Category Archives: राष्‍ट्रीय/अर्न्‍तराष्‍ट्रीय मुद्दे

माया की माला और भारतीय पूँजीवादी जनतंत्र के कुछ जलते सवाल

इतिहास में हमेशा ही शासक वर्ग जनता की चेतना को अनुकूलित करके उससे अपने ऊपर शासन करने की अनुमति लेते रहे हैं। यहाँ भी ऐसा ही हो रहा है। जब तक मायावती जैसे नेताओं का यह तर्क आम दलित आबादी के बीच स्वीकारा जाता रहेगा कि जो कुछ सवर्ण करते रहे हैं, वही सबकुछ करने की उन्हें भी छूट है, तब तक व्यापक दलित जनता की मुक्ति का वास्तविक आन्दोलन आगे नहीं बढ़ेगा। मायावती की राजनीति पर दलित समाज के भीतर से पुरज़ोर आवाज़ों का अब तक न उठना, न्यूनतम जनवादी चेतना की कमी को दिखलाता है। यह काफी चिन्ता की बात है और दलित जातियों के सोचने–समझने वाले बाले नौजवान जब तक इस सवाल पर नहीं सोचेंगे तब तक आम दलित आबादी की ज़िन्दगी में बुनियादी बदलाव लाने की लड़ाई आगे नहीं बढ़ जाएगी। इसके लिए दलित समाज के भीतर व्यापक सांस्कृतिक कार्रवाइयां और प्रबोधन के काम को हाथ में लेना होगा।

महिला आरक्षण बिल : श्रम की वर्गीय एकजुटता को कुन्द करने की साजिश

जिस तरह रोज़गार एवं अवसरों को उपलब्ध कराने में असफल रही पूँजीवादी व्यवस्था द्वारा दलित व पिछड़े वर्ग के लिए लागू किये गए आरक्षण से व्यापक दलित व पिछड़े वर्ग को कोई लाभ नहीं हुआ, बल्कि इन वर्गों से कुछ पूँजी के चाकर पैदा हुए और व्यापक मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में अस्मितावादी राजनीति ज़ोर मारने लगी, उसी तरह इस कानून से भी आम औरतों को कोई लाभ नहीं होने वाला है। इसके द्वारा स्त्रीवादी आन्दोलन को व्यापक मेहतनकश जनता के आन्दोलन से न जुड़ने देने की साज़िश सत्ता प्रतिष्ठान द्वारा रची गयी है। न तो स्त्रियों के प्रति पितृसत्तात्मक मानसिकता से जकड़े तमाम सत्ताधारी पुरुषों के दृष्टिकोण में परिवर्तन आया है और न ही औरतों को चूल्हा–चौका, बच्चा पैदा करने और पति की सेवा करने तक सीमित कर देने के हिमायती और फासीवाद के प्रबल समर्थक संघ परिवार के राजनीतिक मुखौटे भाजपा की विश्वदृष्टि में कोई बदलाव आया है। ऐसे में समझा जा सकता है कि महिला आरक्षण बिल का वास्तविक लक्ष्य क्या है और इसे लेकर सभी चुनावी दल इतनी नौटंकी क्यों कर रहे हैं।

प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह की लफ्फाज़ी

डा. मनमोहन सिंह का यह बयान कि देश में ग़रीबी रेखा के नीचे रहने वाले लोगों की संख्या में कमी आयी है, का आधार पहले से मज़ाकिया ग़रीबी रेखा मानक को आँकड़ों की बाज़ीगरी से और मज़ाकिया बना देने और फिर उसके आधार पर ग़रीबों की संख्या का आकलन है। स्थापित ग़रीबी रेखा के अनुसार गाँवों में 2400 कैलोरी और शहरों और में 2100 कैलारी प्रतिव्यक्ति प्रतिदिन का उपभोग स्तर किसी व्यक्ति को ग़रीबी रेखा के ऊपर कर देता है। सरकार द्वारा गरीबों के साथ धोखाधड़ी और लूट में आँकड़ों का खेल कोई नयी बात नहीं है लेकिन अब खबर यह भी है कि कैलोरी उपभोग स्तर के उपरोक्त मानक को घटाकर ग्रामीण क्षेत्रों में 1890 और शहरी क्षेत्रों में 1875 कैलोरी प्रति व्यक्ति करने की योजना है। अर्थात, अब कागजी विकास के इस मॉडल में ग़रीबों की घटती संख्या दिखाने के लिए पूँजी के चाकरों को आँकड़ों की बाज़ीगरी करने की भी ज़रूरत नहीं पडे़गी।

पैसा दो, खबर लो : चौथे खम्भे की ब्रेकिंग न्यूज

इस बार का महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव काफी चर्चा में रहा है। यहाँ पैसा दो–खबर लो का बोलाबाला रहा। प्रिण्ट एवं इलेक्ट्रानिक मीडिया ने ‘चुनावी रिपोर्टिंग’ के रूप में ग्राहक उम्मीदवारों के सामने बाकायदा ‘ऑफर’ प्रस्तुत किया। वहीं उम्मीदवारों ने भी अपनी छवि को सुधारने हेतु क्षमतानुसार धनवर्षा करने में कतई कोताही नहीं की। धनवर्षा पहले भी होती रही है। मीडिया भी जनराय बनाने में सहयोगी भूमिका निभाती रही है। लेकिन ये सारा कारोबार इतना खुल्लमखुल्ला नहीं होता था। पहले दबे–दबे रूप में यह बात सामने आती थी कि अखबार वाले पैसे लेकर खबर छापते हैं। न मिलने पर छुपाते हैं। हूबहू ऐसा ही नहीं होता लेकिन प्रधान बात तो यही है कि जिसका पैसा उसका प्रचार। लेकिन इस बार तो ‘खबर’ लगाने की बोलियाँ लगीं। बिल्कुल मण्डी में खड़े होकर ‘खबर’ नामक माल बेचते मानो कह रहे हों पैसा दो–खबर लो, कई लाख दो–कई पेज लो, करोड़ दो–अखबार लो आदि आदि।

क्यों है ऐसा पाकिस्तान?

आख़िर क्यों पाकिस्तान को बार-बार सैनिक तानाशाहों का मुँह देखना पड़ता है? आख़िर क्यों सैनिक सरकार न होने पर भी राजनीतिक से लेकर प्रशासनिक मामलों तक में सेना का इतना हस्तक्षेप होता है? क्यों बार-बार नागरिक सरकारें सेना के सामने घुटने टेक देती हैं? क्या इसके कारण पाकिस्तान के ऐतिहासिक विकास की विशिष्टताओं में निहित हैं? यह समझने के लिए हमें पाकिस्तान के राजनीतिक इतिहास पर एक निगाह डालनी होगी और अलग-अलग दौरों में सेना की भूमिका को भी समझना होगा।

यह आम जनता के प्रतिनिधियों का चुनाव है या कॉरपोरेट जगत की मैनेजिंग कमेटी का!?

सिर्फ़ हिन्दुस्तान में ही नहीं बल्कि लगभग सभी पूँजीवादी देशों में चुनावबाज पार्टियों की पूरी फ़ण्डिंग कॉरपोरेट घरानों के दम पर ही होती है। यानी, जन-प्रतिनिधियों के चुनाव के लिए सारा खर्च ये घराने उठाते हैं। ये इसे अपनी जिम्मेदारी क्यों समझते हैं, यह सहज ही समझा जा सकता है। दूसरी बात जो और भी महत्त्वपूर्ण है कि सभी घरानों ने मिलकर देश की बड़ी पार्टिंयों कांग्रेस और भाजपा दोनों को ही 50–50 करोड़ रुपए दिए हैं, यानी, इन घरानों की पार्टिंयों को लेकर कोई विशेष पसंद नहीं है। इन्हें दोनों ही सामान्य रूप से स्वीकार्य है। ऐसा होना लाज़िमी भी है क्योंकि इन दोनों पार्टियों में आर्थिक नीतियों को लेकर कोई मतभेद नहीं है। दोनों ही जनता को लूटने वाली भूमण्डलीकरण, उदारीकरण और निजीकरण की नीतियों पर एक हैं।

स्कूल चले हम, स्कूल चले हम – नेता बनने!!!

हम भी नेताओं का एक स्कूल खोल रहे हैं। इसमें प्रधानाचार्य रखने में तो कठिनाई हो रही है क्योंकि सबके सब अपने क्षेत्र में धुरंधर हैं और अपने को देश का अगला प्रधानमंत्री बता रहे हैं। इसलिए शिक्षकों की ही एक टीम तैयार की है जिसमें तमाम विशेषज्ञ शिक्षक होंगे। पहले शिक्षक मोदी पढ़ायेंगे कि कैसे एक प्रायोजित कत्लेआम को ‘‘क्रिया की प्रतिक्रिया’’ का रूप दिया जाता है। यहाँ पढ़ाई सिर्फ़ थ्योरेटिकल ही नहीं होगी। प्रैक्टिकल के रूप में केरल, मुम्बई, मध्यप्रदेश दिखाया जायेगा। दूसरे बड़े शिक्षक होंगे मनमोहन सिंह, इस देश के बड़े अर्थशास्त्री, जो बतायेंगे कि उदारीकरण-निजीकरण की नीतियों को लागू करने के लिए “ट्रिकल डाउन थियोरी” जैसे चमत्कारी सिद्धान्तों का जामा कैसे पहनाया जाय जो कहता है कि जब समाज के शिखरों पर समृद्धि आयेगी तो वह रिसकर नीचे ग़रीब तबके तक पहुँच जायेगी! अब यह तो विश्व भर की मेहनतकश जनता अपने पिछले 30 साल के भूमण्डीकरण के अनुभव से बता सकती है कि आज की व्यवस्था में समृद्धि तो ‘ट्रिकल डाउन’ करती नहीं है लेकिन संकट ‘ट्रिकल डाउन’ ज़रूर करता है। साथ ही मनमोहन जी मन मोह लेते हुए बताएँगे कि पूँजीपतियों को अपनी अय्याशी इस तरह खुले में पेश नहीं करनी चाहिये कि देश की मेहनतकश जनता में रोष पैदा हो। मतलब की एक अच्छा नेता वही नहीं होता जो सरकार और पार्टी जैसी चीज़ों के बारे में सोचे बल्कि अच्छा नेता वह होता है जो ये सोचे कि कैसे ये सड़ी पूँजीवादी व्यवस्था बची रहे।

यूनान में जनअसन्तोष के फूटने के निहितार्थ

यदि इन प्रतिरोध-प्रदर्शनों के पीछे के वास्तविक कारणों की पड़ताल की जाय तो पता चलता है कि जनता के बड़े हिस्से में, विशेषकर युवा आबादी के बीच एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के प्रति गहरी पैठी नफ़रत और निराशा है जो केवल अमीरों और धनाढ्य वर्गों का प्रतिनिधित्व करती है और उन्हीं के हितों की पूर्ति और रक्षा करती है। निजीकरण और उदारीकरण की वैश्विक लहर से यूनानी अर्थव्यवस्था भी अछूती नहीं रही है। नवउदारवादी नीतियों के चलते, सार्वजनिक शिक्षा और सामाजिक सेवाओं को लगातार निजी हाथों में सौंपा जा रहा है और उन्हें अमीरों की बपौती बनाया जा रहा है। यदि केवल आँकड़ों की बात की जाय तो पूरे यूरोपीय संघ में यूनान में युवा बेरोज़गारी दर सबसे अधिक है, जो लगभग 28 से 29 प्रतिशत के बीच है। इसके कारण युवावस्था पार करने के बाद तक ज्यादातर नौजवान आर्थिक रूप से अपने माँ-बाप पर ही निर्भर रहते हैं।

जीते कोई भी, हारेगी जनता ही!

आम छात्रों-नौजवानों और मेहनतकशों के सामने समझने की बात यह है कि जब तक कोई क्रान्तिकारी विकल्प खड़ा नहीं किया जाता तब तक चुनाव तो होते ही रहेंगे। लेकिन उसमें चुनने के लिए हमारे सामने नागनाथ, साँपनाथ, मगरमच्छ और अन्य खाफ़ैनाक जंगली जानवरों के ही विकल्प होंगे। हमें बस चुनना यह होगा कि हम किसके हाथों मरना पसन्द करेंगे! जब तक कोई विकल्प नहीं पैदा होता तब तक जनता का एक हिस्सा कभी इस तो कभी उस पार्टी के भरोसे नैया पार लगाने की उम्मीद में वोट डालता रहेगा। सभी जानते हैं कि इन पार्टियों के असली आका कौन हैं, इनकी आर्थिक और राजनीतिक नीतियाँ क्या हैं। आज परिवर्तनकामी छात्रों और नौजवानों के समक्ष यही चुनौती है कि वे एक ऐसे क्रान्तिकारी विकल्प का निर्माण करें जो एक सच्ची जन व्यवस्था को खड़ा कर सके; जिसमें उत्पादन, राज-काज और पूरे समाज के ढाँचे पर धनपशुओं और उनके भाड़े के टट्टुओं का नहीं बल्कि उत्पादन करने वाले आम मेहनतकशों का हक़ होगा।

पप्पू वोट देकर क्या करेगा!

अगर विज्ञापन से प्रभावित होकर पप्पू वोट देने के लिए भी तैयार होता है तो किसे वोट देता है? हालत यह है कि चुनावी नेताओं और अपराधियों के बीच कोई ख़ास फ़र्क नहीं रह गया है। एक गैर-सरकारी संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक जिन पाँच राज्यों में अभी चुनाव होने हैं। उनमें निर्वाचित हर पाँच में से एक विधायक की आपराधिक पृष्ठभूमि है। रिपोर्ट के अनुसार कुल नवनिर्वाचित 549 जनप्रतिनिधियों में से 124 का आपराधिक रिकार्ड है। अगर दिल्ली विधानसभा की बात की जाये तो कुल 70 सीटों वाली विधानसभा में 39 फ़ीसदी विधायक दागी हैं। यानी राजधानी दिल्ली में 91 उम्मीदवारों की आपराधिक पृष्ठभूमि है।