गुण्डे चढ़ गये हाथी पर–मूँग दल रहे छाती पर!
सर्वजनहित की यह कैसी माया है?

शिशिर

हत्‍यारा विधायक शेखर तिवारी

हत्‍यारा विधायक शेखर तिवारी

हाल ही में उत्तर प्रदेश में एक बसपा विधायक शेखर तिवारी द्वारा धन वसूली के लिए लोकनिर्माण विभाग के एक इंजीनियर मनोज गुप्ता की नृशंस हत्या से सारे प्रदेश ही नहीं बल्कि पूरे देश की जनता स्तब्ध रह गयी। अभी ज़्यादा दिन नहीं हुए थे जब मायावती के नेतृत्व में बसपा ने चुनावों में भारी विजय हासिल करते हुए बहुमत हासिल किया था और अपने दम पर सरकार बनाई थी। उस समय तमाम अखबारों में मायावती की इस विजय को राजनीतिक विश्लेषकों ने उत्तर प्रदेश की राजनीति में एक नये अध्याय के रूप में देखा था और कहा था कि इससे प्रदेश की राजनीति में एक नया मोड़ आएगा। कइयों का मानना था कि बसपा की बढ़ती ताकत और उभार राजनीति के गलियारों में दलितों की धमक और आहट है। कुछ दलित राजनीतिक चिन्तक और विश्लेषक इस विजय पर जश्न और उल्लास में डूब गये थे। कुछ ऐसे ईमानदार लोग भी थे जो सपा के शासन में गुण्डों और अपराधियों के राज से तंग आ गये थे और उन्हें मायावती में इस स्थिति से निकलने का रास्ता तक नज़र आने लगा था। इसी भावना की लहर पर सवारी के उद्देश्य से मायावती ने चुनाव में नारा दिया था “चढ़ गुण्डन की छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर”।

लेकिन जैसे-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे साफ़ होता गया कि सपा के शासन से बसपा के शासन में शायद एक अक्षर के फ़र्क से अधिक कुछ भी नहीं है। बसपा शासन के इतने वक़्त बीतने के बाद ही साफ़ हो चुका है कि अब प्रदेश की आम जनता को गुण्डागर्दी और लूट का सामना और भी अधिक करना पड़ रहा है। गुण्डागर्दी के साथ-साथ अब प्रदेश की मुख्यमन्त्री की निरंकुशता और स्वेच्छाचारिता का भी उसे सामना करना पड़ रहा है। मनोज गुप्ता की हत्या इसी बात का एक प्रमाण थी। ज्ञात हो कि इस इंजीनियर की हत्या मायावती के जन्मदिन की तैयारी के लिए की जाने वाली वसूली के तहत की गई। मनोज गुप्ता से बसपा विधायक शेखर तिवारी ने लाखों रुपयों की तगड़ी माँग की जिसे न देने की कीमत मनोज गुप्ता को अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। शेखर तिवारी ने अपने गुण्डों के साथ मिलकर पहले गुप्ता की बेरहमी से उनके घर में पिटाई की और फ़िर पुलिस स्टेशन ले जाकर भी उन्हें बुरी तरह से पीटा और बिजली के झटके दिये। उनके मृत शरीर पर गम्भीर चोटों के 32 निशान और बिजली के झटके दिये जाने के निशान मिले। बिजली के झटकों के कारण उनके मस्तिष्क में रक्तस्राव हुआ और उनकी मृत्यु हो गयी। इसके बाद पूरे प्रदेश में जनता का गुस्सा फ़ूट पड़ा। लोग जगह-जगह सड़कों पर उतर आए और इस आक्रोश के फ़ूटने का पूरा लाभ उठाने के लिए मरते-कराहते विपक्षी दल भी आगे आ गये। जनता को समझ में आ गया था कि गुण्डों की छाती पर चढ़ना तो दूर, बसपा के विधायक और सांसद स्वयं धनवसूली के लिए गुण्डागर्दी और अपराध के सारे रिकॉर्ड तोड़ रहे हैं। अब बसपा के लिए नारा कुछ यूँ हो गया था-“गुण्डे चढ़ गये हाथी पर, मूँग दल रहे छाती पर!”

ग़ौरतलब है कि बसपा के शासन के आने के बाद से बसपा के चार विधायकों, एक सांसद और 2 मंत्रियों को आपराधिक मामलों के तहत गिरफ्तार किया गया है। गुण्डागर्दी और अपराध के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ने के नाम पर और दलितों के ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों को रोकने और उनकी स्थिति में सुधार के नाम पर सत्ता में आई बसपा ने मायावती के नेतृत्व में 23 ऐसे लोगों को टिकट दिया जो अपनी आपराधिक पृष्ठभूमि के कारण पूरे प्रदेश में कुख्यात हैं। मुलायम सिंह की सरकार में जितने गुण्डे राज कर रहे थे, चुनाव से ठीक पहले वे पाला बदल करके बसपा में आ चुके थे। डी.पी. यादव, उमाकान्त यादव, मदन भैया, धनंजय सिंह, अरुण शंकर शुक्ला उर्फ़ अन्ना, अफ़जल अंसारी और अतीक अहमद ऐसे ही कुछ नाम हैं। बसपा सरकार का असली चरित्र सामने आना शुरू होने में बहुत समय नहीं लगा। इससे पहले एक बसपा के व्यक्ति द्वारा एक स्त्री के यौन उत्पीड़न का मामला सामने आया। लोकजनशक्ति पार्टी से जुड़े एक प्रॉपर्टी डीलर की बसपा विधायक मधुसूदन शर्मा और ऊर्जा मंत्री रामवीर उपाध्याय ने धन वसूली के लिए हत्या कर दी। ये तो सिर्फ़ कुछ उदाहरण हैं। मायावती ने कहा था कि इस बार उनका जन्मदिन संजीदगी से मनाया जाएगा! अब खुद ही सोचिये कि जब संजीदगी से जन्मदिन मनाने के लिए धन वसूली करने पर ऐसी घटनाएँ सामने आ रही हैं तो धूम-धाम से जन्मदिन मनाने पर उत्तर प्रदेश की मैरी एण्टॉइनेट मायावती ने क्या किया होता!

इन सारी घटनाओं ने एक बात साफ़ कर दी है। बसपा का शासन आने का अर्थ प्रदेश के दलितों का शासन आना कतई नहीं है। ज्ञात हो कि मुलायम सिंह के पूरे शासन काल में दलितों के ख़िलाफ़ जितने अपराध हुए थे उतने दलित-विरोधी अपराध मायावती के शासन में अभी तक ही हो चुके हैं। दलितों, जिनकी बड़ी आबादी खेतिहर व औद्योगिक मज़दूर है, को आज भी उसी आर्थिक और सामाजिक शोषण और उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है जिसका सामना वे सदियों से करते आए हैं। तमाम वामपंथी चिन्तक तक मायावती को दलितों का एक “त्रुटिपूर्ण” प्रतिनिधि मानते हैं और इसी बात पर गिल्ल रहते हैं कि चलो किसी दलित की बेटी आज उत्तर प्रदेश पर राज कर रही है! यही अपने आप में दलितों के उत्थान का एक मानक है! लेकिन यह एक दिवालिया समझदारी है। कोई किस घर में पैदा हुआ है इससे तय नहीं होता कि वह आगे किसकी नुमाइंदगी करेगा। यह इस बात से तय होता है कि वह किसका पक्ष चुनता है। मायावती के नेतृत्व में बसपा सरकार वास्तव में किसका प्रतिनिधित्व करती है? इसका जवाब साफ़ है। यह सरकार भी उन्हीं वर्गों की नुमाइंदगी करती है जिनकी नुमाइंदगी सपा या कांग्रेस की सरकार करती। प्रदेश के पूँजीपतियों, ठेकेदारों, धनी किसानों और दलालों की! मायावती ने सत्ता में आने के बाद हमेशा ही उद्योगपतियों की पूरी वफ़ादारी के साथ सेवा की है। गंगा एक्सप्रेस हाईवे के पीछे की पूरी राजनीति और विवाद ने भी यही तथ्य उजागर किया है। भ्रष्टाचार में भी मायावती सरकार किसी से पीछे नहीं है जैसा कि ताज कॉरिडॉर मामले से झलका था। साथ ही मायावती की सरकार दलितों के बीच पैदा हुए एक उच्च मध्य वर्ग और धनाढ्य वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है जो आरक्षण के लगभग तीन दशक बीतने के बाद नौकरशाही में प्रवेश पा चुका है या अन्य रूप में सामाजिक पदानुक्रम में ऊपर की सीढ़ियों पर खड़ा हो चुका है। प्रदेश की एक भारी दलित आबादी जो खेतों-खलिहानों में खट रही है, शहरों में छोटे-मोटे काम करके गुज़ारा कर रही है, या कल-कारखानों में खट रही है वह किसी भ्रम में या फ़िर किसी और विकल्प के न होने की सूरत में मायावती को वोट भले डाल आती हो, लेकिन उसके हितों से मायावती की सरकार का कोई लेना-देना नहीं है। इस बात की अहसास के लिए एक बार मायावती का पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आना बेहद ज़रूरी था। वह हो चुका है और उसके नतीजे भी सामने हैं।

आम घरों से आने वाले दलित नौजवानों को यह समझ लेना चाहिए कि बसपा और मायावती की माया बस एक धोखे की टट्टी है। यह भी उतनी ही वफ़ादारी से प्रदेश के दबंग शासक वर्गों, गुण्डों और ठेकेदारों की सेवा करती है। इस बात को आम जनता अब धीरे-धीरे समझने भी लगी है। मनोज गुप्ता की हत्या के बाद जिस कदर जनता प्रदेश में और ख़ास तौर पर औरैया में सड़कों पर उतरी उसे देखकर साफ़ अन्दाज़ा लगाया जा सकता था कि यह सिर्फ़ एक इंजीनियर की आपराधिक हत्या के जवाब में पैदा हुआ गुस्सा नहीं था। यह पूरी शासन–व्यवस्था और बसपा सरकार की नंगी गुण्डई, भ्रष्टाचार और तानाशाही के ख़िलाफ़ सड़कों पर उतरने वाले लोग थे जो मौजूदा व्यवस्था से तंग आ चुके हैं और किसी परिवर्तन की बेचैनी से तलाश कर रहे हैं। आज ऐसा कोई विकल्प मौजूद नहीं है जो इस जनअसन्तोष को एक सही दिशा देते हुए रचनात्मक दिशा में मोड़ सके। लेकिन मनोज गुप्ता हत्याकाण्ड और उसके बाद जनता के सड़कों पर उतरने से दो बातें उजागर हो गयी हैं। एक, बसपा शासन पहले के किसी भी शासन से भिन्न नहीं है और यह ग़रीब दलितों के हितों की नुमाइंदगी तो कतई नहीं करता है। मायावती एक निरंकुश, स्वेच्छाचारी शासक सिद्ध हो रही हैं। उनके तानाशाहाना रवैये से उनकी पार्टी के अपराधी, गुर्गे और नौकरशाह ही नहीं बल्कि जनता भी तंगहाल है, जैसा कि मायावती द्वारा मुलायम सरकार के दौरान सरकारी नौकरियों में की गई कई भर्तियों को रद्द करने के समय सामने आया था।  दूसरी बात यह है, जनता व्यापक रूप में से बसपा शासन से तंग है और जिन लोगों ने किसी भ्रम में बसपा को वोट दिया था वे भी इस बात को समझने लगे हैं कि बसपा और किसी भी अन्य पार्टी में उतना ही फ़र्क है जितना कि नागनाथ और साँपनाथ में हो सकता है।

बसपा सरकार की असली रंगत का सामने आना एक सकारात्मक घटना है। सर्वजन हित के इस मॉडल से सर्वजन तंग आ चुका है। अच्छा ही हुआ कि लोग यह समझने की दिशा में आगे बढ़ेंगे कि विकल्प मौजूदा पूँजीवादी चुनावबाज़ पार्टियों में से किसी एक को चुनने में नहीं है, बल्कि जनता का अपना क्रान्तिकारी विकल्प बनाने में निहित है। उत्तर प्रदेश के आम छात्रों और नौजवानों के लिए इसमें एक ज़रूरी सबक निहित है जो बसपा सरकार और मायावती सरकार की तानाशाही को उस समय से झेल ही रहे हैं जब इस सरकार ने छात्रसंघ चुनावों पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। अब उनमें से जो बसपा और मायावती को लेकर किसी भी प्रकार के भ्रम में होंगे, उनके मोहभंग की उम्मीद की जा सकती है।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2009

 

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