पूंजीवादी दार्शनिक की चिन्ता, मैनेजिंग कमेटी को सलाह
प्रेमप्रकाश
लुटेरों और शोषकों के समूह पूँजीपति वर्ग की लूट को दीर्घकालिक बनाने के लिए एवं सुनियोजित लूट का रूप देने के लिए जो संस्था काम करती है उसे संसद कहते हैं । बुर्जुआ संसद जब कभी लुटेरों की लूट का प्रबन्ध करने में कठिनाई महसूस करती है अथवा शोषण को मुखौटे के अन्दर छिपाने में चूक जाती है तो पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकार महागुरू दार्शनिक अपनी ज्ञानमयी वाणी द्वारा शोषण को दीर्घकालिक बनाने का प्रवचन करके मार्ग दर्शन करते हैं ।
ऐेसे ही एक महागुरू भारतीय मनीषा के तथाकथित वर्तमान वाहक अमर्त्यसेन की चिन्ता वाणी का रूप धारण कर प्रस्फुटित हुई । अवसर था प्रो. हीरेन मुखर्जी स्मृति व्याख्यान । संसद के केन्द्रीय कक्ष में ‘सामाजिक न्याय की मांग’ विषय पर अपने व्याख्यान में प्रो. सेन ने भारतीय शासन के पैरोकारों एवं नीति निदेशकों तथा भारतीय राज्य व्यवस्था को कटघरे में खड़ा कर दिया । हालाँकि श्री सेन के भाषण में निन्दा, आलोचना अथवा आक्षेप का स्वर नहीं था और हो भी कैसे सकता है! महागुरू इन सबसे ऊपर उपदेश की मुद्रा में जो थे!
इस कार्यक्रम में संसद में पक्ष एवं विपक्ष के तथाकथित जन प्रतिनिधि, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, लोकसभा की मर्यादा अध्यक्ष श्री सोमनाथ चटर्जी और सोनिया गाँधी मौजूद थीं, क्योंकि नसीहत का पाठ सबको पढ़ना था और साझा उद्देश्य के लिए दी जाने वाली यह शिक्षा तो सभी के लिए समान रूप से उपयोगी थी ।
जब श्री सेन यह कह रहे थे कि एक प्रजातांत्रिक सरकार को जनता के लिए नीति एवं न्याय की रक्षा करनी चाहिये तो वह लुटेरों को परोक्षत: सब कुछ खुल्लम–खुल्ला न करने की बजाये मुखौटे के भीतर रहकर करने की बात कह रहे थे । क्योंकि शासन के जिस चरित्र और व्यवहार की कलई देश की हर मेहनतकश जनता के सामने खुल चुकी है, जिसमें कैंसर लग चुका है उसी व्यवस्था में पैबन्द लगाकर न्याय की बात करने का और क्या अर्थ हो सकता है जब श्री सेन बाल कुपोषण, प्राथमिक शिक्षा की कमी, चिकित्सा का अभाव एवं गरीबी को दूर करने के लिए सामाजिक न्याय की बात कर रहे थे तो क्या वे भूल गये थे कि इस सबके पीछे आम मेहनतकशों का शोषण एवं वही पूँजीवादी व्यवस्था है जिससे वह सामाजिक न्याय की गुहार लगा रहे हैं । अपने भाषण को समेटते हुए श्री अमर्त्य सेन यह कह रहे थे कि कानून बनाने वाले लोग अर्थात नेता और मंत्री को अधिक स्पष्ट रूप से जागरूक होना चाहिये तो वस्तुत: वे पूँजीवाद के ऊपर आने वाले ख़तरे से आगाह कर रहे थे जो मुखौटा–विहीन शोषण से पैदा हो रहा है । क्योंकि अगर सेन में थोड़ी भी दृष्टि होती तो वे देख सकते कि जिनसे वह समानता की स्थापना, गरीबी कुपोषण एवं अशिक्षा को मिटाने के लिए कानून बनाने एवं अमल में लाने के लिए सामाजिक न्याय की बात कर रहे हैं उस अन्याय के ज़िम्मेदार वही लोग हैं वरन इसके पैदा होने के स्रोत वे ही हैं । ऐसी समस्याओं के हल की विश्वदृष्टि जिस वर्गीय पक्षधरता एवं धरातल की मांग करती है वह श्री सेन के पास नहीं है ।
अमर्त्य सेन जैसे व्यक्ति यह क्यों नहीं सोचते कि जब समस्त शासन व्यवस्था, नीतियों के सूत्रधार, राजनीतिक प्रतिष्ठान इसी प्रकृति का शिकार हैं तो न्याय की उम्मीद किससे की जाये । क्या किसी चमत्कार में विश्वास किया जाये । सेन की चिन्ता का विषय सामाजिक न्याय नहीं वरन दर्शन द्वारा उस पक्ष की रक्षा करना है जिसके वो सिद्धान्तकर हैं । श्री सेन से यह पूछा जाये कि अन्याय और अभाव की इन परिस्थितियों का जिम्मेदार कौन है ? यह किसकी देन है ? इस सामाजिक अन्याय, आर्थिक असामानता और गरीबी–अशिक्षा आदि के पीछे मूल कारण कौन हैं ?। आखिर वे किससे न्याय की उम्मीद कर रहे हैं । उनकी चिन्ता का एक विषय यह है कि ‘कमजोर वर्ग अपने से अधिक शक्तिशाली वर्ग की दया पर निर्भर रहने पर विवश है लेकिन इस असमानता की उत्पत्ति कमजोर और शक्तिशाली वर्गों के अस्तित्व के मूल कारणों पर वे मौन क्यों हैं । उनका यह सुझाव कि सरकार को राजनीतिक नेतृत्व की समस्याओं का समाधान खोजने के लिए प्राथमिकता तय करनी चाहिये, अच्छा ख्याल है । लेकिन वे इस बात को भूल जाते हैं कि समस्याओं के समाधान की दृष्टि भी वर्ग दृष्टि होती है और कोई भी शोषक वर्ग इन समस्याओं का समाधान अपनी मृत्यु की शर्त पर क्यों करने लगा ।
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जो उस कक्ष में मौजूद थे ने वहीं अपने भाषण में कहा कि अमर्त्य सेन के विचारों के अनुरूप ही सरकार सामाजिक न्याय एवं विकास को मानवतावादी स्वरूप दे रही है । परन्तु प्रश्न यह है कि जब सरकार अमर्त्य सेन के विचारों के अनुरूप ही कार्य कर रही है तो समस्या कहाँ है ? जाहिर है कि शासन और सरकार अपने अन्दर झाँकने की जरूरत भी महसूस नहीं कर रही है तो ऐसे में नयी कार्ययोजना एवं प्राथमिकताएँ पैदा करने का प्रश्न ही नहीं पैदा होता ।
अब अगर यह पूछा जाये कि जब सुधार की कोई गुंजाइश ही नहीं है तो श्री सेन एवं पूँजीवादी नीति निदेशकों की चिन्ता इतनी तेज क्यों ? क्योंकि वे स्पष्ट रूप से जानते हैं कि शोषण से पैदा हो रहे असन्तोष और मेहनतकशों का लावा उनके पॉम्पेई को गलाकर रख देगा । इसलिए श्री सेन पूँजीपति वर्ग से शोषण की प्रकृति को नरम एवं ठण्डा बनाने की बात कर रहे हैं । लेकिन अमर्त्य सेन यह भूल रहे हैं कि शोषण का अतितीव्र एवं गहन होना ही पूँजीवादी विकास की शर्त है । यह सामाजिक अन्याय असमानता कोई आसमान से टपकी चीज नहीं हैं न ही यह भाग्य विधान की उपज है जैसा कि भाववादी बताते हैं बल्कि यह मौजूदा व्यवस्था के अन्तरविरोध से पैदा हुई उसके विनाश का बीज है । पूँजीवादी व्यवस्था अपनी मृत्यु का बीज अपने अन्दर ही समाहित किये हुए हैं । अगर पूँजीवादी व्यवस्था वास्तव में कल्याणकारी हो जायेगी तो इसका अर्थ होगा श्रम के अधिशेष को न निचोड़ना अर्थात उत्पादन का समान वितरण । परन्तु ऐसा करने से यह व्यवस्था स्वयं ही अपनी मृत्यु की तरफ बढ़ जायेगी और यह ऐसा नहीं करेगी । दूसरे, इस पूँजीवादी लूट से एक सर्वहारा वर्ग का सृजन होता है जिसके पास अपने श्रम को बेचने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है और उसकी घृणा और नफरत शोषक वर्गों के खिलाफ एक लावे की तरह खौल रही है जो पूँजीवाद को कब्र में पहुँचाकर ही शान्त होगी ।
अमर्त्य सेने की शिक्षा एवं उनकी बातों में निहित अर्थों पर विश्वास करने का अर्थ है नरभक्षी भेड़ियों के सामने खडे़ होकर न्यायपूर्ण जीवन की बात सोचना । पूँजीवादी समाज के मूल में सामाजिक न्याय नहीं मत्स्य–न्याय होता है जिसमें बड़ी मछली छोटी मछली की सुविधा एवं जान की परवाह किये बगैर खा जाती है यही बड़ी मछली के जीने की शर्त है, यही मत्स्य–न्याय है और यही पूँजीवाद का न्याय है ।
श्री सेन कितना भी दिव्य–दृष्टि प्रदान करने का प्रयास करें, कोई फ़र्क नहीं पड़ता । पूँजी अपनी स्वाभाविक गति से असमानता, शोषण, लूट, ग़रीबी, बेरोज़गारी और अशिक्षा पैदा करती है । पूँजीवाद का विकल्प संत पूँजीवाद नहीं बल्कि समाजवाद है । यही बात अमर्त्य सेन जैसे लोग समझकर भी नहीं समझना चाहते हैं ।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अक्टूबर-दिसम्बर 2008
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