बाढ़: प्राकृतिक या पूँजीवादी?
आशा
अभी हाल ही में जुलाई और अगस्त के महीने में उत्तरी भारत का बहुत बड़ा हिस्सा बाढ़ की चपेट में आ गया था। इस बाढ़ ने पिछले तीन दशकों के सारे रिकार्डों को तोड़़ दिया। बाढ़ का प्रकोप इतना भयानक था कि इसने भारत के पड़ोसी देश बांग्लादेश तक को प्रभावित किया। भारत में जो क्षेत्र सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए वे थे-बिहार, बंगाल और असम। करीबन 3 करोड़ लोग इस बाढ़ की चपेट में आये जिसमें से अकेले बिहार ही में 1 करोड़ 90 लाख लोगों ने इस प्रकोप की मार सही। इस बाढ़ के बारे में पहले से ही अनुमान मिलने शुरू हो गये थे। 18 जुलाई को तटबाँधों के टूटने के साथ ही यह मालूम पड़ गया था कि इस बार बाढ़ का रूप अत्यन्त भयावह होगा। मगर पूरा मीडिया, अखबार और सरकार की चाकरी कर रहे तमाम भोंपू यह साबित करने में जुटे थे कि बाढ़ तो एक प्राकृतिक आपदा है, इसके बारे में पूर्वानुमान नहीं लगाया जा सकता। जबकि सच्चाई यह है कि बाढ़ के आने का पता तो बहुत पहले ही चल जाता है लेकिन फ़िर भी इसे रोकने या फ़िर बाढ़ के आने पर लोगों को सुरक्षित स्थानों पर पहुँचाने का कोई इंतज़ाम नहीं किया जाता है। यह सब जानबूझकर सोची समझी रणनीति के तहत होता है क्योंकि बाढ़ की भी अपनी राजनीति व अर्थशास्त्र होता है।
हर साल बाढ़ के आने के साथ ही चुनावी पार्टियों द्वारा एक-दूसरे पर लांछन लगाने का सिलसिला शुरू हो जाता है। केन्द्र से अरबों रूपये की राशि प्रभावित राज्यों को भेजी जाती है। और यदि बाढ़ का पूर्वानुमान लगने पर इसको नियंत्रित कर जान–माल की हानि को रोका जायेगा तो यह अरबों रुपया कैसे इन नेताओं और मंत्रियों की जेब को गर्म कर पायेगा।
आज तो मानवता के पास बाढ़ आने पर उसे रोकने की समझ, विशेषज्ञता और तकनीक मौजूद है। आज विज्ञान ने तमाम ऐसे रास्ते खोज निकाले हैं जिसके जरिये बाढ़ जैसी आपदाओं से निजात मिल सकती है। तो फ़िर क्यों इन सबके बावजूद केवल इन्तज़ार किया जाता है कि हर साल बाढ़ आए, लोग डूबें, बेघर हों, बरबाद हों और फ़िर तमाम चुनावी घड़ियाल उस पर आँसू बहाएँ और ‘‘जनसेवा’’ के नाम पर जितनी मलाई बटोरना चाहें, उतनी बटोरें। निश्चित तौर पर बाढ़ को रोकने के लिए दीर्घकालिक योजनाएं बनाने की आवश्यकता होती है जिसमें तात्कालिक तौर पर मुनाफ़ा नहीं कमाया जा सकता है। पूँजीवादी तंत्र ऐसी परियोजनाओं में निवेश करना ज़रूरी नहीं समझता जिसका फ़ायदा देर में मिले। अगर वे इन आवश्यकताओं पर गौर करेंगे तो बाज़ार में पूँजीपतियों की गलाकाटू प्रतिस्पर्धा में पीछे छूट जायेंगे।
बाढ़ से जान और माल का नुकसान तो होता ही है पर बाढ़ जाने के बाद भी मौत का ताण्डव जारी रहता है। लाखों लोग बाढ़ से होने वाली बीमारियों की चपेट में भी आ जाते हैं। इसकें अतिरिक्त भारी पैमाने पर फ़सलें तबाह हो जाती हैं, हज़ारों की संख्या में ग़रीब किसान सड़कों पर आ जाते हैं। हममें से कई तो अज्ञानतावश यह मान लेते हैं कि बाढ़ तो प्रकृति का कहर है। भला इसमें बेचारी सरकार क्या कर सकती है लेकिन अगर बाढ़ के कारणों की जाँच करें तो समझ में आता है कि यह कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है और इससे बचा जा सकता है।
हमारे देश में बाढ़ के कई कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि पूँजीवादी व्यवस्था में लगातार प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया जाता है। मुनाफ़े की अन्धी हवस में पूँजीपति और ठेकेदार लगातार जंगलों को साफ़ करते हैं। पेड़ों के कटने से गाद (सिल्ट) जमा होने की समस्या की शुरूआत होती है। दरअसल पहाड़ की ढलान पर लगे पेड़ बारिश होने पर मिट्टी को भारी मात्रा में बहकर नदियों में जाने से रोकते हैं। लेकिन पेड़ों की हो रही कटाई के कारण यह प्रक्रिया कमज़ोर पड़ती है और नदियों में सिल्ट जमा होने की गति तेज़ हो जाती है और बारिश के मौसम में बाढ़ की समस्या हो जाती है।
दूसरा कारण यह है कि बारिश हर जगह समान मात्रा में नहीं होती है। कहीं ज़्यादा तो कहीं कम। विज्ञान ने इस समस्या के समाधान का रास्ता बहुत पहले ही खोज निकाला। असमान जल प्रवाह और जलस्तरों का समरूपीकरण करने के लिए नहरों से नदियों को जोड़ने की योजना नेहरू के काल में ही बन गयी थी। इसे ‘‘गारलैण्ड कैनाल’’ योजना का नाम दिया गया था। इसके तहत देश की कई नदियों को नहरों से जोड़ा जाना था जिसके ज़रिये अन्य हिस्सों की नदियों में जल स्थानान्तरित हो जाता और इससे कुल मिलाकर जलस्तर उतना नहीं बढ़ता जिससे बाढ़ आ सके। इसके विपरीत जहाँ जल स्तर कम होता, वहाँ इस प्रक्रिया से सामान्य हो जाता। यानी न कहीं बाढ़ आती और न ही कहीं सूखा पड़ता।
इसके अलावा उत्तर व पूर्व भारत के अधिकांश हिस्सों में आने वाली बाढ़ की एक वजह नेपाल से आने वाली नदियाँ है जो नेपाल के पहाड़ों से बहुत सारी सिल्ट बहाकर भारत की नदियों में लाती है। इसके लिए 1954 में गठित गंगा आयोग ने ‘जलकुण्डी योजना’ के तहत नेपाल की नदियों से आने वाली सिल्ट को रोकने के पानी की भारी मात्रा को नेपाल में रोककर बाँधों पर जलविद्युत (हाइड्रो इलेक्ट्रिक) परियोजनाएँ लगाने का इरादा था। इस योजना से दोनों ही देशों (भारत और नेपाल) को फ़ायदा होता। इस योजना पर करीबन 33 करोड़ का खर्च होने वाला था। पर सरकार ने इस योजना में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। आज अगर इस योजना में को लागू करना हो तो कम से कम 150 करोड़ की लागत लगेगी, पर फ़िर भी यह खर्च बाढ़ से राहत के नाम पर किए जाने वाले खर्च से कहीं कम है। 1976 में गठित राष्ट्रीय बाढ़ आयोग (नेशनल फ्लड कमीशन) ने नदियों के तल से सिल्ट हटाने का सुझाव दिया था और साथ ही जलकुण्डी योजना को लागू करने का सुझाव भी दिया था। पर इसमें से किसी भी सुझाव पर गौर नहीं किया गया। ऐसा भी नहीं है कि अगर आज ऐसे आयोगों का गठन होता है तो परिवर्तन की कोई उम्मीद की जा सकती है। इस व्यवस्था के केन्द्र में मानव आवश्यकता नहीं बल्कि मुनाफ़ा है, इसी कारण ऐसी आपदाओं को रोकना तो दूर आपदाओं के बाद लाशों पर भी मुनाफ़ा कमाने की होड़ में बेशर्मी से जुट जाना ही इस व्यवस्था का काम है। आज अगर बाढ़ को रोकने के लिए सिल्ट को हटाने से लेकर, नदियों को आपस में जोड़ने और वृक्षारोपण के काम को पूरी योजनाबद्धता के साथ किया जाए तो करोड़ों हाथों को रोज़गार मिल पाएगा। यही नहीं नदियों के तल में जो सिल्ट जमा होती है वह काफ़ी उपजाऊ होती है, जिससे ऊँचे-ऊँचे प्लेटफ़ार्म बनाए जा सकते हैं जिस पर टाउनशिप और गाँव बसाए जा सकते है। लेकिन इस व्यवस्था में किसी भी आवश्यक काम में पूँजीपति या सरकार निवेश करने को तैयार नहीं होती। लाखों लोगों को बिलखने और बरबाद होने के लिए छोड़ दिया जाता है ताकि इस बरबादी से भी मुनाफ़ा कमाने का कोई भी मौका पूँजीपति या नेता न गँवाए। इसलिए बाढ़ कोई प्राकृतिक आपदा नहीं है बल्कि इसी मानवद्रोही व्यवस्था द्वारा निर्मित एक आपदा है और तब तक इससे निजात नहीं मिल सकता है जब तक कि यह व्यवस्था बनी रहेगी।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2008
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!