मालिन गाँव हादसा – यह प्राकृतिक नहीं पूँजी-जनित आपदा है
सुनील
पिछले कुछ दशकों से विश्व का कोना-कोना आश्चर्यजनक रूप से निरन्तर भयावह प्राकृतिक आपदाओं का साक्षी बन रहा है। सुनामी, बादल फटना, बाढ़, भूकम्प, भूस्खलन, हिमस्खलन जैसी घटनाओं से जान-माल की भारी क्षति हो रही है। 2002 में आयी सुनामी और पिछले ही वर्ष की उत्तराखण्ड त्रासदी इसके प्रातिनिधिक उदाहरण हैं। और इस समय कश्मीर में आयी बाढ़ इसका ताज़ा उदाहरण है।
महाराष्ट्र के पुणे जिला के मालिन गाँव में हुई भूस्खलन की घटना से हम वाकिफ़ हैं जिसमें पूरा गाँव मिट्टी के ढेर तले समा गया और गाँव में रहने वाले अधिकतर (आँकड़ों के मुताबिक़ 160 से भी ज़्यादा) लोगों की मौत का कारण बना। दुनिया के कोने-कोने में घट रही ऐसी विभीषिकाएँ इस बात की तरफ स्पष्ट इशारा कर रही हैं कि ये प्राकृतिक न होकर पूँजी-जनित आपदाएँ हैं जो बड़ी-बड़ी कम्पनियों के हाथों मुनाफ़े की अन्धी हवस में प्रकृति के ध्वंस के कारण पैदा हो रही हैं। पर्यावरण की भयंकर तबाही और पूरे के पूरे पारिस्थितिक सन्तुलन का इसके कारण गड़बड़ हो जाना हमें और भी ज़्यादा शिद्दत से इस बात का अहसास करा रहा है कि पूँजीवादी व्यवस्था का एक-एक दिन मानवता पर भारी पड़ रहा है। कभी न तृप्त होने वाली मुनापफ़े की हवस पर टिकी, मुनाफ़ाकेंद्रित मानवद्रोही पूँजीवादी व्यवस्था जो दिन-रात मेहनतकशों का ख़ून चूसकर, उनकी हड्डियाँ निचोड़कर आँसुओं के समुन्दर के बीच ऐयाशी के टापू खड़े करती है, वास्तव में मेहनत और कुदरत दोनों को ही तबाह कर रही है। हम कह सकते हैं कि पूँजीवाद न सिर्फ़ मानवता के लिए घातक है बल्कि पृथ्वी और उस पर विद्यमान जीव-जन्तुओं, वनस्पतियों यानी पूरे पारिस्थितिकी तन्त्र और पर्यावरण के भी विनाश का सबब बन रहा है। पूँजी की निर्बाध गति किसी भी प्रकार के सामंजस्य और अनुकूलन को नष्ट कर डालती है। अपने चार सौ वर्षों के इतिहास में इसने मनुष्यों और प्रकृति के बीच मौजूद सामंजस्य को भी नष्ट कर दिया है। मुनाफे़ के लिए पूँजीवाद का अराजकतापूर्ण उत्पादन और उसके लिए प्राकृतिक संसाधनों का असामंजस्यपूर्ण दोहन ही ऐसी त्रासदियों को जन्म दे रहा है। इसलिए इसकी ज़िम्मेदार सम्पूर्ण मानवता नहीं बल्कि व्यवस्था के रहनुमा मुट्ठी-भर पूँजीपतियों की जमात और उनके इशारों पर नाचने वाले व्यवस्था के चाकर हैं जो पूँजीवाद के विकास रथ तले मानवता और प्रकृति दोनों को ही रौंदते हुए सरपट दौड़े जा रहे हैं।
पुणे के मालिन गाँव में जो कुछ हुआ उसकी भूमिका काफ़ी समय से तैयार हो रही थी। सड़कें, सुरंगें व बाँध बनाने के लिए अन्धाधुन्ध तरीक़े से पहाड़ियों को बारूद से उड़ाने, वनों की अन्धाधुन्ध कटाई व अवैध खनन की वजह से पूरे इलाके की चट्टानों की अस्थिरता बढ़ती है और फलस्वरूप भूस्खलन का ख़तरा भी बढ़ जाता है। पहाड़ की ढलानों पर वनस्पतियों की मौजूदगी से वर्षा के पानी के बहाव की गति धीमी हो जाती है और हिस्से को भूमिगत जल मे मिल जाने का पर्याप्त अवसर मिल जाता है जिससे बाढ़ और भूस्खलन दोनों की सम्भावना कम हो जाती है। महाराष्ट्र के वाइल्डलाइफ बोर्ड के सदस्य किशोर रिठे के अनुसार वर्ष 2007 से ही हज़ारों हेक्टेयर की भूमि में वनों का सफाया किया गया है और अतिक्रमित भूमि को बिल्डर्स को हाउसिंग कॉम्प्लैक्स बनाने के लिए बेचा गया है। दूसरा संकट का कारण सड़कों का निर्माण है जहाँ कीचड को सीधे ढलान के सहारे धकेल दिया जाता है जो वाटर चैनल्स को अवरुद्ध करता है जिसके फलस्वरूप मिट्टी को बाँधने वाली वनस्पति बर्बाद हो जाती है। सारी रीयल एस्टेट कम्पनियाँ निर्माण कार्य बिना किसी पर्यावरण प्रभाव का विश्लेषण किये ही अंजाम देती हैं। दस साल पहले निर्मित डिम्भे बाँध भी इसका एक मुख्य कारण रहा है। मालिन गाँव भी डिम्भे बाँध के बैकवाटर्स के नज़दीक स्थित है और ऐसे क्षेत्रों में भूस्खलन की सम्भावना अधिक रहती है और पहले भी वहाँ छोटे भूस्खलन हुए थे। 2006 से 2007 के बीच सिद्धगड़वाड़ी और सहारमछ गाँवों में भूस्खलन की घटनाओं में 100 से अधिक पशु दब गये थे। पिछले ही वर्ष पुणे के बाहर कटराज की पहाड़ियों में अनाधिकृत निर्माण बूम में अचानक आयी बाढ़ ने एक बच्चे सहित दो व्यक्तियों की मौत हुई थी। आदिवासी भूमिसुधार के नाम पर पहाड़ी पर जेसीबी मशीनों का इस्तेमाल आदिवासियों के प्रतिरोध के बावजूद किया जा रहा था जिसके फलस्वरूप पहाड़ी में अस्थिरता आना स्वाभाविक ही था।
दुनियाभर के वैज्ञानिक और पर्यावरणविद यह बात कहते आये हैं कि पिछले कुछ दशकों में समूचे भूमण्डल में जलवायु परिवर्तन के लक्षण दिख रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग की परिघटना इसी परिवर्तन की एक बानगी है जिसमें पृथ्वी पर ग्रीनहाउस गैसों (जैसे कार्बन डाईऑक्साइड)के अधिकाधिक उत्सर्जन से वातावरण का औसत तापमान बढ़ रहा है जिसकी परिणति दुनिया के विभिन्न हिस्सों में भारी वर्षा, बाढ़ व सूखा जैसी प्राकृतिक आपदाओं की बढ़ती बारम्बारता के रूप में देखने को आ रही हैं। ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन मुख्य तौर पर फ़ॉसिल फ्यूल के इस्तेमाल में अभूतपूर्व बढ़ोतरी के साथ जुडा हुआ है जो सीधे तौर पर विश्वव्यापी पूँजीवादी आटोमोबाइल उद्योग के सनक भरे विकास की वजह से हुआ है। मानसून की अनिश्चितता का बढना व ग्लेशियरों की बर्फ़ का पिघलना भी ग्लोबल वार्मिंग का ही एक प्रभाव है। संसद और विधानसभाओं में बैठे हमारे “जनप्रतिनिधि” इस तरह की तमाम आपदाओं पर जुबानी जमाख़र्च तो अवश्य करते हैं और उन्होंने किया भी। मुख्यमन्त्री पृथ्वीराज चव्हाण ने घटना के बाद पूरे राज्य के पारिस्थितिक तन्त्र के सर्वेक्षण की घोषणा की तो वहीं गृहमन्त्री राजनाथ सिंह से लेकर अलग-अलग पार्टी नेताओं ने घटनास्थल का दौरा किया। ये वही लोग हैं जो प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष तौर पर इन त्रासदियों के लिए ज़िम्मेदार हैं।
ऐसे किसी पूँजीवाद की कल्पना नहीं की जा सकती है जो कि पर्यावरण के अनुकूल और उसके प्रति मित्रतापूर्ण हो। पूँजीवाद प्रतिस्पर्द्धा पर आधारित एक ऐसी अराजकतापूर्ण व्यवस्था है जो कि एक छोटे से लुटेरे वर्ग के मुनाफ़े की ख़ातिर मेहनत (श्रम) और कुदरत (प्रकृति), दोनों की अन्धाधुन्ध लूट और तबाही पर आधारित है। वास्तव में, मज़दूर वर्ग और प्रकृति की तबाही इसकी पूर्वशर्त है। चाहे मैंग्रोव वृक्षों की कटाई के कारण सुनामी के भयंकर असर की बात हो, या उत्तराखण्ड के जल-प्रलय की बात हो; चाहे ओज़ोन परत में छेद की बात हो या फिर पृथ्वी के ‘आइस कैप’ पिघलने और ‘ग्लोबल वार्मिंग’ की बात हो; ये सारी आपदाएँ ख़ुद-ब-ख़ुद नहीं आ रही हैं और न ही ये ईश्वरीय कारनामे हैं। ये मुनाफ़ाखोर पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा मानवता पर थोपी गयी आपदाएँ हैं। इन आपदाओं की क़ीमत हमेशा की तरह आम मेहनतकश अवाम को सबसे ज़्यादा और सबसे पहले चुकानी पड़ती है, जैसा कि मालिन गाँव में हुआ है। मौजूदा मुनाफ़ाखोर व्यवस्था के दायरे के भीतर इस समस्या का समाधान सम्भव नहीं है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2014
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