मज़दूरों के बच्चों को लीलती पूँजीवादी व्यवस्था
विवेक, दिल्ली
पूँजीवादी व्यवस्था में देश की बहुत बड़ी मेहनतकश आबादी तो गुलामों जैसी जिन्दगी जीती ही है लेकिन यह सड़ी और पतित व्यवस्था मज़दूरों के बच्चों को भी नहीं छोड़ती। इसका एक बहुत बड़ा उदाहरण हम निठारी काण्ड में देख चुके हैं। लेकिन निठारी काण्ड तो एक उदाहरण था जो हमारे सामने आ गया लेकिन अभी भी मोहिन्दर सिंह पंधेर और सुरिन्दर कोली जैसे तमाम आदमखोर खुलेआम घूम रहे हैं। चीनी साहित्यकार लू शुन की एक कहानी है ‘‘पागल की डायरी’’ जिसमें वो लिखते हैं ‘‘कि सब आदमखोर हो रहे हैं सम्भव है कि नई पीढ़ी के छोटे बच्चों ने नर माँस न खाया हो। इन बच्चों को बचाओ!’’
आज ये मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था आदमखोर होती जा रही है। आये दिन अखबारों में बच्चों के लापता होने की खबरें आ रही है। अगर आँकड़ों की बात करें तो बच्चों के गायब होने के मामले में कोलकाता पहले नम्बर पर और दिल्ली दूसरे नम्बर पर है। 2005 में मानवाधिकार आयोग के मुहैया कराये गये आँकड़ों के मुताबिक हर साल राष्ट्रीय राजधानी से लगभग 7058 बच्चे लापता होते हैं जो पूरे देश से गायब होने वाले बच्चों की संख्या का 6.7 फ़ीसदी है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार हर वर्ष देश में करीब 44,000 बच्चे गुम हो जाते हैं। इनमें से 11,000 बच्चों का कुछ पता नहीं चलता। गैर-सरकारी रिपोर्टों के अनुसार वास्तविक संख्या इन आँकड़ों से कहीं अधिक है क्योंकि बहुत से मामलों की रिपोर्ट ही दर्ज नहीं होती। यूरोपियन कांउसिल की एक रिपोर्ट (1611(2003)) के अनुसार 1980 के दशक से ही भारत और दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में ग़रीबों से मानव अंग खरीदे जाते रहे हैं। रिपोर्ट बताती है कि यूरोप में 15 से 30 प्रतिशत मरीज अंगों के मिलने के इंतजार में ही मर जाते हैं। अंग प्रत्यर्पण के लिए 2003 में जहाँ 3 साल का इंतजार करना होता था, सन 2010 तक मरीजों को 10 साल का इंतजार करना होगा। माँग और आपूर्ति की इस विषमता को अन्तर्राष्ट्रीय गिरोहों ने अरबों डालर मुनाफ़े के धन्धे में बदल दिया है। मानव अंगों के लिए ग़रीबों के बच्चों की तस्करी की खबरें भारत ही नहीं तीसरी दुनिया के अनेक ग़रीब देशों से मिल रही हैं। एक रिपोर्ट के मुताबिक एशिया से पिछले 30 वर्षों में 3 करोड़ बच्चों और महिलाओं को यौन व्यापार में जबरन धकेल दिया गया है। अकेले भारत में लगभग 3 लाख बच्चों को बाल यौन कारोबार में इस्तेमाल किया जा रहा है। एक अन्य आकलन के मुताबिक विश्वस्तर पर बच्चों की ख़रीद-फ़रोख्त की मण्डी 42 हजार करोड़ रुपये सालाना है।
यहाँ बात सिर्फ़ आँकड़ों की नहीं है यहाँ हमारा सवाल उन सभी लोगों से है जो इस व्यवस्था का गुणगान करते नहीं थकते। क्या ये ही वो समाज है जो हम अपनी आने वाली पीढ़ी को सौंप जायेंगे। जो लोग संवेदनहीन हो चुके हैं जिन्हें सिर्फ़ अपने से मतलब है हमें उनसे कुछ नहीं कहना। हमारा सवाल उनसे हैं जिनके अन्दर इस व्यवस्था के प्रति एक नफ़रत एक घुटन है उन्हें समझना ही होगा कि इन बच्चों को और कोई नहीं बल्कि पूँजीवादी समाज का राक्षस उठाकर ले जा रहा है। मुनाफ़े की हवस में पगलाया यह समाज इंसानी ख़ून का प्यासा है! औरतों और बच्चों के सस्ते श्रम को निचोड़ने से भी उसे जब सन्तोष नहीं होता तो वह उन्हें बेचने, उनके शरीर को नोचने-खसोटने और उनके अंगों को निकालकर, उनका ख़ून निकालकर बेच देने की हद तक गिर जाता है। निठारी एक चेतावनी थी-पूरी इन्सानियत के लिए– इसने फ़िर से हमें चेताया था कि इन्सानियत को बचाना है तो पूँजीवाद का नाश करना ही होगा! बच्चों की गुमशुदगी की लगातार बढ़ती घटनाएँ एक बार फ़िर याद दिला रही हैं कि ग़रीबों और मेहनतकशों के ज़िन्दा रहने की शर्त है समाज के इस ढाँचे की तबाही!
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2009
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!