बाढ़ : मानव–जनित आपदा नहीं, व्यवस्था–जनित आपदा
1954 में गठित गंगा आयोग की ऐसी कई बहुउद्देशीय योजनाओं की सिफ़ारिश की थी जिससे कोसी के नकारात्मक पहलुओं को सकारात्मक कारकों में बदला जा सकता था । ऐसी ही एक योजना थी ‘जलकुण्डी योजना’ जिसके तहत नेपाल में बांध बना कर इस नदी के द्वारा लाए जा रहे सिल्ट (गाद) को वहीं रोक दिया जाना था और इस बांधों पर विद्युत परियोजनाएं लगाने की योजना थी । इसका लाभ दोनों ही देश, नेपाल और भारत उठाते । लेकिन इन योजनाओं को कभी अमल में नहीं लाया गाया । तब इस योजना की लागत 33 करोड़ थी और आज यह इसकी लागत 150 करोड़ से है तब भी बाढ़ नियंत्रण पर पानी की तरह बहाए जाने वाले करोड़ों रुपयों से कम है । कुछ पर्यावरणविद नदियों पर बनाए जा रहे बांधों के विरोधी हैं, तकनोलॉजी को अभिशाप मानते हैं और ‘बैक टू नेचर’ का नारा देते हैं । लेकिन तकनोलॉजी अपने आप में अभिशाप नहीं होती । यह इसपर निर्भर करता है कि इसका इस्तेमाल किस लिये किया जा रहा है । एक मुनाफ़ा–केन्द्रित व्यवस्था में बड़े बांध अभिशाप हो सकते हैं । लेकिन एक मानव–केन्द्रित व्यवस्था में यह वरदान भी साबित हो सकते हैं ।