संसद के गलियारे में भगतसिंह की प्रतिमा
आशीष
आज़ादी के 61 वर्ष पूरे होने पर देश की संसद के गलियारे में शहीदे–आज़म भगतसिंह की प्रतिमा का अनावरण किया गया । 18 फीट ऊँची इस कांस्य प्रतिमा की लागत पचास लाख बतायी जा रही है । संसद भवन परिसर में भगतसिंह को श्रीमती इंदिरा गांधी की प्रतिमा के बगल में सुशोभित (!) किया गया है । इसे शिल्पकार राम बी सुतार ने गढ़ा है जो प्रतिमा तो है लेकिन भगतसिंह की नहीं लगती । यह एक अलग सवाल है ।
संसद में भगतसिंह की प्रतिमा लगने की बात सोचते ही मन में ढेर सारे सवाल कौंधने लगते हैं । अजीब इत्तेफाक है अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब इसी हुकूमत के कारकूनों द्वारा उड़ीसा में भगतसिंह को बतौर आतंकवादी पढ़ाया जा रहा था । और अब वही लोग भगतसिंह को महान देशभक्त, बहादुर क्रान्तिकारी बताते हुए उन्हें मूर्ति में तब्दील करने में लगे हुए हैं ।
आखिर देश के हुक्मरान भगतसिंह पर इतने मेहरबान क्यों हो रहे हैं क्या भगतसिंह के विचारों के अनुरूप व्यवस्था का पुनर्गठन होने जा रहा है क्या ‘बहरे’ कान देश के करोड़ों आम लोगों की चीखें सुन पा रहे है या भ्रष्ट पूँजीवादी राजनीति के पहरुये देश की दशा–दिशा देखकर ‘कुछ’ सोचने को मजबूर हो रहे हैं! सच यही है कि देश की मौजूदा दशा दिशा हुक्मरानों को ‘कुछ’ सोचने पर मजबूर कर रही है ।
पहला सवाल यही बनता है कि इन्हें भगतसिंह की मूर्ति लगाने की ख्याल आज के दौर में ही क्यों आया । इसके पीछे निश्चित तौर पर देश में भगतसिंह के विचारों की बढ़ती प्रासंगिकता है । उनके विचारों की ग्रहणशीलता बढ़ी है । जिस समझौतापरस्त तत्कालीन नेतृत्व से आगाह करते हुए भगतसिंह ने कहा था कि अगर आज़ादी इनके माध्यम से आयेगी तो निश्चित तौर पर मुटठीभर अमीरजादों की आज़ादी होगी । विगत साठ साल के सफरनामे ने यही साबित किया है । व्यापक जनता के सामने तथाकथित आज़ादी का मुलम्मा उतर चुका है । ऐसे में जब तमाम तरीकों से भगतसिंह के विचार आम जन में पैठ बनाने लगे हैं तब शासक वर्ग की मजबूरी बनती दिख रही है कि अब वे सीधे–सीधे भगतसिंह को नकार नहीं सकते हैं । अगर ये सच्चे मन से भगतसिंह को स्वीकार कर रहे होते तो आज़ादी के बाद गांधी, नेहरू की संकलित रचनाओं के बरक्स उनके विचारों को दबाने का प्रयास नहीं करते । उनके लेखों, दस्तावेजों केा जन–जन तक पहुँचाने का काम सरकारी महकमे ने नहीं किया बल्कि भगतसिंह की सोच को मानने वाले क्रान्तिकारी संगठनों ने किया है ।
दूसरी बात जहाँ मूर्ति का सवाल है उसे लगाने में कोई दिक्कत नहीं । प्रतीक चिन्हों के तौर पर जनता हमेशा अपने नायकों की मूर्तियाँ लगाती रही है । मूर्ति कौन लगा रहा है! और उसकी मंशा क्या है ? यह दूसरा महत्वपूर्ण सवाल है । वे लोग जिनका भगतसिंह की विचारधारा से दूर–दूर तक कोई रिश्ता नहीं है । यही नहीं! ये वे लोग हैं जो भगतसिंह के विचारों को आम लोगों तक पहुँचाने वाले लोगों की राह में तमाम रोड़े अटकाते रहे हैं । जब वे भगतसिंह का नाम लेते हैं तो मन शंकालु हो उठता है । कहते हैं जिस विचार को रोक न सको उसके प्रतीकों को आम जन में इस तरह पेश करो कि या तो वह ‘पूज्य’ लगने लगे, पहुँच से दूर लगने लगे या उसे खास छवि में बाँध दो, उसकी कोई जातिगत पहचान, धार्मिक पहचान बना दो जिससे उसकी ऊष्मा क्षीण हो जाये ।
देश के हुक्मरानों ने भगतसिंह की प्रतिमा लगा कर यही कुछ करने की कोशिश की हैं भगतसिंह के नाम से बतायी जा रही यह प्रतिमा भगतसिंह की कतई नहीं लगती । इसमें भगतसिंह को पगड़ी बांधे, दोहरी कद–काठी, दाढ़ी व घनी मूंछो सहित कुर्ता पहने दिखाया गया है जबकि भगतसिंह ने 1928 से लेकर 23 मार्च 1931 को अपनी फांसी चढ़ने तक पगड़ी नहीं पहनी थी और दाढ़ी नहीं रखी थी । वे इकहरे बदन के नौजवान थे । वे किस दौर के भगतसिंह को स्थापित करना चाहते हैं तब भगतसिंह की ऐसी खास छवि बनाकर हृष्ट–पुष्ट जट–सिख पेश करने का मतलब सरकारी विज्ञापनों में और जाट पुत्तर के तौर पर भगतसिंह को पेश करते जातिवादी संगठनों में यही समानता दिखती है ।
क्या यह अकारण है! नहीं । यह एक साजिश है । ये उन्हें खास धर्म व जाति की छवि में बाँधने का प्रयास कर रहे हैं । भगतसिंह के जीवन व कर्म में कोई वैपरीत्य नहीं था । वे जिन विचारों को मानते थे उन्हें ही अपने जीवन पर लागू करते थे । यही ‘विचारों की सान’ भगतसिंह को हमारा नायक बनाती है । लेकिन हुकूमत ऐेसे विचार को जो उसके ढोंग–पाखण्ड की पोल खोलती हो बर्दाश्त नहीं कर पाती । वह ऐसे विचारों को धूमिल करने के हजार एक प्रयास करती है । यह प्रतिमा अनावरण प्रसंग उसी का जीता जागता उदाहरण है ।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अक्टूबर-दिसम्बर 2008
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