नग्न सैन्य तानाशाही दीर्घकाल में उसके लिए घातक है। लेकिन जब कभी नागरिक शासन उसकी अपेक्षाओं पर खरा नहीं उतरता या फिर अपने राजनीतिक संकटों का समाधान नहीं ढूँढ पाता तो ऐसे में वह स्वयं ही आगे बढ़कर शासन की बागडोर सँभाल लेता है और इस तरह पूँजी के शासन की रक्षा करता है। यही वजह है कि पाकिस्तानी सेना ने स्वयं को कभी भी लोकतन्त्र के विकल्प के रूप में प्रस्तुत नहीं किया। उसने हमेशा ही अपने आप को लोकतन्त्र का रक्षक बतलाया और अनुकूल परिस्थितियाँ होने पर नागरिक सरकारों को सत्ता-हस्तान्तरण भी किया।

आइये अब पाकिस्तान की राजनीति में धार्मिक कट्टरपन्थी समूहों की भूमिका पर भी एक नज़र डाली जाये। इस परिघटना को समझने के लिए थोड़ा सा इतिहास में जाना ज़रूरी है। इस्लामिक कट्टरपन्थ का उभार हमारे समकालीन इतिहास की परिघटना है। 1953 में स्तालिन की मृत्यु के बाद सोवियत संघ अपने कारणों से पूँजीवादी राह की ओर अग्रसर हुआ। जल्द ही वह एक साम्राज्यवादी शक्ति में तब्दील हो गया। दुनिया में दो परस्पर विरोधी साम्राज्यवादी शिविर अस्तित्व में आये। एक का नेतृत्व अमेरिका कर रहा था तो दूसरे का नेतृत्व रूस के पास था। 1978 में अफ़गानिस्तान में पीपुल पार्टी और बैनर पार्टी सत्ता में आयी। ये अपनेआप को मार्क्सवादी-लेनिनवादी मानते थे। इनके सत्ता में आते ही अमेरिकी साम्राज्यवादी सकते में आ गये और अफ़गानिस्तान की वामपन्थी सरकार के ख़िलाफ़ उन्होंने वहाँ इस्लामिक कट्टरपंथियों को हथियारबन्द संघर्ष के लिए उकसाना शुरू किया जिसके परिणामस्वरूप अफ़गानिस्तान के भीतर गृहयुद्ध की स्थिति हो गयी। इस मौके का फ़ायदा उठाकर 1979 में सोवियत साम्राज्यवाद ने सैन्य हस्तक्षेप किया और 30,000 की फ़ौज अफ़गानिस्तान में उतार दी गयी। ठीक इन्हीं वर्षों में अमेरिकी साम्राज्यवाद को एक और धक्का लगा जब ईरान में इस्लामिक क्रान्ति के बाद अमेरिका के पिट्ठू शाह को सत्ता से उखाड़ फेंका गया।

विश्व शक्ति-सन्तुलन में हुए इन परिवर्तनों से चिन्तित अमेरिकी साम्राज्यवाद ने अफ़गानिस्तान में अपने प्रतिद्वन्द्वी का मुक़ाबला करने के लिए इस्लामिक कट्टरपन्थ को भड़काकर परोक्ष सैन्य कार्रवाई की नीति अपनायी। पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह जियाउल हक़ की मदद से छेड़ी गयी इस्लामीकरण की इस मुहिम के तहत “इस्लाम की रक्षा” का नारा उछाला गया और पूरी दुनिया में प्रचारित किया गया। पाकिस्तान की मदद से अमेरिका ने मुजाहिद्दीनों के पहले दस्ते तैयार किये। इसमें पाकिस्तानी खुफ़िया एजेंसी आईएसआई का जमकर इस्तेमाल किया गया। पूरे पाकिस्तान में मदरसों का ताना-बाना खड़ा किया गया और कट्टरपन्थी मुल्लाओं की तनख़्वाहों का भुगतान अमेरिका की सीआईए ने किया। हालाँकि इन आतंकी दस्तों और इस्लामिक कट्टरपंथियों को अफ़गानिस्तान युद्ध के लिए तैयार किया जा रहा था, लेकिन इसके कारण स्वयं पाकिस्तान के भीतर इस्लामिक कट्टरपन्थ तेज़ी से फैला। पाकिस्तान में पहले से ही मौजूद देवबन्दियों की कट्टरपन्थी धारा ने इस काम में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। इस तरह हम पाते हैं कि दुनिया का सबसे महान धर्मनिरपेक्ष लोकतन्त्र होने का दावा करने वाले मुल्क अमेरिका ने इस्लामिक आतंकवाद के संगठित तन्त्र को खड़ा करने में सबसे बड़ी भूमिका अदा की।

हालात में 1989 ने एक नया मोड़ लिया जब सोवियत सेनाएँ अफ़गानिस्तान को छोड़कर वापस लौट गयीं। इसके बाद अफ़गानिस्तान में अमेरिका द्वारा पाले-पोसे गये मुजाहिद्दीन वहाँ से छिटककर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में फैल गये। ग़ौरतलब है कि यही वह दौर था जब कश्मीर में भारतीय राज्य की वायदाख़िलाफ़ी से तंग आकर कश्मीरी जनता में पनपे व्यापक असन्तोष का फ़ायदा उठाकर पाकिस्तान ने वहाँ जेहादी दस्ते भेजने शुरू किये और इस तरह कश्मीर में आतंकवाद का दौर शुरू हुआ। मुजाहिद्दीनों का जो हिस्सा पाकिस्तानी मदरसों में पला-बढ़ा उसी से तालिबान का जन्म हुआ। अल-क़ायदा और ओसामा बिन लादेन भी अमेरिका द्वारा पाकिस्तान की मदद से अफ़गानिस्तान में सोवियत संघ के ख़िलाफ़ जेहाद के दौरान पैदा हुए भस्मासुर थे जिन्होंने बाद में अपने आका को ही अपने निशाने पर लिया।

घटनाओं ने एक बार फिर नाटकीय मोड़ लिया जब 11 सितम्बर 2001 को अमेरिका के विश्व व्यापार केन्द्र की इमारत पर हमला हुआ जिसके बारे में अमेरिका का दावा था कि यह हमला अल-क़ायदा ने किया, हालाँकि अल-क़ायदा ने कभी इस हमले की ज़िम्मेदारी नहीं ली। लेकिन इसके साथ ही अमेरिका की आतंकवादियों के साथ मिलकर युद्ध करने की नीति का स्थान ‘आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध’ ने ले लिया। साम्राज्यवाद पर अपनी निर्भरता के चलते पाकिस्तान को आतंक के ख़िलाफ़ अमेरिका के युद्ध का न चाहते हुए भी अमेरिका का साथ देना पड़ा। अब पाकिस्तानी सेना की मजबूरी थी वो अपनी सीमाओं के भीतर आतंकियों के तन्त्र को निशाना बनाये। इसके कारण पाकिस्तानी राजनीति में कई बदलाव आये। सबसे पहले तो इसके कारण पाकिस्तानी तालिबान और सेना के बीच दुश्मनाना सम्बन्ध पैदा हुए। पाकिस्तानी तालिबान द्वारा सेना के ठिकानों पर किये गये हालिया हमले इसी का नतीजा हैं। दूसरे, सेना और देवबन्दियों के बीच पुरानी निकटता में दरार पैदा हुई। पाकिस्तान की राजनीति में सेना देवबन्दियों का दोहरा इस्तेमाल करती रही है। एक ओर तो वे भारत के ख़िलाफ़ युद्धोन्माद भड़काने में सेना की मदद किया करते थे तो दूसरी ओर अपने ही देश की नागरिक सरकार के ख़िलाफ़ दबाव बनाने के लिए जनान्दोलनों को भी संगठित करते थे। लेकिन बदले हुए मौजूदा हालातों में देवबन्दियों द्वारा ख़ाली की गयी जगह की भरपाई इमरान और क़ादरी की पार्टियाँ कर रही हैं। हालाँकि यह भी ध्यान रखना ज़रूरी है कि ये पार्टियाँ पाकिस्तान में मध्यवर्ग के बढ़ते प्रभाव की स्वाभाविक राजनीतिक अभिव्यक्तियाँ भी हैं।

बहरहाल, अभी हालात यह हैं कि 14 अगस्त को शुरू हुआ गतिरोध इस लेख के लिखे जाने तक बरक़रार था। तहरीक़-ए-इंसाफ़ को छोड़ दिया जाये तो सम्पूर्ण विपक्ष सरकार के साथ इस मुद्दे पर एकजुट होकर दृढ़ता के साथ खड़ा है। उन्होंने नवाज़ शरीफ़ के इस्तीफ़े की माँग को सिरे से ख़ारिज़ कर दिया है। सेना पूरे मसले पर क़रीबी नज़र रखे हुए है। अपने पुराने अनुभवों से सबक लेते हुए तथा पाकिस्तानी जनता के बीच सैन्य शासन की अलोकप्रियता को देखते हुए वह अभी सीधे हस्तक्षेप से बच रही है और घटनाओं को परोक्ष रूप से प्रभावित करने की कोशिशों में लगी हुई है। यदि यह गतिरोध नहीं सुलझता है तो इस बात सम्भावना अधिक है कि नवाज़ शरीफ़ राष्ट्रीय सरकार की बजाय चुनाव में जाना पसन्द करेंगे।

शायद पाठकों के लिए अब कल्पना करना सम्भव हो सके कि पाकिस्तान की जनता किन भीषण परिस्थितियों का शिकार है। एक ओर वह आर्थिक संकटों से जूझ रही है तो दूसरी ओर कट्टरपंथियों और आतंकियों का दंश भी बर्दाश्त कर रही है। वह अपने सैन्य तन्त्र के ज़ुल्मों को तो बर्दाश्त करती रही है, अब उसे अमेरिकी हमलों का भी निशाना बनाया जा रहा है। आतंक के ख़िलाफ़ युद्ध के पिछले 13 वर्षों की आर्थिक लागत 102 अरब डॉलर है। यह रक़म पाकिस्तान के कुल विदेशी क़र्ज़ के बराबर है। एक बात स्पष्ट है कि पाकिस्तानी जनता के जीवन में तब तक कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं होने वाला है जब तक कि वह स्वयं अपने समाज के भीतर से नयी परिवर्तनकामी शक्तियों को संगठित कर वर्तमान पूँजीपरस्त जनविरोधी तन्त्र को ही नष्ट करने और एक नये समतामूलक समाज को बनाने की दिशा में आगे नहीं बढ़ती।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्‍त 2014

 

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