Category Archives: इतिहास

फ़ासीवाद, जर्मन सिनेमा और असल ज़िन्दगी के बारे में जर्मनी के प्रचार मंत्री, डॉक्टर गोएबल्स को खुला पत्र

आपकी हिम्मत कैसे हुई अपने सिनेमा से जीवन के यथार्थ का सच्चा चित्रण करने का आह्वान करने की जबकि उसका पहला कर्तव्य होना चाहिए चीख-चीख कर पूरी दुनिया को उन हज़ारों-लाखों लोगों के बारे में बताना जो आपकी जेलों की काल-कोठरियों में सड़ रहे हैं जिनका उत्पीड़न कर आपके यातना शिविरों में मौत के घाट उतरा जा रहा है?

विज्ञान के विकास का विज्ञान

औज़ार का इस्तेमाल, ख़तरे को भाँपना, कन्द-मूल की पहचान, शिकार की पद्धति से लेकर जादुई परिकल्पना को भी आने वाली पीढ़ी को सिखाया जाता है। इंसान ने औज़ारों और अपने उन्नत दिमाग से ज़िन्दा रहने की बेहतर पद्धति का ईजाद की। इसकी निरन्तरता मनुष्य संस्कृति के ज़रिए बरकरार रखता है। यह इतिहास मानव की संस्कृति का इतिहास है न कि उसके शरीर का! विज्ञान औज़ारों और जादुई परिकल्पना और संस्कृति में गुँथी इंसान की अनन्त कहानी में प्रकृति के नियमों का ज्ञान है। कला, संगीत और भाषा भी निश्चित ही यही रास्ता तय करते हैं। विज्ञान और कला व संगीत सामाजिकता का उत्पाद होते हुए भी अलग होते हैं। लेकिन हर दौर के कला व संगीत पर विज्ञान की छाप होती है। बुनियादी तौर पर देखा जाए तो ये इतिहास की ही छाप होती है।

गाँधी: एक पुनर्मूल्‍यांकन

गाँधी एक विचारक के रूप में पंगु ”भारतीय” बुर्जुआ मानवतावाद के मूर्त रूप थे। वे बुर्जुआ वर्ग के सिद्धान्‍तकार और नीति-निर्माता थे। और इससे भी आगे, बुर्जुआ वर्ग के ‘मास्‍टर स्‍ट्रैटेजिस्‍ट’ और ‘मास्‍टर टैक्टीशियन’ के रूप में वे एक निहायत बेरहम व्‍यावहारवादी (प्रैग्‍मेटिस्‍ट) व्‍यक्ति थे, जो समय-समय पर अपनी उद्देश्‍य-पूर्ति के लिए अपनी सैद्धान्तिक निष्‍ठाओं-प्रतिबद्धताओं के विपरीत भी जा खड़े होता था।

इटली में फ़ासीवाद के उदय से हमारे लिए अहम सबक

इटली में फ़ासीवाद के उभार का एक बहुत बड़ा कारण मज़दूर वर्ग के गद्दार सामाजिक जनवादियों की हरकतें रहीं। जबकि इस देश में क्रान्तिकारी सम्भावना ज़बर्दस्त रूप से मौजूद थी। लेकिन सामाजिक जनवादियों ने मज़दूर आन्दोलन को अर्थवाद, सुधारवाद, संसदवाद और ट्रेड यूनियनवाद की चौहद्दी में ही कैद रखा। और तब ऐसा समय था जब मेहनतकश अवाम पूँजीवाद के संकट के एक व्यवस्थागत विकल्प की तलाश कर रहा था। कोई ठोस विकल्प मौजूद नहीं होने कि वजह से क्रान्तिकारी सम्भावना ने अपना रुख प्रतिक्रियावाद की तरफ कर लिया जिसका भरपूर इस्तेमाल करने के लिए यहाँ कि फ़ासीवादी पार्टी तैयार खड़ी थी। इसलिए कहा जा सकता है कि फ़ासीवादी उभार की सम्भावना विशेष रूप से उन पूँजीवादी देशों में हमेशा पैदा होगी जहाँ पूँजीवाद बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के जरिये नहीं आया बल्कि किसी प्रकार की क्रमिक प्रक्रिया से आया, जहाँ क्रान्तिकारी भूमि सुधार लागू नहीं हुए, जहाँ पूँजीवाद का विकास किसी लम्बी, सुव्यवस्थित, गहरी पैठी प्रक्रिया के ज़रिये नहीं बल्कि असामान्य रूप से अव्यवस्थित, अराजक और द्रुत प्रक्रिया से हुआ, जहाँ ग्रामीण क्षेत्रों में पूँजीवाद इस तरह विकसित हुआ कि सामन्ती अवशेष किसी न किसी मात्रा में बचे रह गए।

एरिक हॉब्सबॉमः एक हिस्टोरियोग्राफिकल श्रद्धांजलि

हॉब्सबॉम एक जटिल व्यक्तित्व थे। बौद्धिक ईमानदारी और विपर्यय के दौर में जीने के चलते पैदा होने वाले निराशावाद के द्वन्द्व के कारण यह जटिलता और भी बढ़ जाती है। लेकिन निश्चित तौर पर वह उन भूतपूर्व मार्क्सवादियों से लाख गुना बेहतर बुद्धिजीवी और इंसान थे, जो पूरी तरह से पूँजीवाद और साम्राज्यवाद की गोद में बैठ गये थे और द्वन्द्वमुक्त हो गये थे; न ही हॉब्सबॉम ने कभी मार्क्सवाद में सोचे-समझे तौर पर कोई विकृति पैदा करने की कोशिश की, हालाँकि उनकी समझ पर बहस हो सकती है; हॉब्सबॉम ने कभी मार्क्स, एंगेल्स, लेनिन, स्तालिन और माओ के प्रति कभी कोई असम्मान या गाली-गलौच जैसी निकृष्ट हरकत नहीं की, जैसा कि आजकल के कई राजनीतिक नौदौलतिये कर रहे हैं, जो कि अपने आपको मार्क्सवादी भी कहते हैं; हॉब्सबॉम जीवनपर्यन्त बोल्शेविक क्रान्ति के एजेण्डे से आत्मिक तौर पर जुड़े रहे और लगातार आशाओं के उद्गमों की तलाश करते रहे। लेकिन अनिरन्तर और असंगतिपूर्ण मार्क्सवादी अप्रोच और पद्धति के कारण वह अक्सर अपनी इस तलाश में नाकाम रहे।

‘भारत छोड़ो आन्दोलन’: भारतीय जनता की क्रान्तिकारी विरासत का अभिन्न अंग

औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति के संघर्ष में भारत छोड़ो आन्दोलन का निर्णायक महत्व था। यह आन्दोलन एक ऐतिहासिक जनान्दोलन था। लेकिन साथ ही इस आन्दोलन ने राष्ट्रीय बुर्जुआ नेतृत्व की पक्षधरता, क्रान्तिकारी वाम शक्तियों की निर्बलता तथा जनता की मुक्ति महत्वाकांक्षा को गहराई से रेखांकित किया था। 9 अगस्त 1942 के आन्दोलन में औपनिवेशिक गुलामी से मुक्ति हेतु छटपटाती भारतीय जनता (विशेषकर नवयुवकों) ने अपने साहस व बलिदान की एक मिसाल कायम की जिसने ब्रिटिश साम्राज्य का अन्त सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालाँकि इस क्रान्तिकारी संघर्ष की निरन्तरता कायम न रह सकी तथा अन्ततोगवा नेतृत्व जनता के हाथों से निकलकर समझौतापरस्त कांग्रेस के हाथों में आ गया जिसकी परिणति 15 अगस्त 1947 की खण्डित-विकलांग आजादी थी।

तारीख़ सभी साम्राज्यवादियों की मुश्तरक़ा दुश्मन है…. और तारीख़ जनता बनाती है!

यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि साम्राज्यवाद ने एशिया और अफ्रीका के प्राकृतिक और मानव संसाधनों की जो लूट मचाई वह इतिहास में अद्वितीय है। पश्चिम ने हमें सिविलाइज नहीं किया है। बल्कि यह कहना चाहिए कि पश्चिम में सभ्यता, जनवाद, आजादी, समानता, भ्रातृत्व आदि के सिद्धान्त पैदा करने का अतिरिक्त समय वहाँ के लोगों को पूरब से लूटी गई भौतिक सम्पदा के कारण मिल पाया। ब्रिटेन का औद्योगीकरण भारत से होने वाली लूट के कारण हो पाया। यही बात फ्रांस, स्पेन, पुर्तगाल और उनके उपनिवेशों के बारे में भी कही जा सकती है। यह सच है कि पश्चिम में प्रबोधन और नवजागरण के कारण तमाम मुक्तिदायी विचारों ने जन्म लिया। लेकिन ऐसा इसलिए नहीं हुआ कि हम नस्ली तौर पर कमजोर हैं और वे नस्ली तौर पर श्रेष्ठ। नस्ली श्रेष्ठता और हीनता के तमाम सिद्धान्त विज्ञान ने गलत साबित कर दिये हैं। आज पश्चिम का जो शानदार विकास हुआ है उसके पीछे बहुत बड़ा कारण एशिया और अफ्रीका की साम्राज्यवादी लूट है।