बाढ़ : मानव–जनित आपदा नहीं, व्यवस्था–जनित आपदा
लता
भारत में मानसून के आने के साथ ही देश के विभिन्न हिस्सों से बाढ़ और उससे होने वाली जान–माल की क्षतियों की ख़बरें आने लगती हैं । सरकारी मंत्रियों की हवाई यात्राओं का सालाना अनुष्ठान शुरू हो जाता है । नेताओं की आरोपों–प्रत्यारोपों की गन्दी राजनीति शुरू हो जाती है । और इन सब के बीच रह जाती है आम जनता की परेशानियाँ, तबाही और दु:ख । बाढ़ हर साल हजारों ज़िन्दगियों को लील जाती है । कई हज़ार हेक्टेयर फसलों की बर्बाद हो जाती हैं । इस वर्ष बिहार सहित देश के विभिन्न हिस्सों में बाढ़ आई है । बीस राज्यों में बारह सौ से अधिक लोग बाढ़ की वजह से मारे गए हैंै । तीन करोड़ लोग विस्थापित हुए हैं । सत्तर हजार से अधिक मवेशी बह गए हैं ।
बिहार राज्य में कोसी नदी से आई बाढ़ ने इस वर्ष सबसे ज्यादा तबाही मचाई है । इस वर्ष कोसी ने अपना रास्ता 120 किमी पश्चिम की ओर बदल लिया जिसकी वजह से सहरसा, मधेपुरा, सुपौल, कटिहार और खगड़िया समेत ग्यारह जिले बाढ़ की चपेट में आ गए । सरकारी आँकड़ों के मुताबिक बीस लाख लोग बाढ़ प्रभावित हुए हैं और सौ जाने गई हैं । लेकिन ये आँकड़े बेहद सतही हैं । 480 गांव पूरी तरह जलमग्न हैं । कई हज़ार लोग लापता हैं । मरनेवालों की संख्या का कुछ अंदाजा पानी के उतरने के बाद ही लगाया जा सकता है । इस तरह की किसी भी आपदा की सबसे ज्यादा मार औरतों और बच्चों को झेलनी पड़ती है । सुरक्षित जगहों पर ले जाने के नाम पर कई औरतों और लड़कियों को अगवा कर लिया गया है । बच्चे–बड़े सभी भूखे–प्यासे बाढ़ के पानी के उतरने का इन्तज़ार कर रहे हैं ताकि उन्हें पता चल सके कि उनके स्वजन–परिजन कहाँ हैं, या हैं भी या नहीं । हर साल के अपने अनुभव के आधार पर वे सरकारी सहायता के प्रति उदासीन हैं ।
मीडिया और सरकार के तमाम भोंपू कोसी में आई बाढ़ का आरोप नेपाल पर लगा रहे हैं । साथ ही कोसी को एक स्वच्छन्द नदी के रूप में प्रदर्शित करने में लगे हैं जिस पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता । इन दोनों ही कारणों का इस्तेमाल सरकार अपनी लापरवाहियों और गैरज़िम्मेदारियों को छुपाने के हथियार के तौर पर कर रही है । कहा जा रहा है कि नेपाल द्वारा पानी छोड़े जाने के कारण और बांध की मरम्मत के लिए गए इंजीनियरों को नेपाली प्रशासन का सहयोग और वहाँ हड़ताल कर रहे मज़दूरों की मदद न मिल पाने की वजह से बांध की मरम्मत नहीं हो पाई और इसलिए बाढ़ आई । यह बात बिल्कुल सही है कि भारत के इंजीनियर नेपाल से बांध की मरम्मत किए बिना लौटे लेकिन इसलिए नहीं कि नेपाली प्रशासन और मज़दूरों का सहयोग नहीं मिला, बल्कि इसलिए कि काफी देर हो चुकी थी । तब इसकी मरम्मत सम्भव ही नहीं थी । नेपाल में बने कुशाहा बांध की मियाद 1976 में पूरी हो गई थी । यह कल्पना के परे है कि 1976 में मियाद पूरी होने के बाद भी कैसे बिहार में बनने वाली तमाम सरकारें सोई रहीं । आज लालू यादव किस तरह नितीश की सरकार पर आरोप लगा रहे हैं ? उनकी सरकार ने तो सबसे लम्बे समय तक बिहार में शासन किया है । क्या उस दौरान कभी कोसी में बाढ़ नहीं आई ? मरम्मत नहीं होने की वजह से पहले तो बांध में दो सौ मीटर की दरार पड़ी फिर चार सौ मीटर की और उसके बाद यह दायरा तीन किलोमीटर के क्षेत्र में फैल गया । यह थी सरकार की दीर्घकालिक लापरवाही । तात्कालिक लापरवाहियों और गैरज़िम्मेदारियों की बात करें तो समझ में आ जाएगा कि इस व्यवस्था के लिए आम लोगों की जिन्दगियाँ कितनी मायने रखती हैं । सरकार को बाढ़ के आने की सूचना मिल गई थी । लेकिन 18 अगस्त को जब बांध में दरार पड़ी तो भी सरकार की कान पर जूँ तक नहीं रेंगी । होना ये चाहिए था कि बाढ़ की ख़बर मिलते ही लोगों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाने का काम शुरू कर देना चाहिए था । बजाए इसके यह विनाश के आने का इन्तज़ार करती रही और 18 अगस्त को पड़ी दरार के चार दिनों बाद राज्य सरकार ने इलाके के गाँवों में सुरक्षित जगहों पर जाने की मुनादी करवा कर अपने कर्तव्य को पूरा किया । लेकिन जब कोसी ने भारत की सीमा पर आ कर अपना रास्ता बदल लिया और बिहार के वे क्षेत्र बाढ़ की चपेट में आ गए जिन्होंने कभी कोसी की तबाही नहीं देखी थी । इन इलाकों में लोगों को सुरक्षित जगहों पर ले जाने के लिए नावों का इंतजाम नहीं था । बिहार सरकार जो नेपाल पर दोषारोपण कर रही है 18 अगस्त के कुछ पहले ही उसने यह कहा था कि बराज सही अवस्था में है और इसे कोई ख़तरा नहीं है । तो इसमें दरार कैसे आ गई ? जिन इलाकों में बाढ़ आई वहाँ नावों का इन्तज़ाम नहीं था । जो कुछ मोटरबोटें काम पर लगाई गईं उन पर दबंगों ने कब्ज़ा कर लिया और लोगों को सुरक्षित स्थानों पर ले जाने के लिए 500 से 6000 हजार तक की रकम उसूल रहे थें । हेलीकॉप्टरों द्वारा गिराए जा रहे अनाजों और दवाइयों के पैकेट ज़्यादातर पानी में गिरकर बर्बाद हो जा रहे हैं । राहत और सुरक्षा शिविरों का भी हाल कोई संतोषजनक नहीं है । इन शिविरों के उद्घाटन के ताम–झाम में काफी पैसे खर्च किये जा रहे हैं और लोगों को उद्घाटन होने तक का इन्तजार करने को कहा जा रहा है और तब उन्हें इन शिविरों में जाने को मिल रहा है । स्वयंसेवी संस्थाएँ आ रहीं है और अपना पिकनिक मना कर चली जा रही हैं । अभी भी हज़ारों लोग बाढ़ में फँसे हैं, सरकार, प्रशासन उन्हें बचाने का कितना प्रयास कर रही है इसका अनुमान अब तक की जानकारी के आधार पर लगाया जा सकता है ।
इस बीच लगातार हमारे कानों में कोसी के ताण्डव की बात पड़ती रही है । क्या वाकई कोसी पर नियंत्रण नहीं किया जा सकता ? क्या इसका मार्ग इतना अप्रत्याशित है ? क्या वाकई कोसी के बाढ़ की समस्या का कोई समाधान नहीं है ? बार–बार, लगातार इन बातों को सुन कर एक बार को तो लगने लगता है कि शायद इन बातों में कोई सच्चाई होगी । यदि पूँजीवादी व्यवस्था के दायरे में सोचा जाए तो निश्चित ही यह असंभव लग सकता है । क्योंकि बाढ़ से बचने के तमाम उपाय दीर्घकालिक योजनाओं की माँग करते हैं , जिनका तात्कालिक तौर पर मुनाफे के रूप में कोई फायदा नहीं होगा । पूंजीवादी तंत्र इस तात्कालिक मुनाफे़ में इस कदर डूबा होता है कि ऐसी किसी भी योजना में वह पूंजी निवेश नहीं करना चाहता जिसका फ़ायदा ठोस रूप में न मिले या देर से मिले । उसे तुरत–फुरत मुनाफ़ा चाहिए । ऐसा करना दरअसल पूँजीपतियों की मजबूरी भी है । कारण यह है कि कोई पूँजीपति यदि जनता की आवश्यकताओं का लिहाज़ करते हुए ऐसी किसी दूरगामी और दीर्घकालिक योजना में पैसा लगाता है जिसका ‘रिटर्न’ उसे तत्काल नहीं मिलना है, तो बाजा़र में उसकी प्रतिस्पर्धा में खड़ा पूँजीपति उसे निगल जाएगा । ऐसे में निजी मालिकाने पर आधारित पूंजीवादी गलाकटू प्रतिस्पर्द्धा की अराजकता में जनता का भारी हिस्सा लुटता–पिटता और तबाह होता रहता है । बिहार की बाढ़ प्रभावित जनता इसका ज्वलंत उदाहरण है ।
1954 में गठित गंगा आयोग की ऐसी कई बहुउद्देशीय योजनाओं की सिफ़ारिश की थी जिससे कोसी के नकारात्मक पहलुओं को सकारात्मक कारकों में बदला जा सकता था । ऐसी ही एक योजना थी ‘जलकुण्डी योजना’ जिसके तहत नेपाल में बांध बना कर इस नदी के द्वारा लाए जा रहे सिल्ट (गाद) को वहीं रोक दिया जाना था और इस बांधों पर विद्युत परियोजनाएं लगाने की योजना थी । इसका लाभ दोनों ही देश, नेपाल और भारत उठाते । लेकिन इन योजनाओं को कभी अमल में नहीं लाया गाया । तब इस योजना की लागत 33 करोड़ थी और आज यह इसकी लागत 150 करोड़ से है तब भी बाढ़ नियंत्रण पर पानी की तरह बहाए जाने वाले करोड़ों रुपयों से कम है । कुछ पर्यावरणविद नदियों पर बनाए जा रहे बांधों के विरोधी हैं, तकनोलॉजी को अभिशाप मानते हैं और ‘बैक टू नेचर’ का नारा देते हैं । लेकिन तकनोलॉजी अपने आप में अभिशाप नहीं होती । यह इसपर निर्भर करता है कि इसका इस्तेमाल किस लिये किया जा रहा है । एक मुनाफ़ा–केन्द्रित व्यवस्था में बड़े बांध अभिशाप हो सकते हैं । लेकिन एक मानव–केन्द्रित व्यवस्था में यह वरदान भी साबित हो सकते हैं ।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अक्टूबर-दिसम्बर 2008
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