Category Archives: राष्‍ट्रीय/अर्न्‍तराष्‍ट्रीय मुद्दे

दुनिया में एक अरब लोग भुखमरी के शिकार!

क्या यह चौंका देने वाला आँकड़ा नहीं है कि दुनिया भर में भुखमरी के शिकार लोगों की संख्या 96.3 करोड़, या कहें कि लगभग 1 अरब है। यह संख्या पूरी विश्व की आबादी का 14 प्रतिशत है। यह सिर्फ़ आँकड़े नहीं हैं; हर गिनती के पीछे एक हाड़-मांस का इंसान खड़ा है जो इंसान होते हुए भी इंसानियत की ज़िन्दगी नहीं जी रहा है। खून-पसीना बहाकर भी, हडि्डयों को गलाकर भी उसे और उसके बच्चों को दो जून की रोटी तक नहीं नसीब होती। मिलती है तो भुखमरी और मौत।

गुण्डे चढ़ गये हाथी पर–मूँग दल रहे छाती पर!

आम घरों से आने वाले दलित नौजवानों को यह समझ लेना चाहिए कि बसपा और मायावती की माया बस एक धोखे की टट्टी है। यह भी उतनी ही वफ़ादारी से प्रदेश के दबंग शासक वर्गों, गुण्डों और ठेकेदारों की सेवा करती है। इस बात को आम जनता अब धीरे-धीरे समझने भी लगी है। मनोज गुप्ता की हत्या के बाद जिस कदर जनता प्रदेश में और ख़ास तौर पर औरैया में सड़कों पर उतरी उसे देखकर साफ़ अन्दाज़ा लगाया जा सकता था कि यह सिर्फ़ एक इंजीनियर की आपराधिक हत्या के जवाब में पैदा हुआ गुस्सा नहीं था। यह पूरी शासन–व्यवस्था और बसपा सरकार की नंगी गुण्डई, भ्रष्टाचार और तानाशाही के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरने वाले लोग थे जो मौजूदा व्यवस्था से तंग आ चुके हैं और किसी परिवर्तन की बेचैनी से तलाश कर रहे हैं।

मज़दूरों के बच्चों को लीलती पूँजीवादी व्यवस्था

मुनाफ़े की हवस में पगलाया यह समाज इंसानी ख़ून का प्यासा है! औरतों और बच्चों के सस्ते श्रम को निचोड़ने से भी उसे जब सन्तोष नहीं होता तो वह उन्हें बेचने, उनके शरीर को नोचने-खसोटने और उनके अंगों को निकालकर, उनका ख़ून निकालकर बेच देने की हद तक गिर जाता है। निठारी एक चेतावनी थी-पूरी इन्सानियत के लिए– इसने फ़िर से हमें चेताया था कि इन्सानियत को बचाना है तो पूँजीवाद का नाश करना ही होगा! बच्चों की गुमशुदगी की लगातार बढ़ती घटनाएँ एक बार फ़िर याद दिला रही हैं कि ग़रीबों और मेहनतकशों के ज़िन्दा रहने की शर्त है समाज के इस ढाँचे की तबाही!

संसद के गलियारे में भगतसिंह की प्रतिमा

पहला सवाल यही बनता है कि इन्हें भगतसिंह की मूर्ति लगाने की ख्याल आज के दौर में ही क्यों आया । इसके पीछे निश्चित तौर पर देश में भगतसिंह के विचारों की बढ़ती प्रासंगिकता है । उनके विचारों की ग्रहणशीलता बढ़ी है । जिस समझौतापरस्त तत्कालीन नेतृत्व से आगाह करते हुए भगतसिंह ने कहा था कि अगर आज़ादी इनके माध्यम से आयेगी तो निश्चित तौर पर मुटठीभर अमीरजादों की आज़ादी होगी । विगत साठ साल के सफरनामे ने यही साबित किया है । व्यापक जनता के सामने तथाकथित आज़ादी का मुलम्मा उतर चुका है । ऐसे में जब तमाम तरीकों से भगतसिंह के विचार आम जन में पैठ बनाने लगे हैं तब शासक वर्ग की मजबूरी बनती दिख रही है कि अब वे सीधे–सीधे भगतसिंह को नकार नहीं सकते हैं । अगर ये सच्चे मन से भगतसिंह को स्वीकार कर रहे होते तो आज़ादी के बाद गांधी, नेहरू की संकलित रचनाओं के बरक्स उनके विचारों को दबाने का प्रयास नहीं करते । उनके लेखों, दस्तावेजों केा जन–जन तक पहुँचाने का काम सरकारी महकमे ने नहीं किया बल्कि भगतसिंह की सोच को मानने वाले क्रान्तिकारी संगठनों ने किया है ।

बाढ़ : मानव–जनित आपदा नहीं, व्यवस्था–जनित आपदा

1954 में गठित गंगा आयोग की ऐसी कई बहुउद्देशीय योजनाओं की सिफ़ारिश की थी जिससे कोसी के नकारात्मक पहलुओं को सकारात्मक कारकों में बदला जा सकता था । ऐसी ही एक योजना थी ‘जलकुण्डी योजना’ जिसके तहत नेपाल में बांध बना कर इस नदी के द्वारा लाए जा रहे सिल्ट (गाद) को वहीं रोक दिया जाना था और इस बांधों पर विद्युत परियोजनाएं लगाने की योजना थी । इसका लाभ दोनों ही देश, नेपाल और भारत उठाते । लेकिन इन योजनाओं को कभी अमल में नहीं लाया गाया । तब इस योजना की लागत 33 करोड़ थी और आज यह इसकी लागत 150 करोड़ से है तब भी बाढ़ नियंत्रण पर पानी की तरह बहाए जाने वाले करोड़ों रुपयों से कम है । कुछ पर्यावरणविद नदियों पर बनाए जा रहे बांधों के विरोधी हैं, तकनोलॉजी को अभिशाप मानते हैं और ‘बैक टू नेचर’ का नारा देते हैं । लेकिन तकनोलॉजी अपने आप में अभिशाप नहीं होती । यह इसपर निर्भर करता है कि इसका इस्तेमाल किस लिये किया जा रहा है । एक मुनाफ़ा–केन्द्रित व्यवस्था में बड़े बांध अभिशाप हो सकते हैं । लेकिन एक मानव–केन्द्रित व्यवस्था में यह वरदान भी साबित हो सकते हैं ।

पूंजीवादी दार्शनिक की चिन्ता, मैनेजिंग कमेटी को सलाह

जब श्री सेन यह कह रहे थे कि एक प्रजातांत्रिक सरकार को जनता के लिए नीति एवं न्याय की रक्षा करनी चाहिये तो वह लुटेरों को परोक्षत: सब कुछ खुल्लम–खुल्ला न करने की बजाये मुखौटे के भीतर रहकर करने की बात कह रहे थे । क्योंकि शासन के जिस चरित्र और व्यवहार की कलई देश की हर मेहनतकश जनता के सामने खुल चुकी है, जिसमें कैंसर लग चुका है उसी व्यवस्था में पैबन्द लगाकर न्याय की बात करने का और क्या अर्थ हो सकता है जब श्री सेन बाल कुपोषण, प्राथमिक शिक्षा की कमी, चिकित्सा का अभाव एवं गरीबी को दूर करने के लिए सामाजिक न्याय की बात कर रहे थे तो क्या वे भूल गये थे कि इस सबके पीछे आम मेहनतकशों का शोषण एवं वही पूँजीवादी व्यवस्था है जिससे वह सामाजिक न्याय की गुहार लगा रहे हैं । अपने भाषण को समेटते हुए श्री अमर्त्य सेन यह कह रहे थे कि कानून बनाने वाले लोग अर्थात नेता और मंत्री को अधिक स्पष्ट रूप से जागरूक होना चाहिये तो वस्तुत: वे पूँजीवाद के ऊपर आने वाले ख़तरे से आगाह कर रहे थे जो मुखौटा–विहीन शोषण से पैदा हो रहा है । क्योंकि अगर सेन में थोड़ी भी दृष्टि होती तो वे देख सकते कि जिनसे वह समानता की स्थापना, गरीबी कुपोषण एवं अशिक्षा को मिटाने के लिए कानून बनाने एवं अमल में लाने के लिए सामाजिक न्याय की बात कर रहे हैं उस अन्याय के ज़िम्मेदार वही लोग हैं वरन इसके पैदा होने के स्रोत वे ही हैं । ऐसी समस्याओं के हल की विश्वदृष्टि जिस वर्गीय पक्षधरता एवं धरातल की मांग करती है वह श्री सेन के पास नहीं है ।

तीन पदक और सवा अरब जनसंख्या

ये सारी सच्चाई हर खेल–प्रेमी युवा और शिक्षित वर्ग का व्यक्ति जानता है । लेकिन एक सच्चाई और है जो इस दुर्दशा का मुख्य कारण है । उसकी कभी चर्चा नहीं होती और उसे हमेशा छिपाया जाता है । भारत दुनिया के निर्धनतम देशों में से एक है । अगर आज बहुत छोटे देश भी पदक तालिका में भारत से ऊपर हैं तो इसका कारण है कि भारत के मुकाबले वहाँ का जीवन स्तर ऊँचा है जबकि इस देश में लगभग 84 करोड़ आबादी 20 रुपये दैनिक आय पर गुज़ारा करती है । शिक्षा, चिकित्सा जैसी बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं हो पातीं, खेल में रुचि लेना तो दूर की बात है । और अगर इसके बावजूद भी कोई प्रतिभावान नौजवान खेल में रूचि लेता है तो उसे पर्याप्त अवसर और सुविधाएँ ही नहीं मिलते ।

एक घर हो सपनों का…

पूँजीवादी व्यवस्था में ऐसी सामाजिक समस्या बनी ही रहती है क्योंकि जिसमें मेहनतकश जनसाधारण कि विशाल संख्या सिर्फ अपने श्रम के बल पर अपना और अपने परिवार का गुजारा करती है । और बेरेाजगार मजदूरों की एक बहुत बड़ी संख्या फैक्ट्री–कारखानों के बाहर रिजर्व सेना के रूप में खड़ी रहती है । और साथ ही गाँवों और पिछड़े क्षेत्रों से बहुत बड़ी आबादी रोजी–रोटी के लिए औद्योगिक शहरों में आती रहती है इनकी पहली जरूरत सिर्फ दो समय का भोजन का जुगाड़ करना ही होता है, बुनियादी नागरिक अधिकार तो दूर की बात है ऐसे में शहरों, महानगरों के पास मजदूर बस्ती बसती जाती है एक तरफ गगनचुम्बी इमारतें, 15–20 कमरों वाली कोठियाँ होती हैं और दूसरी तरफ रहने को छत भी नहीं होती । इसलिए इस व्यवस्था में ये असमानता और ये समस्याएँ बनी ही रहेंगी ।

बाढ़: प्राकृतिक या पूँजीवादी?

आज अगर बाढ़ को रोकने के लिए सिल्ट को हटाने से लेकर, नदियों को आपस में जोड़ने और वृक्षारोपण के काम को पूरी योजनाबद्धता के साथ किया जाए तो करोड़ों हाथों को रोज़गार मिल पाएगा। यही नहीं नदियों के तल में जो सिल्ट जमा होती है वह काफ़ी उपजाऊ होती है, जिससे ऊँचे-ऊँचे प्लेटफ़ार्म बनाए जा सकते हैं जिस पर टाउनशिप और गाँव बसाए जा सकते है। लेकिन इस व्यवस्था में किसी भी आवश्यक काम में पूँजीपति या सरकार निवेश करने को तैयार नहीं होती। लाखों लोगों को बिलखने और बरबाद होने के लिए छोड़ दिया जाता है ताकि इस बरबादी से भी मुनाफ़ा कमाने का कोई भी मौका पूँजीपति या नेता न गँवाए। इसलिए बाढ़ कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है बल्कि इसी मानवद्रोही व्यवस्था द्वारा निर्मित एक आपदा है और तब तक इससे निजात नहीं मिल सकता है जब तक कि यह व्यवस्था बनी रहेगी।

एक युवा राजनीतिक कार्यकर्ता के आपात चिकित्सा कोष के लिए अपील

तरुणाई के दिनों से ही सामाजिक बदलाव के लक्ष्य के लिए अपना जीवन समर्पित करने वाले इस नौजवान की प्राणरक्षा के लिए जारी अपील पर देशभर से तत्काल बड़ी संख्या में लोगों ने प्रतिसाद दिया और उन सबसे मिले सहयोग की बदौलत ही योगेश का अब तक का इलाज जारी है। हम उन सबके आभारी हैं। इसने हमारे इस विश्वास को मज़बूत बनाया है कि सामाजिक कार्यकर्ताओं के जीवन को मूल्यवान समझने वाले और गहन मानवीय सरोकार वाले लोगों की समाज में कमी नहीं है। छात्र-युवा कार्यकर्ताओं की टोलियाँ पारी बाँधकर दिन-रात अस्पताल में योगेश की देखभाल में जुटी रही हैं।