अहमदनगर में दलित परिवार का बर्बर क़त्लेआम और दलित मुक्ति की परियोजना के अहम सवाल
दलित जातियों का एक बेहद छोटा सा हिस्सा जो सामाजिक पदानुक्रम में ऊपर चला गया है, वह आज पूँजीवाद की ही सेवा कर रहा है। यह हिस्सा ग़रीब मेहनतकश दलित आबादी पर होने वाले हर अत्याचार पर सन्दिग्ध चुप्पी साधता रहा है। यह खाता-पीता उच्च-मध्यवर्गीय तबका आज किसी भी रूप में ग़रीब दलित आबादी के साथ नहीं खड़ा है। फ़िलहाल यह तबका बीमा और बँगलों की किश्तें भरने में व्यस्त है। इस व्यस्तता से थोड़ी राहत मिलने पर यह तमाम गोष्ठियों में दलित मुक्ति की गरमा-गरम बातें करते हुए मिल जाता है। हालाँकि कई बार इसे भी अपमानजनक टीका-टिप्पणियों का शिकार होना पड़ता है, लेकिन इसका विरोध प्रतीकात्मक कार्रवाइयों और दिखावटी रस्म-अदायगी तक ही सीमित है। यह पूँजीवाद से मिली समृद्धि की कुछ मलाई चाटकर सन्तोष कर रहा है।