इबोला महामारी: प्राकृतिक? या साम्राज्यवाद-पूँजीवाद की देन

सिमरन

पिछले कुछ महीनों से ‘इबोला’ नाम की एक बीमारी सुर्खियों में छायी हुई है। इस बीमारी को लेकर एक दहशत का माहौल है। पश्चिमी अफ़्रीका में इबोला से प्रभावित मुख्य देशों सिएरा लियॉन, लाइबेरिया और गिनी में ‘सेण्टर फ़ॉर डिज़ीज़ कण्ट्रोल एण्ड प्रिवेंशन’ के आँकड़ों के मुताबिक़ 16 नवम्बर 2014 तक इबोला के 15,113 मामले दर्ज किये जा चुके हैं, जिनमें से 5,406 मरीज़ों की मौत हो चुकी है। इबोला वायरस के बारे में सबसे पहले 1976 में पता चला था। सूडान और ज़ैरे में पहली बार इस वायरस से मनुष्य संक्रमित हुए थे। तब से लेकर अब तक यह महामारी अफ़्रीका के महाद्वीप और विश्व-भर में कम से कम 20 बार फैल चुकी है। इबोला के ताज़ा प्रकोप का पहला मामला इस साल की शुरुआत में मार्च 2014 में गिनी में दर्ज़ किया गया था, जहाँ 86 प्रभावित मरीज़ों में से 24 मार्च तक 59 अपनी जान खो बैठे थे। इसके बाद से आने वाले हर हफ्ते में इबोला पीड़ितों की संख्या बढ़ती चली गयी है। वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजे़शन (डब्ल्यू.एच.ओ.) के मुताबिक़ 21 नवम्बर 2014 तक गिनी, लाइबेरिया, सिएरा लियॉन, माली, नाइजीरिया, स्पेन, सेनेगल और अमरीका में इबोला के 15,351 मामले सामने आये हैं जिनमें से 5,459 मरीज़़ों की मौत हो गयी है। आज इबोला की महामारी को दुनिया की सबसे ख़तरनाक महामारी के रूप में देखा जा रहा है। प्रिण्ट मीडिया से लेकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया तक हर जगह इबोला से लड़ रहे लोगों की मदद करने के लिए गुहार लगायी जा रही है। अमेरिका के प्रेजिडेण्ट बराक ओबामा ने 28 अक्टूबर को व्‍हाइट हाऊस से दिये एक सन्देश में कहा कि जब भी आपदाएँ आती हैं तो अमरीका के लोग मदद करने के लिए आगे आते हैं और वह इस बार भी अफ़्रीका में इस बीमारी से लड़ रहे लोगों की हर सम्भव मदद करेंगे। इस तरह के तमाम बयान देकर घड़ियाली आँसू बहाकर दुनिया के कई देशों पर युद्ध थोपने वाले हत्यारे साम्राज्यवादी भी विश्व पटल पर एक सन्त-सी छवि बनाना चाहते हैं।

ebola-body-bagबहरहाल, इबोला जैसी बीमारी फ़ैलने के पीछे के कारणों की जड़ में जाने की बजाय इसे बस एक प्राकृतिक कहर के रूप में पेश किया जा रहा है। पर क्या इबोला को इतना ख़तरनाक सिर्फ़ उस वायरस ने बनाया है जो इसे इंसानों में फैलाता है या इसके पीछे राजनीतिक-आर्थिक कारण भी हैं? इन कारणों की पड़ताल करने से पहले इबोला के बारे में बात करना बेहद प्रासंगिक है। इबोला एक ज़ूनोटिक बीमारी है यानी एक ऐसी बीमारी जो जानवरों से इंसानों में संक्रमित होती है। इबोला दरअसल उस वायरस के स्ट्रेन का नाम है जो यह बीमारी फैलाता है। इबोला का मुख्य ‘होस्ट’ यानी इस वायरस का मुख्य वाहक ‘फ्रूट बैट्स’ कहलायी जाने वाली चमगादड़ों की एक प्रजाति को माना जाता है। इस बीमारी के संक्रमण होने के दो से तीन दिनों के बाद बुखार, गला ख़राब, मांसपेशियों में जकड़न, सिरदर्द जैसे लक्षण प्रकट होते हैं। इस बीमारी के शुरुआती लक्षण डेंगू और मलेरिया जैसे लगते हैं, मगर समय रहते ठीक जाँच ना होने पर यह बीमारी घातक साबित होती है। धीमे रक्तचाप और तरल पदार्थ की कमी के कारण 6 से 16 दिनों में इलाज न मिल पाने की सूरत में मृत्यु होना लगभग निश्चित है। इबोला इंसानों में या तो चमगादड़ों के मांस को या फिर सुअरों के मांस (जिन्होंने वो फल खाये हों जिन्हें पहले फ्रूट बैट्स ने खाया हो) के सेवन से फ़ैलता है। इबोला से संक्रमित व्यक्ति के शारीरिक द्रव्यों जैसे आँसू, पसीना, थूक, रक्त आदि के सम्पर्क में आने से यह बीमारी दूसरों तक फ़ैल सकती है। इबोला एक ऐसी बीमारी थी जिसे आज से पहले एक स्थानिक बीमारी समझा जाता था यानी ऐसी बीमारी जो केवल एक छोटे स्थानीय इलाक़े तक सीमित रहती है। अफ़्रीका में ‘बुश मीट’ खाया जाता है, जो जंगली जानवरों जैसे चमगादड़ों का मांस होता है। इबोला के इंसानों में संक्रमित होने के मुख्य कारणों में बुश मीट के शिकार के दौरान उन जानवरों के इबोला वायरस-ग्रस्त रक्त के सम्पर्क में आने को माना जाता है। इबोला का वायरस मुख्यतः अफ़्रीका के उष्णकटिबन्धीय जंगलों में रहने वाले चमगादड़ों और गोरिल्ला में पाया जाता है। यही जानवर वायरस के प्राकृतिक वाहक हैं। अफ़्रीका अपने घने उष्णकटिबन्धीय जंगलों के लिए विश्व-भर में प्रसिद्ध है। यहाँ के जंगल विश्व-भर के जंगलों का 17% हिस्सा बनाते हैं। मगर पिछले कुछ दशकों में जंगलों की अन्धाधुँध कटाई के कारण सिर्फ़ इन जंगलों की जैव विविधता को ही नुक़सान नहीं पहुँचा है बल्कि यहाँ रहने वाले जानवरों का मनुष्यों से सम्पर्क बढ़ा है। अपना प्राकृतिक आवास छिन जाने की हालत में ये जानवर इंसानी बस्तियों तक पहुँच जाते हैं जहाँ इनका शिकार किया जाता है और इस तरह ग़ैर-प्राकृतिक सम्पर्क के स्थापित होने से एक ऐसी बीमारी इंसानों को संक्रमित कर देती है जिससे लड़ने के लिए हमारे शरीर में कोई प्रतिरोधक क्षमता (एण्टीबॉडीज़) नहीं है। ‘यूनाइटेड नेशन एनवायरमेण्ट प्रोग्राम’ के सर्वेक्षण के मुताबिक़ अफ़्रीका दुनिया के अन्य महाद्वीपों के मुकाबले दुगुनी गति से अपने जंगल खो रहा है। कुछ अन्य सर्वेक्षणों से यह तथ्य सामने आया है कि पश्चिमी अफ़्रीका अपने 90 प्रतिशत जंगल वनोन्मूलन के कारण खो चुका है। वनोन्मूलन का मुख्य कारण लकड़ी की अवैध तस्करी और खनिजों के लिए खनन है। खनिजों के खनन के लिए खदानों तक पहुँचना ज़रूरी है, जिसके लिए घने जंगलों को काटकर सड़कें बनायी जाती हैं जो बन्द घने जंगलों को इंसानी रिहायश से जोड़ देती हैं। इन सड़कों को ‘ऐक्सेस रोड्स’ कहा जाता है जिनकी वजह से मनुष्यों का जंगलों में हस्तक्षेप बढ़ता है और प्राकृतिक सन्तुलन बिगड़ता है। अक्सर इन सब चीज़़ों का ज़िम्मेदार अफ़्रीका में फ़ैली भयंकर ग़रीबी को बताया जाता है और वनों की कटाई का दोषी वहाँ रहने वाली ग़रीब जनता को ठहराया जाता है जो अपनी गुज़र-बसर के लिए इन जंगलों पर निर्भर है और इस तरह इस समस्या के मूल कारणों को सफ़ेद झूठ की चादर से ढँकने की कोशिश की जाती है। मगर जंगलों की कटाई और उससे जुड़ी बाक़ी समस्याएँ पूँजीपतियों की अधिक से अधिक मुनाफ़ा कमाने की हवस का परिणाम हैं, जो अन्धाधुँध कटाई करवाकर इन जंगलों से मिलने वाली लकड़ी, वनस्पति, जड़ी-बूटियों और खनिजों के व्यापार से अपनी तिजोरियाँ भरना चाहते हैं। ‘वर्ल्डवाइड फ़ण्ड फ़ॉर नेचर (डब्ल्यू.डब्ल्यू.एफ़.)’ द्वारा 2006 में किये गये एक शोध में यह तथ्य सामने आया कि लाइबेरिया में लकड़ी की अवैध तस्करी की दर 80 प्रतिशत है और इस व्यापार से होने वाले राजस्व से सिएरा लियॉन गृहयुद्ध (1992-2002) को चलाने में आर्थिक मदद की जाती रही थी। जिस तरह मनुष्य निर्वात में नहीं जीता, बल्कि एक सामाजिक प्राणी के रूप में रहता है और अपने आस-पास होने वाली घटनाओं से प्रभावित होता है, उसी तरह अफ़्रीका में इबोला फैलना एक प्राकृतिक आपदा नहीं है, यह एक सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक आपदा है। अफ़्रीका के सन्दर्भ में जो कारण विशिष्ट हैं वे उसके इतिहास से जुड़े हैं। अपने इतिहास में अलग-अलग देशों के गुलाम रहे अफ़्रीका का आर्थिक और राजनीतिक सफ़र बेहद मुश्किलों से भरा रहा है। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त तक 1884 में फ़्रांस, ब्रिटेन और जर्मनी ने अफ़्रीका के अलग-अलग हिस्सों को अपने उपनिवेशों में तब्दील कर लिया था। प्रथम विश्वयुद्ध के समाप्त होने के साथ ही जर्मनी का साम्राज्य अफ़्रीका में ख़त्म हो गया। नव-संगठित ‘लीग ऑफ़ नेशंस’ ने फ़्रांस और ब्रिटेन के बीच उपनिवेशों का बँटवारा कर किसी और टकराव की स्थिति को पैदा होने से रोकने की कोशिश की। लम्बे अरसे से गुलामों की तरह रह रही जनता में युद्ध के दौरान हुए अनुभवों से 1930 के आते-आते साम्राज्यवादी ताक़तों के प्रति रोष और विद्रोह की भावना ने एक विकराल रूप लेना शुरू किया। मगर 1939 में इस लहर का वेग दूसरे विश्वयुद्ध के शुरू होने से बाधित हो गया। दूसरे विश्वयुद्ध के ख़त्म होने के बाद अफ़्रीका में मिस्र, लाइबेरिया, इथियोपिया ही तीन स्वतन्त्र देश थे। यूरोप में आज़ादी के लिए लड़कर वापस आये अफ़्रीका के लोग अब अपने लिए भी उसी आज़ादी की माँग कर रहे थे। 1947 में भारत को आज़ादी मिलने के बाद अफ़्रीका के देशों में भी आज़ादी की लड़ाई और तेज़ हो गयी। इसके बाद 1945 से 1989 तक चले शीतयुद्ध ने अफ़्रीका में विकास को अवरुद्ध किया। मगर इस पूरे शीतयुद्ध के दौरान अफ़्रीका में अपनी आज़ादी के लिए लड़ रहे लोगों को उपनिवेशवाद और साम्राज्यवादी ताक़तों के असली मंसूबों से इस कदर वाक़िफ़ करवा दिया कि उसके बाद ब्रिटेन या फ़्रांस के लिए अपने साम्राज्यवादी हस्तक्षेप को उचित ठहराना मुश्किल हो गया और राष्ट्रवादी नेताओं के नेतृत्व में 1957 में सबसे पहले घाना और फिर 1960 तक बाक़ी उपनिवेशों में से ज़्यादातर को भी आज़ादी हासिल हो गयी। सबसे आखि़र में अफ़्रीका की धरती को छोड़ने वाला देश था फ़्रांस, जो लगातार अपने हितों को बचाने के लिए अल्जीरिया और उससे लगे देशों के बीच गृहयुद्ध जैसी स्थिति को बढ़ावा देने में लगा हुआ था। मगर उसकी ये कोशिशें भी 1976 तक नाकाम साबित हुईं और फ़्रांस को भी अपना साम्राज्य त्यागना पड़ा। उपनिवेश होने की वजह से अफ़्रीकी देशों में आर्थिक विकास और सुधार बेहद धीमी गति से हुए और गृहयुद्ध के चलते अप्रत्यक्ष रूप से फ़्रांस और ब्रिटेन के पूँजीपतियों ने अपने हितों को साधने के लिए लगातार प्रयास जारी रखे और अफ़्रीका के प्राकृतिक संसाधनों की लूट ने उसकी अर्थव्यवस्था और राजनीति को बहुत बुरी तरह प्रभावित किया। इसके फलस्वरूप आज दुनिया के 75% ग़रीब देश अफ़्रीका के हैं। यही ग़रीबी की एक और वजह है कि आज इबोला के लिए वैक्सीन बनाने को बड़ी फ़ार्मास्यूटिकल कम्पनियाँ मुनाफ़ा का काम नहीं समझतीं। इबोला जैसी बीमारी जो ख़ासतौर पर अफ़्रीका के ग़रीब देशों में रहने वाले लोगों को प्रभावित करती है। उस बीमारी के लिए शोध और वैक्सीन के उत्पादन में जो पूँजी ख़र्च होगी वो इस दवा की मार्किट के साइज़ के हिसाब से बहुत ज़्यादा है इसलिए 1976 में, जब पहली बार इबोला से मनुष्य संक्रमित हुए थे, तब से लेकर अब तक इबोला के लिए कोई वैक्सीन तैयार नहीं हो पायी है। पूँजीवाद की नवउदारवादी नीति के ज़माने में दवा बनाने वाली कम्पनियाँ भी मुनाफ़ा पीटने के संस्थान हैं, और वे सिर्फ़ उन दवाओं के शोध पर पैसा ख़र्च करना चाहती हैं जिनको ख़रीदने वालों की मार्किट से वह मुनाफ़ा कमा पाये। पूँजीवाद केवल यही नैतिकता जानता है। करीब एक दशक पहले एक कैनेडियन-अमेरिकन वैज्ञानिक ने बन्दरों में इबोला से लड़ने के लिए वैक्सीन तैयार कर ली थी, उस समय इस खोज को ह्यूमन ट्रायल से उत्पादन तक ले जाने के लिए अनुमानित ख़र्च 1.5 बिलियन डॉलर्स था, मगर किसी भी बड़ी फ़ार्मास्यूटिकल कम्पनी को इतना पैसा एक ऐसी बीमारी के इलाज के लिए खपत करने में कोई दिलचस्पी नहीं थी जो एक बहुत ग़रीब देश की जनता तक सीमित था। अफ़्रीका की ग़रीब आबादी को फ़ार्मास्यूटिकल कम्पनियाँ एक भावी बाज़ार के रूप में नहीं देखतीं। यही वजह है कि इतने साल बीत जाने के बाद भी आज इबोला से लड़ने के लिए कोई दवा मौजूद नहीं है जो आसानी से इस बीमारी से लड़ रहे लोगों को मुहैया करवाई जा सके। मगर इस बार जब यह बीमारी अमेरिका तक पहुँच गयी तब फ़ार्मास्यूटिकल कम्पनियों की नींद टूटी, क्योंकि अब यह बीमारी ऐसी आबादी तक पहुँच चुकी है जो इलाज ख़रीदने की क्रय क्षमता रखती है।

बहरहाल, अफ़्रीका में डॉक्टरों, नर्सो और स्वास्थ्य कर्मचारियों की बेहद कमी है। 42 लाख की आबादी वाले लाइबेरिया में केवल 51 डॉक्टर हैं, 60 लाख की आबादी वाले सिएरा लियॉन में केवल 156 डॉक्टर हैं। ऐसे में मरीज़ों की देखभाल करने के लिए भी वहाँ की स्वास्थ्य देखरेख व्यवस्था सक्षम नहीं हैं। और इबोला के फैलने के बाद कई डॉक्टर इस बीमारी के चपेट में आ चुके हैं। इबोला के इलाज के लिए कुछ ख़ास तरह के उपकरणों और सुविधाओं की आवश्यकता होती है। आइसोलेशन वार्ड्स और ख़ास ट्रेनिंग से लैस चिकित्सीय कार्यकर्ताओं की ज़रूरत होती है। इन सभी कारणों ने इस बीमारी को जंगल की आग की तरह फैलाकर भयावह बना दिया है। इबोला से आये दिन हो रही मौतों का ज़िम्मेदार इबोला का वायरस नहीं बल्कि यह पूरी व्यवस्था है जो सिर्फ़ मुनाफ़ा कमाने की अन्धी हवस पर टिकी हुई है। प्राकृतिक आपदाएँ और महामारियाँ केवल उन ख़तरे की घण्टियों के समान होती हैं जो हमेशा यह चेताती रहती हैं कि प्रकृति के संसाधनों की अन्धी लूट पृथ्वी पर जीवन के लिए ख़तरनाक साबित होगी। मगर पूँजीवादी व्यवस्था में केवल चन्द लोगों के हाथों में सारे फ़ैसले लेने की ताक़त होती है। वहाँ पूँजीपति ऐसी बीमारियों को भी मुनाफ़े की वस्तु ही समझते हैं। इबोला के कारण आकस्मिक नहीं हैं बल्कि अफ़्रीका के सामाजिक-आर्थिक इतिहास में उसके कारण निहित हैं। उपनिवेशवाद द्वारा ढाँचागत तौर पर अफ़्रीका को पिछड़ा बनाया जाना और उसके बाद भी साम्राज्यवादी-पूँजीवादी लूट और प्रकृति के दोहन ने ही वे स्थितियाँ पैदा की हैं, जिनका प्रकोप अफ़्रीका को आये दिन नयी-नयी महामारियों के रूप में झेलना पड़ता है। इबोला इन महामारियों की श्रृंखला में सबसे भयंकर साबित हो रही है। लेकिन निश्चित तौर पर, साम्राज्यवादी-पूँजीवादी व्यवस्था के रहते यह आख़िरी महामारी नहीं साबित होगी। अफ़्रीका की जनता को समय रहते इस आदमखोर व्यवस्था की असलियत को समझना होगा और उसे उखाड़ फेंकना होगा।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, सितम्‍बर-दिसम्‍बर 2014

 

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