गाज़ा में इज़रायल की हार और आगे की सम्भावनाएँ
कात्यायनी
26 अगस्त को हुए हमास-इज़रायल समझौते के बाद गाज़ा में नरसंहार और विनाश का ताण्डव फ़िलहाल रुक गया है। गाज़ा के कर्मठ और जुझारू निवासी अपने तबाह कर दिये गये शहरों-कस्बों के पुनर्निर्माण में जी-जान से जुट गये हैं। ज़मींदोज़ कर दी गयी इमारतों का मलबा तेज़ी से हटाया जा रहा है। बच्चे स्कूलों में जाने लगे हैं। बाज़ारों में भीड़-भाड़ नज़र आने लगी है।
समझौते के तहत इज़रायल मछली पकड़ने पर लगे प्रतिबन्ध को भी हटाने पर तैयार हो गया है। छह समुद्री मील तक गाज़ा निवासियों को समुद्र में मछली मारने की छूट दी गयी है। गाज़ा के एरेज़ तथा केरेम शालोम क्रासिंग्स की नाकेबन्दी में भी ढील दी गयी है, जिससे मानवीय सहायता, चिकित्सा-सामग्री और निर्माण-सामग्री गाज़ा में पहुँचने लगी है।
पचास दिनों तक चले इस संघर्ष में गाज़ा के 2145 लोग मारे गये जिनमें 578 बच्चे थे और शेष अधिकांश आम नागरिक थे। मारे जाने वाले हमास के लड़ाकों की संख्या अनुमानतः 12 से 24 के बीच रही होगी। दूसरी ओर हमास के हमलों में कुल 72 इज़रायली मारे गये जिनमें से 64 सैनिक थे और मात्र आठ नागरिक थे। ये आँकड़े इस बात के गवाह हैं कि इज़रायल युद्ध के नाम पर बदहवासी में बर्बर जनसंहार कर रहा था, जबकि हमास प्रतिरोध के दौरान आम नागरिकों के बजाय हमलावर सेना को निशाना बना रहा था।
गाज़ा युद्धविराम वास्तव में एक समझौता नहीं, बल्कि इज़रायल की अबतक की सबसे शर्मनाक हार है जो सच्चाई आने वाले दिनों में और अधिक साफ हो जायेगी। अपने बर्बर आक्रमण के मध्यकाल तक पहुँचते-पहुँचते ज़ायनवादी फासिस्टों को यह अहसास हो गया था कि गाज़ा की लड़ाई जीत पाना असम्भव है और दलदल में फँसे हाथी की तरह वे गाज़ा में फँस गये हैं। जघन्य नरसंहार, स्कूलों, अस्पतालों और दस हज़ार से भी अधिक रिहायशी इमारतों की तबाही तथा गाज़ा की कुल 18 लाख आबादी में से तीन लाख को बेघर-बेदर करके राहत शिविरों में रहने को मजबूर कर देने के बावजूद गाज़ा के लड़ाकों का प्रतिरोध टूटने के कोई आसार ज़ायनवादियों को नज़र नहीं आ रहे थे। 17 जुलाई को इज़रायल ने हमास छापामारों द्वारा बनायी गयी सुरंगों को नष्ट करने का बहाना बनाकर गाज़ा पर ज़मीनी हमले की शुरुआत की, पर उन्हें अपने लक्ष्य में आंशिक सफलता ही मिली। सेना को इसी दौरान छापेमारों के हाथों सबसे अधिक नुकसान का सामना करना पड़ा और सेना के भीतर से यह दबाव बनने लगा कि ज़मीनी हमले की कार्रवाई से पीछे हट जाना चाहिए। मजबूर होकर 5 अगस्त को जब 72 घण्टे का युद्धविराम लागू हुआ, तो इज़रायल ने गाज़ा से अपनी सेना को वापस बुला लिया। हवाई हमलों की विनाशलीला इसके बाद भी 25 अगस्त तक लगातार जारी रही।
26 अगस्त को जो युद्धविराम समझौता लागू हुआ, वह इज़रायल के लिए वास्तव में चेहरा छिपाने और राहत की साँस लेने का एक मौका था। इज़रायली सेना में पचास दिनों के जनसंहार अभियान के बाद बेचैनी फैल गयी थी और यह विश्वास पुख़्ता हो गया था कि गाज़ा निवासियों को तबतक पराजित नहीं किया जा सकता, जबतक कि पूरे गाज़ा को नेस्तनाबूद न कर दिया जाये। इज़रायल और उसके खुले और गुप्त मददगार यह जानते थे कि यह सम्भव नहीं। पचास दिनों के अपने हमले में ही उन्होंने देख लिया था कि जन-प्रतिरोध का दावानल न केवल फ़िलिस्तीन के पश्चिमी तट वाले हिस्से में फैल चुका है, बल्कि मिस्र, जार्डन, यमन और सभी खाड़ी देशों की जनता फ़िलिस्तीन के समर्थन में जिस उग्र ढंग से सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन कर रही थी, उससे अरब शासक वर्गों को भी यह चिन्ता सताने लगी थी कि फ़िलिस्तीनी जनता से विश्वासघात करने और अमेरिकी साम्राज्यवाद के पिट्ठू की भूमिका निभाने की क़ीमत कहीं उन्हें भारी जनउभारों के रूप में न चुकानी पड़ जाये। गाज़ा निवासी जानते थे कि यदि उन्हें सात वर्षों से जारी घेरेबन्दी के नारकीय जीवन के ख़िलाफ़ लड़ना है तो उसकी भारी क़ीमत नरसंहार और तबाही के रूप में चुकानी पड़ेगी। लेकिन इज़रायल अपने महँगे प्रशिक्षण से तैयार और अति सुविधासम्पन्न सैनिकों की इस हद तक क्षति और अर्थव्यवस्था को पहुँचने वाले इतने नुकसान को झेलने के लिए तैयार नहीं था। वियतनाम में हारते हुए अमेरिका ने भी विनाश का ताण्डव रचा था। 2006 में लेबनान में भी हिज़बुल्लाह छापामारों से पिटकर पीछे हटने से पहले इज़रायल ने जमकर बमबारी की थी और बच्चों सहित आम नागरिकों की बड़े पैमाने पर हत्या की थी।
आइये अब इज़रायल की इस दूरगामी प्रभाव वाली पराजय की स्थिति पर सिलसिलेवार नज़र डालें। गाज़ा के अपने इस जनसंहार अभियान पर इज़रायल ने कुल 2.5 अरब डॉलर ख़र्च किये। यानी एक गाज़ा निवासी की हत्या करने के लिए उसे 12 लाख डॉलर ख़र्च करने पड़े। इस युद्ध और हमास के राकेट हमलों से दक्षिण इज़रायल की उन्नत खेती इस वर्ष आधी से अधिक तबाह हो चुकी है। पर्यटन इज़रायल में विदेशी मुद्रा की आय का प्रमुख ज़रिया है। 2007 के बाद इस वर्ष इज़रायल में सबसे कम पर्यटक आये और पर्यटन उद्योग की यह मन्दी अगले कुछ वर्षों तक जारी रहने की आशंका है।
अभी भी इज़रायली आम जनता का बड़ा हिस्सा ज़ायनवादी प्रचार के प्रभाव में भय और असुरक्षा-बोध की सामूहिक मानसिकता से ग्रस्त होकर यही सोचता है कि फिलिस्तीनियों को लगातार दबा-कुचलकर नियन्त्रण में रखना इज़रायल के अस्तित्व की शर्त है। गाज़ा पर हमले के पचास दिनों बाद भी इज़रायल जब वस्तुतः कुछ नहीं हासिल कर सका और उसे उल्टे घेरेबन्दी में कुछ ढील देने के लिए विवश होना पड़ा तो, ज़ायनवादी शासकों को यह भय सताने लगा कि आम इज़रायलियों के भय के जिस मनोविज्ञान का वे अबतक लाभ उठाते रहे हैं वह आने वाले दिनों में उलटकर स्वयं उन्हीं के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर सकता है। एक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पहली बार राजधानी तेल अवीव और अन्य इज़रायली शहरों में लोगों ने (भले ही फ़िलहाल वे अल्पमत में हों) सड़कों पर उतरकर गाज़ा पर हमले का विरोध किया और ज़ायनवादी कट्टरपन्थी गुण्डा गिरोहों से लोहा लिया। यही नहीं, यूरोप-अमेरिका की प्रबुद्ध यहूदी आबादी ने पहली बार इतना मुखर होकर ज़ायनवादी कुकर्म का विरोध किया।
अमेरिकी मदद से हथियार उद्योग के अतिरिक्त इज़रायल ने अपने निर्यातोन्मुख उपभोक्ता सामग्री उद्योग का गत कुछ दशकों के दौरान काफी विकास कर लिया था। गाज़ा हमले के समय पूरी दुनिया और विशेषकर यूरोप में मानवाधिकारों के प्रति सजग बुद्धिजीवियों और आम नागरिकों ने इज़रायली उपभोक्ता सामग्रियों के बहिष्कार की संगठित और प्रभावी मुहिम चलायी, जिसका इज़रायली विदेश व्यापार पर गम्भीर प्रभाव पड़ा है। इज़रायल का निर्यातोन्मुख उपभोक्ता सामग्री उद्योग अबतक के गम्भीरतम संकट का सामना कर रहा है।
अन्तरराष्ट्रीय सम्बन्धों के स्तर पर इज़रायल को भारी नुकसान उठाना पड़ा है। जो यूरोपीय देश पहले से ही आर्थिक संकटों के कारण प्रदर्शनों-आन्दोलनों का सामना कर रहे थे, वहाँ पर जब गाज़ा पर हमले के विरुद्ध लगातार बड़े-बड़े जन-प्रदर्शन होने लगे तो अपनी साख को लेकर सरकारों की चिन्ता गहराने लगी और ब्रिटेन, फ़्रांस, जर्मनी जैसे इज़रायल के कई पुराने सहयोगियों ने भी नेतन्याहू की नीतियों के प्रति असन्तोष प्रकट करना और हमले रोकने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया। नीदरलैण्ड, स्कैण्डेनेवियन देशों और कई अन्य छोटे यूरोपीय देशों ने तो इज़रायल से व्यापार-सम्बन्धों को ही अतिसीमित कर दिया या एकदम रोक दिया। अमेरिकी साम्राज्यवाद इज़रायल का ऐसा संरक्षक है, जिसके बिना इज़रायल का खड़ा रह पाना भी सम्भव नहीं। आज इज़रायल का शस्त्रस्त्र और उपभोक्ता सामग्री उद्योग अतिविकसित है। 14000 डॉलर प्रति व्यक्ति आय (सऊदी अरब से भी अधिक) के साथ इज़रायल दुनिया का 16वाँ सबसे धनी देश है, जो केवल दशकों की भारी अमेरिकी मदद से ही सम्भव हो सका है। इसके साथ ही 1952 से अमेरिका ऋण गारण्टी के तौर पर सालाना इज़रायल को दो अरब डॉलर दे रहा है। अमेरिका के विदेशी सहायता बजट का एक तिहाई अकेले इज़रायल को जाता है। अफ़गानिस्तान के बाद फ़िलहाल इज़रायल अमेरिका से सबसे अधिक रकम सामरिक सहायता के रूप में हासिल करता है। अकेले 2012 में इज़रायल को अमेरिका से 3.1 अरब डॉलर की सामरिक सहायता मिली। अमेरिका इज़रायल को जो ऋण देता है, उसका बड़ा हिस्सा बाद में अनुदान में बदल दिया जाता है। यही नहीं इज़रायल को यह छूट है कि वह अमेरिका से हासिल ऋण एवं अनुदान की राशि को (जो हर वित्तीय वर्ष के प्रारम्भ में ही एकमुश्त मिल जाती है) वापस अमेरिकी ट्रेज़री बिल्स में निवेश करके अतिरिक्त ब्याज कमा ले।
कहा जाता है कि गम्भीर संकट का दबाव पड़ने पर लुटेरों के बीच के आपसी गँठजोड़ और सहबन्ध टूटने लगते हैं, उनमें दरारें और दरकनें पैदा होने लगती हैं और अन्तरविरोध बढ़ने लगते हैं। गाज़ा संकट के समय अमेरिका-इज़रायल के सम्बन्धों में भी ऐसा देखने में आया। अमेरिकी शासक वर्ग अमेरिका के शहर-शहर में गाज़ा के समर्थन में हो रहे भारी प्रदर्शनों से हैरान-परेशान था। यहाँ तक कि न केवल अमेरिका की आम यहूदी आबादी का बहुलांश इज़रायली हमले का विरोध कर रहा था, बल्कि (परम्परागत तौर पर डेमोक्रेटिक पार्टी समर्थक) इज़रायल-समर्थक यहूदी मूल के पूँजीपतियों का धड़ा भी हमले की कार्रवाई लम्बी खिंचने और विश्वव्यापी विरोध के बाद, नेतन्याहू की नीतियों के प्रति नाराज़गी ज़ाहिर करने लगा और बराक ओबामा को फिर नेतन्याहू को फटकार लगाते हुए उसपर यह दबाव बनाने के लिए विवश होना पड़ा वह मिस्री राष्ट्रपति अलसिस्सी की मध्यस्थता वाले युद्ध-विराम प्रस्ताव को स्वीकार कर ले।
गाज़ा संकट में इज़रायल की हार वास्तव में अमेरिकी साम्राज्यवाद की भी एक हार है। पहली बात यह कि गाज़ा की जनता के बहादुराना प्रतिरोध ने समूचे अरब क्षेत्र की जनता को फ़िलिस्तीन की जनता के साथ दृढ़ता से एकजुट कर दिया, इससे समूचे मध्यपूर्व की ‘रीडिज़ाइनिंग’ की जिस दूरगामी स्कीम पर आंग्ल-अमेरिकी धुरी काम कर रही थी, उसपर काफी हद तक पानी फिर गया। अल ब़गदादी के आईएसआईएस का समुचित इस्तेमाल भी नहीं हो पाया और उल्टे वक़्त से पहले ही वह भस्मासुर बनकर अमेरिकी हितों पर ही चोट करने लगा। फ़िलिस्तीन के मसले पर बग़दादी की चुप्पी ने एडवर्ड स्नोडेन के इस खुलासे की पुष्टि करने का काम किया कि यह नया स्वयंभू “खलीफ़ा” सी.आई.ए., मोसाद और ब्रिटिश गुप्तचर एजेंसी द्वारा तैयार करके मैदान में उतारा गया है। अब यह बात और भी साफ़ हो चुकी है। गाज़ा संकट के बाद क्षेत्रीय पैमाने के अन्तरविरोधों में ऐसा बदलाव आया कि ईरान, सीरिया और हिज़बुल्लाह पर दबाव बनाकर उन्हें अलग-थलग करने तथा इराक़ के ‘बाल्कनाइजे़शन’ (टुकड़े-टुकड़े करने) और मध्यपूर्व की नयी डिज़ायन में हाथ लगाने के अपने मंसूबे को कुछ विराम देने और रणनीति में कुछ बदलाव लाने के लिए अमेरिका को मजबूर होना पड़ा।
गाज़ा में इज़रायल की हार केवल अमेरिकी साम्राज्यवाद ही नहीं, बल्कि मिस्र, जार्डन, सऊदी अरब, क़तर और यमन सहित खाड़ी देशों के सभी अमेरिकापरस्त शासकों के लिए एक भारी झटका सिद्ध हुई है। सभी अरब देशों की जनता गाज़ा के समर्थन में जब लाखों की तादाद में सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन कर रही थी तो फ़िलिस्तीनी लक्ष्य के प्रति ग़द्दारी के लिए अपनी हुक़ूमतों के ख़िलाफ़ भी गहरी नफ़रत का इज़हार कर रही थी। क़तर का शासक वर्ग इस समय सुन्नी इस्लामी देशों के कथित नेतृत्व के लिए सऊदी अरब के शासकों से प्रतिस्पर्धा कर रहा है। अपने इसी उद्देश्य से, अरब जनता का समर्थन हासिल करने के लिए उसने गाज़ा की जनता और हमास का ज़्यादा मुखर समर्थन किया, लेकिन यह समर्थन वस्तुतः ज़ुबानी जमाख़र्च से अधिक कुछ नहीं था। कमोबेश यही स्थिति तुर्की के राष्ट्राध्यक्ष एर्दोगान की भी थी, जो अपनी क्षेत्रीय महत्त्वाकांक्षा से प्रेरित होकर साम्राज्यवादियों द्वारा खींचे जाने वाले पश्चिम एशिया के नये नक्शे में अपनी प्रभावी दखल बनाना चाहते हैं। गाज़ा की जनता की क़ुर्बानियों ने समूचे अरब क्षेत्र की जनता में साम्राज्यवाद-विरोधी भावनाओं और साम्राज्यवादपरस्त देशी पूँजीवादी सत्ताओं के विरुद्ध एकजुटता और भाईचारे की नयी लहर पैदा करने में अहम भूमिका निभायी है।
गाज़ा युद्ध के समय ही पश्चिमी तट पर ज़ायनवादियों के विरुद्ध आन्दोलनों-प्रदर्शनों की शुरुआत हो चुकी थी। इन पंक्तियों के लिखे जाने तक पश्चिमी तट के इलाक़े में लगातार जन प्रतिरोधों की ख़बरें मिल रही हैं और इज़रायल द्वारा अवैध बस्तियाँ बसाने के उद्देश्य से ज़मीन हड़पने की ताज़ा घटनाएँ इस आग में लगातार घी डालने का काम कर रही हैं। गाज़ा की घटनाओं के बाद पश्चिमी तट के क्षेत्र में समझौतापरस्त फ़िलिस्तीनी मुक्ति संगठन (पी.एल.ओ.) और महमूद अब्बास की सरकार की साख में भारी गिरावट आयी है। युद्धविराम समझौते के बाद, गाज़ा में इतनी अधिक तबाही के लिए हमास को ज़िम्मेदार ठहराने वाले महमूद अब्बास के बयान ने उनकी अलोकप्रियता को और अधिक बढ़ाया है। इस तरह गाज़ा के संघर्ष ने इज़रायल के साथ ही महमूद अब्बास को भी करारा झटका दिया है। आज यह महमूद अब्बास की मजबूरी है कि हमास की आलोचना करते हुए भी वह एकता सरकार बनाने की नयी पहल में भागीदार बने रहे। अन्यथा पश्चिमी तट के फ़िलिस्तीनी ही उनके ख़िलाफ़ सड़कों पर उतर पड़ेंगे।
यहाँ पर यह याद करना प्रासंगिक होगा कि जब पी.एल.ओ. ने समझौतापरस्ती का रास्ता नहीं अपनाया था, तब मिस्र के ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ से जुड़े धार्मिक कट्टरपन्थी संगठन ‘हमास’ को पी.एल.ओ. के प्रतिद्वन्द्वी के रूप में उभारने में इज़रायली शासकों और अमेरिकी साम्राज्यवादियों का भी परोक्ष समर्थन था। मैड्रिड शान्ति सम्मेलन (1991) और ओस्लो समझौते (1993) के बाद पी.एल.ओ. के सेक्युलर, रैडिकल बुर्जुआ नेतृत्व और उसके सामाजिक जनवादी सहयोगियों ने संघर्ष के बजाय समझौते के ज़रिये जायनवादियों और उनके अमेरिकी सरपरस्तों से कुछ हासिल करने की कोशिशें शुरू कर दीं। जैसे-जैसे समझौते की यह रणनीति समझौतापरस्ती में बदलती गयी और साथ ही इसकी व्यर्थता भी उजागर होती चली गयी, वैसे-वैसे हमास का सामाजिक-समर्थन आधार विस्तारित होता चला गया। दरअसल पी.एल.ओ. के जुझारूपन खोते बुर्जुआ नेतृत्व से मोहभंग की शुरुआत तो 1987 के उस व्यापक जनउभार से ही हो चुकी थी, जिसे पहले ‘इन्तिफ़ादा’ के नाम से जाना जाता है। पी.एल.ओ. द्वारा समझौतापरस्ती का रास्ता अपनाने के बाद अमेरिकी-इज़रायली स्कीम में हमास को परोक्ष शह देने की न ज़रूरत रह गयी थी, न ही गुंजाइश। इधर मुक्तिकामी जनता की आकांक्षाओं के दबाव तले हमास के चरित्र में भी बदलाव आया। हमास आज ‘अल क़ायदा’ या आई.एस.आई.एस. जैसा या ‘मुस्लिम ब्रदरहुड’ जैसा कट्टरपन्थी आतंकवादी संगठन नहीं है (ऐसे कुछ अन्य छोटे संगठन वहाँ हैं)। यह एक व्यापक जनान्दोलन है, जिसका सशस्त्र दस्ता भी है। यह मुक्त फ़िलिस्तीन में शरिया क़ानून लागू करने, स्त्रियों के लिए पर्दापोशी अनिवार्य करने जैसी या दुनिया के पैमाने पर जेहाद छेड़ने जैसी बातें नहीं करता। सच्चाई यह है कि फ़िलिस्तीन में यह सम्भव नहीं। फ़िलिस्तीनी जन पारम्परिक तौर पर अरब क्षेत्र के सबसे आधुनिक और शिक्षित लोग रहे हैं। हमास का आज सिर्फ़ इसलिए व्यापक समर्थन आधार है, क्योंकि वह ज़ायनवादियों के विरुद्ध जुझारू ढंग से लड़ रहा है। जैसे ही उसकी यह भूमिका नहीं रहेगी, या वह जनता पर किसी किस्म की कट्टरपन्थी निरंकुश सत्ता थोपने का प्रयास करेगा वैसे ही कोई नया रैडिकल विकल्प हमास का स्थान ले लेगा। यह याद रखना होगा कि पी.एल.ओ. में शामिल जॉर्ज हबाश के नेतृत्व वाले वामपन्थी संगठन ‘पी.एफ.एल.पी.’ ने जब मुख्य घटक (राष्ट्रीय बुर्जुआ चरित्र वाले) ‘अल फ़तह’ के पिछलग्गू् की भूमिका अपनाते हुए समझौते का मार्ग चुना और पी.एफ.एल.पी. से अलग हुए रैडिकल वाम धड़े भी जब अपनी यांत्रिक, संकीर्णतावादी और वाम दुस्साहसवादी ग़लतियों के कारण कोई विकल्प नहीं बन सके, तो इन्हीं स्थितियों में हमास अपनी ताक़त और आधार बढ़ाने में सफल हुआ था।
बहरहाल, फ़िलहाल गाज़ा पट्टी के साथ ही पश्चिमी तट के इलाक़े में भी हमास का आधार-विस्तार पी.एल.ओ. की समझौतापरस्त हुकूमत की भी एक हार है। हमास और पी.एल.ओ. की प्रस्तावित ‘एकता सरकार’ महमूद अब्बास की एक मजबूरी है, जो अब गले की हड्डी बन चुकी है। इसका आने वालों दिनों में क्या हश्र होगा, यह तो अभी बता पाना मुश्किल है, लेकिन इतना तय है कि गाज़ा पट्टी के साथ ही पश्चिमी तट पर भी व्यापक जन-प्रतिरोध की लहर तेज़ हो जायेगी और तीसरे इन्तिफ़ादा जैसे किसी व्यापक जनउभार की सम्भावना से क़तई इन्कार नहीं किया जा सकता। फ़िलिस्तीनी जनता के संघर्ष का अगला दौर समूचे अरब क्षेत्र में जनसंघर्षों को नया संवेग प्रदान करेगा और इसका प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ेगा, क्योंकि समूचा पश्चिम एशिया आज विश्व पूँजीवाद के सभी अन्तरविरोधों की गाँठ बना हुआ है। गाज़ा के समर्थन में पिछले दिनों पूरी दुनिया में जितने बड़े पैमाने पर जन-प्रदर्शन हुए, वह नज़ारा दशकों बाद देखने में आया। वियतनाम युद्ध के दिनों के बाद पहली बार पूरी दुनिया की जनता की एकजुटता इस तरह सड़कों पर दिखायी दी।
फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष के पूरे इतिहास पर यदि सरसरी निगाह डालें तो पहले अरब-इज़रायल युद्ध (1947-49), दूसरे अरब-इज़रायल युद्ध (1967), पी.एल.ओ. के गठन, पहले इन्तिफ़ादा (1987), दूसरे इन्तिफ़ादा (2000) और लेबनान में हिज़बुल्लाह के हाथों इज़रायल की हार (2006) के बाद 2014 का गाज़ा संघर्ष सातवाँ महत्त्वपूर्ण मुकाम है जहाँ से एक नया अध्याय शुरू होने जा रहा है।
निश्चय ही फ़िलिस्तीनी मुक्ति संघर्ष की निर्णायक विजय का रास्ता अभी लम्बा और कठिनाइयों भरा है। किसी हद तक फ़िलिस्तीनी जनता का भविष्य समूचे अरब क्षेत्र में जन मुक्ति संघर्ष के आगे बढ़ने के भविष्य के साथ भी जुड़ा है। आने वाले दिनों में अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतियोगिता के नये दौर के गति पकड़ने का भी इस पर अनुकूल सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। मुक्ति की मंज़िल अभी दूर है, पर इतना सिद्ध हो चुका है कि असीम सामरिक शक्ति के बूते भी एक छोटे से देश की जनता को ग़ुलाम बनाकर रख पाना मुमकिन नहीं। जनता अजेय होती है। आने वाले दिनों में भी फ़िलिस्तीन में ज़ायनवादी ज़ुल्म और अँधेरगर्दी जारी रहेगी, लेकिन इतना तय है कि हर अत्याचार का जवाब फ़िलिस्तीनी जनता ज़्यादा से ज़्यादा जुझारू प्रतिरोध द्वारा देगी। ज़ायनवादियों को आने वाले दिनों में कुछ महत्त्वपूर्ण रियायतें देने के लिए भी मजबूर होना पड़ सकता है। और देर से ही सही, फ़िलिस्तीनी जन जब निर्णायक विजय की मंज़िल के करीब होंगे तो उनके तमाम अरब बन्धु भी तब मुक्ति संघर्ष के पथ पर आगे क़दम बढ़ा चुके रहेंगे।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2014
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