माया की माला और भारतीय पूँजीवादी जनतंत्र के कुछ जलते सवाल
इतिहास में हमेशा ही शासक वर्ग जनता की चेतना को अनुकूलित करके उससे अपने ऊपर शासन करने की अनुमति लेते रहे हैं। यहाँ भी ऐसा ही हो रहा है। जब तक मायावती जैसे नेताओं का यह तर्क आम दलित आबादी के बीच स्वीकारा जाता रहेगा कि जो कुछ सवर्ण करते रहे हैं, वही सबकुछ करने की उन्हें भी छूट है, तब तक व्यापक दलित जनता की मुक्ति का वास्तविक आन्दोलन आगे नहीं बढ़ेगा। मायावती की राजनीति पर दलित समाज के भीतर से पुरज़ोर आवाज़ों का अब तक न उठना, न्यूनतम जनवादी चेतना की कमी को दिखलाता है। यह काफी चिन्ता की बात है और दलित जातियों के सोचने–समझने वाले बाले नौजवान जब तक इस सवाल पर नहीं सोचेंगे तब तक आम दलित आबादी की ज़िन्दगी में बुनियादी बदलाव लाने की लड़ाई आगे नहीं बढ़ जाएगी। इसके लिए दलित समाज के भीतर व्यापक सांस्कृतिक कार्रवाइयां और प्रबोधन के काम को हाथ में लेना होगा।