तीन राज्यों के आगामी विधानसभा चुनाव: तैयारियाँ, जोड़-तोड़ और सम्भावनाएँ
कविता
दिल्ली, जम्मू-कश्मीर और झारखण्ड के विधानसभा चुनावों की घोषणा हो चुकी है। कांग्रेस अभी संसदीय चुनावों तथा हरियाणा-महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में हार के सदमे से उबरी नहीं है। भाजपा पिछली जीतों से उत्साहित, जोशोखरोश के साथ प्रचार अभियान में जुट गयी है। तीनों ही राज्यों में उसका मुकाबला मुख्यतः क्षेत्रीय आधार वाली पार्टियों से है। दिल्ली और झारखण्ड में उसे अपनी जीत का पूरा भरोसा है और जम्मू-कश्मीर में पहली बार जोड़-तोड़ करके गठबन्धन बनाकर या अकेले सत्ता में आने के लिए वह हर प्रकार की तीन-तिकड़म करने में लग गयी है। कांग्रेस की बासी कढ़ी में फ़िलहाल उबाल की कोई उम्मीद नहीं है। अभी वह पिछली हारों की पस्ती, मायूसी में डूबी हुई है।
बेशक, भाजपा के पक्ष में चुनावी माहौल अभी बना हुआ है। सरकारी और निजी बुर्जुआ मीडिया मोदी के छवि-निर्माण अभियान में ज़मीन-आसमान एक किये हुए हैं। रहे-सहे श्रम क़ानूनों को भी निष्प्रभावी बनाकर मज़दूरों के बेलगाम अतिशोषण का रास्ता खोलने, भूमि अधिग्रहण क़ानून में सुधार के द्वारा किसानों और आदिवासियों की ज़मीन हड़पने की प्रक्रिया को सुगम बनाने, सार्वजनिक उपक्रमों को कौड़ियों के मोल देशी-विदेशी पूँजीपतियों के हाथों बेचने, बीमा जैसे क्षेत्रों में विदेशी निवेश की सीमा बढ़ाने, शिक्षा के निजीकरण और अन्धाधुँध फ़ीस बढ़ोत्तरी को बढ़ावा देने और आम लोगों पर कमरतोड़ बोझ डालकर अमीरों की दुनिया की सुख-सम्पदा बढ़ाने के लिए उठाये गये ढेर सारे क़दमों के नतीजे अपने भयंकर रूप में अभी जनता के सामने नहीं आये हैं। लोकरंजक नारों और वायदों से पैदा किये गये भ्रम अभी बरकरार हैं, हवाई उम्मीदें अभी कायम हैं। भाजपा अभी इस माहौल का लाभ उठा लेने के लिए आतुर है, और आश्वस्त भी। आने वाले दिनों में जब लोकरंजक वायदे हवा हो जायेंगे, जब भीषण बेलगाम शोषण, मँहगाई और बेरोज़गारी से त्रस्त लोगों की नज़रों के सामने से हवाई उम्मीदों और लुभावनी छवियों का कुहासा छँटने लगेगा, तब के लिए भाजपा के तरकश में पुराने आजमूदा नुस्खों के तीर हैं ही। ये आजमूदा नुस्खे हैं: साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण और अन्धराष्ट्रवादी उन्माद की लहर। इन नुस्खों का सीमित और नियन्त्रित इस्तेमाल अभी भी जारी है।
दिल्ली में भाजपा अपनी जीत को लेकर काफ़ी हद तक आश्वस्त है। कांग्रेस फ़िलहाल कहीं मुकाबले में नहीं दीख रही है, हालाँकि सज्जन कुमार को फिर से कुछ सांगठनिक ज़िम्मेदारियाँ सौंपकर वह अपनी स्थिति कुछ बेहतर करने की कोशिश कर रही है और इसी दृष्टि से शीला दीक्षित को भी फिर से दिल्ली की राजनीति में लाने पर विचार किया जा रहा है। आम आदमी पार्टी की समस्या यह है कि केजरीवाल के बहुतेरे लोकरंजक नारों को भाजपा ने छीन लिया है, भ्रष्टाचार के मुद्दे की भी चमक थोड़ी फीकी पड़ गयी है, केजरीवाल एण्ड कम्पनी की ‘सफ़ेदी की चमकार’ धूमिल हो गयी है और अनाड़ी-अनुभवहीन प्रशासक एवं बड़बोले के रूप में उसकी छवि प्रस्तुत करने में भाजपा काफ़ी हद तक कामयाब हुई है। केजरीवाल का मुख्य वोट बैंक जिन कुलीन, नौबढ़ मध्यवर्गीय जमातों, व्यापारियों और छोटे कारोबारियों में था, केन्द्र में सत्तासीन होने के बाद भाजपा ने काफ़ी हद तक उसे छीन लिया है। वैसे भी वही पहले भाजपा का भी मुख्य चुनावी आधार था। केजरीवाल का सामाजिक आधार भी वस्तुतः वही था जो फासीवाद का हो सकता था। अतः यदि वह खिसककर फासीवाद की प्रभावी राष्ट्रीय धारा के पास आ जाता है, तो यह कोई ताज्जुब की बात नहीं। झुग्गी बस्तियों में केजरीवाल ने लोकलुभावन नारों से जो समर्थन आधार बनाया था उसे आर.एस.एस. व संघ परिवार के अन्य अनुषंगी संगठनों की लगातार सघन कोशिशों के ज़रिये भाजपा ने काफ़ी हद तक अपने पक्ष में कर लिया है। फिर भी आप पार्टी सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके और नये-नये लुभावने वायदे करके भाजपा को कड़ी टक्कर देने की भरपूर कोशिश कर रही है। अपनी जीत की सम्भावना को पुख़्ता करने के लिए भाजपा दिल्ली में कुशल और नियन्त्रित ढंग से साम्प्रदायिक हिंसा भड़काकर और तनाव पैदा कर वोटों के ध्रुवीकरण की राजनीति भी कर रही है। त्रिलोकपुरी और बवाना की घटनाएँ इसी का नतीजा थीं। दिल्ली के नजदीक होने के नाते पलवल में साम्प्रदायिक तनाव एवं हिंसा का भी भाजपा को दिल्ली में फ़ायदा मिलना ही है।
झारखण्ड में झामुमो सरकार की अलोकप्रियता घनघोर भ्रष्टाचार और विफल प्रशासन के चलते चरम पर है और ‘एण्टी इनकम्बैन्सी फ़ैक्टर’ का सर्वाधिक लाभ फ़िलहाल भाजपा को ही मिलता दीख रहा है। बाबू लाल मराण्डी की पार्टी को भाजपा का स्वाभाविक सहयोगी माना जा रहा था, लेकिन भाजपा ने किसी जमाने में रैडिकल तेवर के साथ झारखण्डी अस्मिता की राजनीति करने वाले और अब घनघोर अवसरवादी हो चुके ‘आजसू’ के साथ चुनावी मोर्चा बनाना बेहतर समझा। राजद, मराण्डी की पार्टी और अन्य दल भाजपा-विरोधी मतों को बाँटने का ही काम करेंगे।
जम्मू-कश्मीर में भाजपा अब तक की अपनी सबसे महत्वाकांक्षी योजना के साथ चुनावी मैदान में उतर रही है। उसे पूरा भरोसा है, और उम्मीद भी ऐसी ही है, कि जम्मू क्षेत्र में भीम सिंह की पैन्थर्स पार्टी के भी वोट बैंक में सेंध लगाते हुए वह अधिकतम सीटों पर क़ब्ज़ा जमायेगी। कश्मीर घाटी में पहली बार वह प्रभावी उपस्थिति की योजना बना चुकी है। पूर्व अलगाववादी नेता सज्जाद लोन की पार्टी उसके साथ आ चुकी है। घाटी के लोगों का दिल जीतने के लिए भाजपा धारा 370 के मसले पर चुप्पी साध चुकी है और घाटी में मुँहामुँही यह प्रचार भी जारी है कि भाजपा सरकार निकट भविष्य में ‘आफ्स्पा’ (सशस्त्र बल विशेष अधिकार क़ानून) को हटा सकती है। सेना के बर्बर अत्याचारों की शिकार कश्मीरी जनता पाकिस्तान-समर्थित आतंकवादियों के स्वेच्छाचार और हुर्रियत नेताओं के भ्रष्टाचार, मौक़ापरस्ती तथा अन्तर्कलहों से भी ऊब और थक चुकी है। इस मनःस्थिति का भाजपा भरपूर लाभ उठाना चाहती है। पिछले दिनों घाटी में बाढ़ के समय मोदी की हमदर्दी भरी ख़ास सरगर्मियों के पीछे यह भी एक अहम कारण था। एक और महत्वपूर्ण फ़ैक्टर कश्मीरी पण्डितों का वोट है। हाल के कुछ महीनों में बड़े पैमाने पर घाटी के कुछ इलाक़ों में उनका पुनर्वास किया गया है। अन्य राज्यों में रह रहे जो कश्मीरी पण्डित वोट देने में दिलचस्पी खो चुके थे, बड़े पैमाने पर उनके पहचानपत्र बनाये गये हैं, उनमें वोट देने के लिए सघन प्रचार किया जा रहा है और डाक से उनके वोट डालने के पुख़्ता इन्तज़ाम किये जा रहे हैं। विस्थापित कश्मीरी पण्डित मतदाताओं की संख्या पिछले छः वर्षों में 27 प्रतिशत बढ़ी है और पिछले लोकसभा चुनावों के बाद 4.65 प्रतिशत बढ़ी है। अक्टूबर के अन्त तक विस्थापित कश्मीरी पण्डित मतदाताओं की संख्या बढ़कर 92,934 हो चुकी है और यह लगातार बढ़ रही है। हाल के दिनों में घाटी में 80,000 पण्डितों का पुनर्वास भी किया गया है। यदि घाटी में हुर्रियत और अन्य अलगाववादियों का चुनाव बहिष्कार का नारा कुछ प्रभावी होगा तो पूरे श्रीनगर ज़िले के अतिरिक्त हव्वा कदाल, अमीरा कदाल और खनियार जैसे विधानसभा क्षेत्रों में विस्थापित और पुनर्वासित कश्मीरी पण्डित वोटों की काफ़ी हद तक निर्णायक भूमिका हो जायेगी और यह बात भाजपा के पक्ष में जायेगी। नेशनल कांफ्रेंस को ‘एण्टी-इनकम्बैन्सी फ़ैक्टर’ का शिकार होना ही है। कांग्रेस अपनी कुछ परम्परागत सीटों को ही बचा पायेगी। पी.डी.पी. की स्थिति कुछ बेहतर हो सकती है। चुनावोत्तर परिदृश्य जो भी उभरे, भाजपा को भरोसा है कि वह अकेले नहीं तो भीम सिंह की पैन्थर्स पार्टी और पी.डी.पी., नेशनल कांफ्रेंस में से किसी एक के साथ गाँठ जोड़कर सरकार बना सकती है। इन पार्टियों के अवसरवादी चरित्र को देखते हुए यह बिल्कुल मुमकिन है। नेशनल कांफ्रेंस तो पहले एन.डी.ए. का भागीदार रह भी चुकी है।
इन तीन विधानसभा चुनावों में अपनी बेहतर स्थिति को देखते हुए भाजपा अगले तीन वर्षों के दौरान होने वाले कुछ सबसे महत्वपूर्ण राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिए रणनीति बनाने और ज़मीनी तैयारी में अभी से जुट गयी है। अगले ही वर्ष बिहार में विधानसभा चुनाव होने हैं जहाँ भाजपा को लालू-नीतीश-कांग्रेस के “महागठबन्धन” से टकराना होगा। मोदी लहर तब तक बनी रहेगी, इसका भाजपा को भरोसा है। लेकिन सिर्फ़ उसी से काम नहीं चलेगा, इसलिए भाजपा वोटों के धार्मिक ध्रुवीकरण के लिए चुनिन्दा जगहों पर साम्प्रदायिक तनाव एवं दंगों का कार्ड नियन्त्रित ढंग से अवश्य खेलेगी। साथ ही वह जातिगत समीकरणों को भी साधने की कोशिश करेगी। 2016 में पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव होने हैं। प. बंगाल में वाम मोर्चा के भूमि सुधारों ने जिस नये कुलक वर्ग को जन्म दिया, उसके एक बड़े हिस्से को तथा महानगरीय मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से को तृणमूल कांग्रेस ने अपने साथ ले लिया था। इस समय साम्प्रदायिकता की सघन ज़मीनी राजनीति के प्रभाव में इस तबके का तेज़ी से भगवाकरण हो रहा है तथा तृणमूल के साथ वाम मोर्चा के वोट बैंक में भी भाजपा सेंधमारी कर रही है। फिर भी फ़िलहाल बंगाल में भाजपा के सत्तारूढ़ होने की सम्भावना थोड़ी कम ही है। केरल में भी संघ परिवार ने अपनी सक्रियता बहुत अधिक बढ़ा दी है, लेकिन अभी वहाँ भाजपा के सत्तासीन होने की स्थिति बनती नहीं दीखती। तमिलनाडु में भाजपा की पूरी कोशिश है कि सिने स्टार रजनीकान्त को साथ लेकर अपनी स्थिति मज़बूत बनाये और घोर अवसरवादी छोटे-छोटे द्रविड़ दलों में से कुछ को साथ लेकर सत्ता तक पहुँच जाये।
2017 में उत्तर प्रदेश, पंजाब और हिमाचल प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं। भाजपा के लिए उ.प्र. सबसे महत्वाकांक्षी लक्ष्य है और 2017 तक सपा सरकार की अलोकप्रियता में सम्भावित बढ़ोत्तरी और बसपा के दलित-ब्राह्मण वोट बैंक में दरार के बावजूद वह अपनी सफलता को लेकर आश्वस्त नहीं है क्योंकि उस समय तक मोदी के आर्थिक फ़ैसलों के नतीजे रंग दिखा चुके रहेंगे और मोदी लहर निश्चय ही उतार पर होगी। इसलिए भाजपा जानती है कि उ.प्र. में तो हिन्दुत्व कार्ड ही काम आयेगा। इसी काम के लिए पूर्वांचल में योगी आदित्यनाथ को अभी से लगा दिया गया है और पश्चिमी उ.प्र. में मुज़फ्फ़रनगर-मुरादाबाद की आँच को लगातार ज़िन्दा रखने की कोशिशें जारी हैं। भाजपा के लिए एक सुकून की बात यह है कि चरणसिंह की विरासत पारम्परिक किसान राजनीति के विघटन के बाद, अपनी वर्ग प्रकृति से निरंकुश ग़ैर-जनवादी प्रकृति वाले पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कुलकों-फ़ार्मरों का बड़ा हिस्सा हिन्दुत्ववादी फासीवाद का समर्थन-आधार बनता जा रहा है। पंजाब में भाजपा अपने पुराने सहयोगी अकाली दल को किनारे लगाकर अकेले सत्ता में आने का मंसूबा बाँधे हुए है। इसके लिए आर.एस.एस. ने हिन्दू आबादी में अपनी सक्रियता बहुत अधिक बढ़ा दी है। तमाम डेरों के धर्मगुरुओं की मदद से भाजपा ग़ैर-जाट सिख आबादी को साथ लेने की फ़िराक में है और दलित सिखों के बीच बहुत पहले से स्थापित कांग्रेस के आधार को खिसकाने के लिए जुगत भिड़ा रही है। हिमाचल प्रदेश में वीरभद्र सिंह की कांग्रेसी सरकार की अभी से बढ़ती अलोकप्रियता को देखते हुए भाजपा आश्वस्त है कि 2017 तक मोदी-ज्वर उतर जाने की स्थिति में भी वह सत्ता पर काबिज़ हो जायेगी।
संक्षेप में भाजपा अगले पाँच वर्षों में, पहले लोकलुभावन नारों-वायदों की लहर के सहारे और फिर हिन्दुत्व और अन्धराष्ट्रवाद के कार्डों के सहारे देश के ज़्यादा से ज़्यादा राज्यों की सत्ता पर काबिज़ होना चाहती है ताकि नवउदारवादी एजेण्डा को अधिक से अधिक प्रभावी ढंग से लागू किया जा सके। इस आर्थिक एजेण्डा के साथ-साथ निरंकुश दमन तथा साम्प्रदायिक विभाजन, मारकाट तथा शिक्षा और संस्कृतिकरण के हिन्दुत्ववादी फ़ासिस्ट एजेण्डा का भी अमल में आना लाजिमी है। इसका मुकाबला बुर्जुआ संसदीय चुनावों की चौहद्दी में सम्भव ही नहीं। मज़दूर वर्ग और व्यापक मेहनतकश जनता तथा मध्यवर्ग के रैडिकल प्रगतिशील हिस्से की जुझारू एकजुटता ही इसका मुकाबला कर सकती है। फासीवाद अपनी हर सूरत में एक धुर प्रतिक्रियावादी सामाजिक आन्दोलन होता है। एक क्रान्तिकारी प्रगतिशील सामाजिक आन्दोलन ही उसका कारगर मुकाबला कर सकता है और अन्ततोगत्वा उसे शिकस्त दे सकता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्बर-दिसम्बर 2014
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