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एक घर हो सपनों का…

पूँजीवादी व्यवस्था में ऐसी सामाजिक समस्या बनी ही रहती है क्योंकि जिसमें मेहनतकश जनसाधारण कि विशाल संख्या सिर्फ अपने श्रम के बल पर अपना और अपने परिवार का गुजारा करती है । और बेरेाजगार मजदूरों की एक बहुत बड़ी संख्या फैक्ट्री–कारखानों के बाहर रिजर्व सेना के रूप में खड़ी रहती है । और साथ ही गाँवों और पिछड़े क्षेत्रों से बहुत बड़ी आबादी रोजी–रोटी के लिए औद्योगिक शहरों में आती रहती है इनकी पहली जरूरत सिर्फ दो समय का भोजन का जुगाड़ करना ही होता है, बुनियादी नागरिक अधिकार तो दूर की बात है ऐसे में शहरों, महानगरों के पास मजदूर बस्ती बसती जाती है एक तरफ गगनचुम्बी इमारतें, 15–20 कमरों वाली कोठियाँ होती हैं और दूसरी तरफ रहने को छत भी नहीं होती । इसलिए इस व्यवस्था में ये असमानता और ये समस्याएँ बनी ही रहेंगी ।