Category Archives: राष्‍ट्रीय/अर्न्‍तराष्‍ट्रीय मुद्दे

देश में स्त्रियों की स्थिति और स्त्री मुक्ति का प्रश्न

इसी व्यवस्था के भीतर रह कर स्त्री मुक्ति की बात करना बेमानी है। जब तक वर्ग विभाजित समाज और व्यवस्था कायम रहेगी तब तक स्त्री-पुरुष का विभेद भी नहीं मिट सकता। स्त्री और पुरुष के विभेद का आधार भी श्रम विभाजन था और वर्ग विभाजन का आधार भी श्रम विभाजन था। जब तक यह असमान श्रम विभाजन ख़त्म नहीं होता तब तक स्त्री-पुरुष असमानता भी ख़त्म नहीं हो सकती। स्त्री मुक्ति का प्रोजेक्ट मेहनतकशों की मुक्ति के प्रोजेक्ट के एक अंग के तौर पर ही किसी मुकाम पर पहुँच सकता है। मेहनतकशों का भी आधा हिस्सा स्त्रियों का है। यही वे स्त्रियाँ हैं जो स्त्री मुक्ति की लड़ाई को लड़ेंगी और नेतृत्व देंगी, न कि उच्चमध्यवर्गीय घरों की खाई–मुटाई–अघाई स्त्रियाँ जो अपने सोने के पिंजड़े में सुखी हैं।

बॉब वूल्मर की मौत, क्रिकेट, अपराध, राष्ट्रवाद और पूँजीवाद

मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था में हर क्षेत्र में, चाहे वह नौकरशाही हो, उद्योग जगत हो, पुलिस हो, या न्याय-व्यवस्था, भ्रष्टाचार का बोलबाला होता है। चूँकि पूँजीवादी समाज में हर काम किसी न किसी निजी फ़ायदे के लिए किया जाता है इसलिए भ्रष्टाचार की ज़मीन उपजाऊ बनी रहती है। खेल भी इससे अछूते नहीं रहते। जब से खेल में पूँजी का प्रवेश हुआ है तब से इसका भ्रष्टीकरण और अपराधीकरण जारी है।

शिक्षा व्यवस्था की बलि चढ़ा एक और मासूम

बेहद कम उम्र से ही परीक्षा में अच्छे नम्बर लाने की एक उन्मादी होड़ बच्चों के अन्दर उनके माँ–बाप, शिक्षकों और पूरे समाज के माहौल से पैदा कर दी जाती है। दूसरी–तीसरी कक्षा से ही बच्चे ट्यूशन सेण्टरों का चक्कर काटते नजर आते हैं। इस होड़ में कुछ की नैया तो पार लग जाती है, लेकिन एक भारी आबादी “नाकाबिल” करार दी जाती है। जो पीछे रह जाते हैं उनकी बड़ी आबादी कुण्ठा का शिकार होना शुरू हो जाती है। इनमें से कुछ ऐसे होते हैं जो अवसादग्रस्त होकर आत्महत्या करने जैसा कदम उठा लेते हैं। आख़िर इन मासूम बच्चों की इस स्थिति का जिम्मेदार कौन है ? यह सोचने की बात है। स्कूल में दाखिले के पहले दिन से ही उनके नन्हें कन्धों पर सपनों, आशाओं और आकांक्षाओं का बोझ लाद दिया जाता है। उनके दिमाग में यह बात बैठा दी जाती है कि अगर अव्वल न आए तो कितनी बेइज़्जती होगी, तो पढ़ना बेकार है, बल्कि जीना ही बेकार है। नतीजा यह होता है कि अच्छे नम्बर न ला पाने की सूरत में वे कुण्ठा व अवसाद का शिकार हो जाते हैं और कुछ आत्महत्या तक कर लेते हैं।

पूँजीपतियों को ज़मीन का बेशकीमती तोहफ़ा

विशेष आर्थिक क्षेत्र मजदूरों के लिए गुलामी करने जैसे होंगे। यहाँ कोई श्रम कानून लागू नहीं होंगे, न्यूनतम मजदूरी का कोई नियम लागू नहीं होगा, मजदूरों को शांतिपूर्ण ढंग से इकट्ठा होने, यूनियन बनाने का बुनियादी अधिकार भी नहीं होगा। इन क्षेत्रों के उद्योगों पर उस क्षेत्र के लोगों को रोजगार देने की भी कोई बाध्यता नहीं होगी। वे भूजल का दोहन करेंगे और आस–पास के अन्य प्राकृतिक संसाधनों का भी शोषण करेंगे। पर्यावरण और मनुष्य दोनों के लिए ही विशेष आर्थिक क्षेत्र बेहद ख़तरनाक होंगे। वे वास्तव में दरिद्रता के महासागर में ऐश्वर्य के टापू के समान होंगे।

ख़र्चीला और परजीवी होता “जनतंत्र”, लुटती और बरबाद होती जनता

सरकारी आँकड़ों के मुताबिक आज से 50 साल पहले 5 व्यक्तियों का परिवार एक साल में जितना अनाज खाता था, आज उससे 200 किलो कम खाता है। भोजन में विटामिन और प्रोटीन जैसे जरूरी पोषक तत्वों की लगातार कमी होती गई है। आम आदमी के लिए प्रोटीन के मुख्य स्रोत दालों की कीमत में पिछले एक साल के अन्दर 110 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। हरी सब्जियाँ, दालें और दूध तो गरीब आदमी में भोजन से नदारद ही हो चुके हैं। इसी का नतीजा है कि कुपोषण के कारण कम वजन वाले बच्चों की सबसे बड़ी संख्या भारत में है। बेतहाशा बढ़ती महँगाई ने आम मेहनतक़श लोगों को जीवन की बुनियादी जरूरतों में कटौती करने के लिए विवश कर दिया है।

कर्ज में डूबे पिता कर रहे हैं आत्महत्याएँ

लक्ष्मीचंद की आत्महत्या तो बस हो रही तमाम आत्महत्याओं या कहें ‘हत्याओं’ में एक ख़बर है। अगर कोई राजनीतिक समझ या दिशा नहीं होती है तो आदमी अपने आप को बेबस और लाचार समझता है। वह अपनी दुर्दशा की वजह नहीं समझ पाता। यह नहीं समझ पाता कि आखिर इन तमाम आत्महत्याओं, बेरोज़गारी, अशिक्षा, भुखमरी, वेश्यावृत्ति का जिम्मेदार कौन है ? कौन है जो कुछ लोगों के लिए तो धरती पर स्वर्ग बना रहा है और एक बड़ी आबादी को नारकीय जीवन जीने को मजबूर कर रहा है ?

शासन–प्रशासन तंत्र की आपराधिक संवेदनहीनता ने छीन ली हज़ारों बच्चों की ज़िन्दगी

इंसफ़ेलाइटिस से पीड़ित होने वाले अधिकांश बच्चे गरीबों के ही हैं। इसका कारण भी बहुत साफ़ है। यह बीमारी मच्छरों के काटने से फ़ैलती है जो ठहरे हुए पानी में और गन्दे स्थानों पर पलते हैं। समझा जा सकता है कि गाँवों और शहरों की गन्दी बस्तियों में रहने वाली आबादी जापानी इंसफ़ेलाइटिस के विषाणुओं के वाहक मच्छरों के लिए आसान शिकार हैं। यही असल कारण भी है कि क्यों शासन–प्रशासन तंत्र पिछले 27 सालों से इसके रोकथाम के कारगर उपाय नहीं कर रहा है। पूँजीपतियों और अमीरों की सेवा में दिन-रात जुटी रहने वाली शासन–प्रशासन की मशीनरी के लिए गरीबों की जान की कोई कीमत ही नहीं है।

अमेरिकी फाउण्डेशन:मुखौटों के पीछे का सच

सत्ता वर्ग मात्र बन्दूक और कानून द्वारा ही शासन नहीं करता। उल्टे उन्हें तो इस बात की आवश्यकता होती है कि शासन करने के लिए उन्हें निरंतर बलप्रयोग की शरण न लेनी पड़े। इसलिए वह दलील देती हैं कि, वे कई किस्म के संस्थाओं, गतिविधियों और व्यक्तियों (जो अक्सर स्वयं शासक वर्ग के सदस्य नहीं होते) के जरिए शासित जनता की सहमति का निर्माण करते हैं, वे शासक वर्ग की विचारधारा का प्रसार इस तरह करते हैं जैसे कि यह एक सामान्य बोध की बात हो। एक ओर सत्ता वर्ग के विचारों से असंतोष को ‘‘अतिवाद’’ करार दिया जाता है और उसकी उपेक्षा की जाती है, वहीं दूसरी ओर व्यक्ति के असंतोष का स्वागत किया जाता है और उसे रूपान्तरित कर दिया जाता है। वास्तव में, अगर सत्ता वर्ग का प्रभुत्व रूढ़ और संकीर्ण न हो तो वह ज्यादा टिकाऊ होता है, बल्कि वह उभरते रुझानों को जल्द से जल्द अपने में समाहित कर लेने में सक्षम होता है।

प्रधानमंत्री महोदय की अमेरिका-यात्रा

भारत का पूँजीपति वर्ग कोई कठपुतली दलाल या घुटनाटेकू पूँजीपति वर्ग नहीं है। वह सभी से सम्बन्ध रखकर अपना हित साधाने में माहिर है। इस बात से कोई इंकार नहीं है कि साम्राज्यवाद पर उसकी आर्थिक निर्भरता है, लेकिन यह निर्भरता किसी एक साम्राज्यवादी देश पर नहीं है बल्कि पूरे विश्व साम्राज्यवाद पर है। वह किसी एक पर निर्भर होकर अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता पर ख़तरा मोल नहीं लेना चाहता और इसलिए वह विश्व पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के अलग-अलग धड़ों पर अपनी आर्थिक निर्भरता के बीच इतनी कुशलता से तालमेल करता रहा है कि उसकी निर्णय लेने की क्षमता बरकरार रहे।

कन्या धन योजना की असलियत

प्रदेश सरकार क्या वास्तव में गरीब बच्चों को उच्च शिक्षा दिलाना चाहती है? यदि वह उच्च शिक्षा दिलाना चाहती है तो उसे सबसे पहले शिक्षा को प्राइमरी से ले कर विश्वविद्यालय तक मुफ्त करना चाहिए और विश्वविद्यालयों का निजीकरण बन्द करना चाहिए। एक तरफ़ सीटों में कटौती और फ़ीसों में वृद्धि की जा रही है और दूसरी तरफ़ ग़रीब छात्राओं को उच्च शिक्षा देने की बात की जा रही है। क्या यह सब नौंटकी नहीं हो रही है? हर साल इण्टर पास करने के बाद हज़ारों छात्रों का स्नातक स्तर पर दाखिला नहीं हो पाता है। इसके लिए मुलायम सरकार और कालेज बनवाने के बारे में क्यों नहीं सोचती? वह केवल पैसे बाँट कर पीछा छुड़ाना चाहती है और साथ-ही-साथ अपने नाम को हाईलाइट करना चाहती है ताकि उनका वोट बैंक बना रहे। सही मायने में सबको शिक्षा तभी मिल सकती है जब पूरे भारत में एक बेहतर व्यवस्था हो जिसमें आम आदमी के बारे में सोचा-समझा जाता हो न की बड़े-बड़े पूँजीपतियों के बारे में।