पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकारों द्वारा फैलाये जाने वाले बेरोज़गारी के “कारणों” की पड़ताल
इन्द्रजीत
पूँजीवादी व्यवस्था स्वयं ही बेरोज़गारी के लिए ज़िम्मेदार होती है। किन्तु हर वर्ग समाज की तरह पूँजीवादी व्यवस्था की सेवा में लगा बौद्धिक तबका भी व्यवस्था की कमियों का ठीकरा या तो परिधिगत कारणों पर फोड़ता है या फ़िर उल्टा आम जनता को ही समस्याओं का ज़िम्मेदार ठहरा दिया जाता है। इसी तरह से बेरोज़गारी के असल कारणों को छिपाने के लिए भी समाज में विभिन्न प्रकार के विभ्रम फैलाये जाते रहते हैं। बेरोज़गारी के लिए होने वाले मिथ्या प्रचारों में से कुछ तो बेहद ही बचकाने होते हैं जिन्हें समझना कोई मुश्किल नहीं है पर कुछ को समझने के लिए थोड़ी दिमाग़ी कसरत की भी दरकार होती है। मज़ेदार बात यह है कि जब सामन्तवाद के साथ शुरुआती पूँजीवादी जनवादी क्रान्तियों के संघर्ष हो रहे थे उस समय बुर्जुआ वर्ग के बुद्धिजीवी यह प्रचारित करते हुए नहीं थकते थे कि सामन्तवाद ऐसी व्यवस्था नहीं है जो सदा-सर्वदा के लिए अस्तित्वमान रहे बल्कि वे इसे भी अन्य पुरानी व्यवस्थाओं की तरह ही विनाशसील/पतनशील ठहराते थे। किन्तु जैसे ही पूँजीवाद अस्तित्व में आया तो इसके बुद्धिजीवी भूलकर भी यह नहीं कहते कि पूँजीवाद की जगह आने वाले समय में कोई नयी व्यवस्था उदित होगी।
जिस तरह से वर्ग समाज की हर व्यवस्था में ही उसके निषेध के तत्त्व निहित होते हैं ठीक वैसे ही पूँजीवाद का निषेध भी इसके अन्दर से ही पैदा हुआ है! उल्टा पूँजीवादी व्यवस्था के पैरोकार बुद्धिजीवियों का ज़ोर इसी बात पर रहता है कि कैसे-न-कैसे पूँजीवाद को अजर-अमर साबित कर दिया जाये। अब तो बस पूँजीवाद को ही मानव विकास के इतिहास की अन्तिम व्यवस्था घोषित किया जा चुका है! परन्तु इतिहास के रथ के पहिये शोषक वर्गों और उनके भोंपुओं के लाख प्रयासों के बाद भी रुके कहाँ हैं! डार्विन का विकासवाद और सर्वोत्तम की उत्तरजीविता का सिद्धान्त -जोकि प्रजातियों में लागू होता है न कि एक ही प्रजाति के अन्दर- को बड़े ही शौक के साथ मानव समाज पर लागू कर दिया जाता है! असमानता, गैरबराबरी, लूट, शोषण, बेरोज़गारी का ठीकरा मेहनतकश वर्ग को काहिल, कामचोर, आलसी, निकम्मा बताने के रूप में उन्हीं के ऊपर फोड़ दिया जाता है। यह कत्तई नहीं बताया जाता कि थोपी गयी ग़रीबी वह अभिशाप होती है जो आम जनता के पैरों की बेड़ियाँ बन जाती है; प्रतिभाओं को भ्रूण रूप में ही कुचल दिया जाता है; नया सीखने और अपने कौशल को निखारने-माँजने के समय करोड़ों नौनिहाल मेहनत-मशक्कत के लिए मज़बूर कर दिये जाते हैं। यही नहीं और बहुत तरह के झूठ बोले जाते हैं ताकि शोषण और लूट के असल कारण छिपे रहें।
हमारे यहाँ भी समाज में बढ़ती बेरोज़गारी के असली कारणों पर पर्दा डालने के लिए मिथ्या तर्क गढ़े जाते हैं। इन मिथ्या तर्कों को पूँजीवादी व्यवस्था का मीडिया और वर्चस्वकारी तंत्र लोगों की आम राय बनाने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ता। शासक वर्ग के विचार और राय आम जन के विचार और राय बना दिया जाते हैं। विभ्रमों को सच मान लिया जाता है और लुटेरी व्यवस्था स्वयं को दीर्घजीवी बनाने में सफल रहती है। सच्चाई पर झूठ की बार-बार परत चढ़ाई जाती है और व्यवस्था हर नयी परत के साथ स्वयं को पुनर्नवा पाती है। हम अपनी पड़ताल कुछ चिरपरिचित बेहद आम जुमलों से शुरू करते हैं।
क्या बेरोज़गारी के लिए “जनसँख्या वृद्धि” ज़िम्मेदार है?
बेरोज़गारी के संकट का ज़िम्मेदार जनता को ही ठहराने के लिए सबसे ज़्यादा उचारा जाने वाला जुमला होता है, “जनसँख्या बहुत बढ़ गयी है, संसाधन हैं नहीं! अब ‘बेचारी’ सरकार किस-किसको रोज़गार दे!” किन्तु अफ़सोसजनक बात यह है कि इस जुमले में कोई दम नहीं है और यह झूठ के सिवाय कुछ भी नहीं है। कोई भी वस्तु जब कम या ज़्यादा होती है तो वह अन्य वस्तु के साथ तुलना में कम या ज़्यादा होती है। निरपेक्ष में कुछ भी छोटा या बड़ा नहीं होता। इसी तरह जनसँख्या को भी संसाधनों की तुलना में ही देखा जाना चाहिए। उत्पादन का स्वरूप, उपजाऊ ज़मीन, समुद्र, नदियाँ, खनिज पदार्थ इत्यादि की तुलना में ही जनसँख्या को रखा जा सकता है। देश के प्राथमिक क्षेत्र जैसे कि कृषि, खनन, मत्स्य उत्पादन इत्यादि के और द्वितीयक क्षेत्र जैसे कि औद्योगिक उत्पादन में जो बढ़ोत्तरी हुई है वह जनसँख्या की तुलना में कहीं अधिक बैठती है। और जनसँख्या की वृद्धि भी कभी एक समान नहीं होती, वह भी आरोही, सम और अवरोही क्रम से होकर गुजरती है। इस समय भारत की ही जनसँख्या वृद्धि दर में गिरावट दर्ज की गयी है। यानी जनसँख्या बढ़ तो रही है परन्तु घटती हुई दर से। लेकिन उत्पादन के बढ़ने की और संसाधनों के समुचित इस्तेमाल की अभी बहुत सारी सम्भावनाएँ शेष हैं। यही नहीं पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के दौरान निजी मालिकाने के अधीन मुनाफ़े की अन्धी हवस कुदरत का भयंकर विनाश करके उत्पादन क्षमता का गला ही घोंट रही है।
सच सामने है! खाद्यान्न उत्पादन में न केवल हमारा देश आत्मनिर्भर है बल्कि यहाँ पर पैदा होने वाला लाखों टन अनाज गोदामों में पड़ा-पड़ा सड़ भी जाता है। कृषि उत्पादन के मामले में यदि देखा जाये तो भारत के केवल गंगा-यमुना के मैदानों में ही इतना अनाज पैदा होता है कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को बैठाकर खिलाया जा सकता है! 2012 की एक रिपोर्ट के अनुसार तात्कालिक वर्ष में देश में इतना अनाज पैदा हुआ था कि एक बोरी के ऊपर एक बोरी रखकर चाँद तक पहुँचना सम्भव हो जाये। किन्तु उसी साल क़रीब 58 लाख टन अनाज गोदामों में सड़ गया। यह केवल 2012 की नहीं बल्कि हर साल की बात है। स्थिति साफ़ है जनसँख्या की बढ़ोत्तरी की अपेक्षा खाद्यान्न और कृषि उत्पादन में होने वाली बढ़ोत्तरी कहीं अधिक है।
अब आते हैं रिहायश के लिए भूमि की उपलब्धता की बात पर। भारत एक विशाल देश है। आबादी और रिहायश का मोटा अनुमान हम आपके सामने रख रहे हैं। इस समय पूरी दुनिया की आबादी 7.6 अरब के क़रीब है। भारत के दो राज्यों महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश का क्षेत्रफल 8000 अरब वर्ग फीट है। हम एक परिकल्पना करते हैं और दो राज्यों की इस भूमि को समतल मान लेते हैं। यदि एक परिवार में 4 सदस्य मानें तो इस लिहाज़ से पूरी दुनिया की आबादी को भारत के कुल दो राज्यों में बसाया जा सकता है। यही नहीं प्रत्येक परिवार के घर का आकर 4200 वर्ग फीट से भी ज़्यादा होगा। आपकी जानकारी के लिए बता दें कि शहरों में उच्च आय श्रेणी वालों के ‘एचआईजी फ्लेट’ भी 1240 वर्ग फीट के ही होते हैं। अगर बहुमंजिला ईमारत की तकनीक का इस्तेमाल करें तो यह और भी कम क्षेत्रफल में सम्भव है। साथ ही अगर रिहायश के साथ मूलभूत सुविधाओं और परिवहन के लिए सड़कों को भी शामिल कर दें तो भी आबादी को भारत के कुछ राज्यों में ही बसाया जा सकता है। खेती-उद्योग से लेकर तमाम अन्यान्य गतिविधियों के लिए शेष दुनिया का क्षेत्रफल तो रहेगा ही! क्यों, खा गये न चक्कर? बात एकदम स्पष्ट है कि रिहायश की कमी का सम्बन्ध जनसँख्या से न होकर पूँजीवादी लूट से है।
मालिकाने की निजी व्यवस्था होने और उत्पादन का स्वरूप पूँजीवादी होने से इस भौतिक उत्पादन की बढ़ोत्तरी में आम जनता को क्या मिला और समाज के ऊपरी धनी तबके के हिस्से में कितना आया यह एक अलग चर्चा का विषय है किन्तु यह साफ़ है कि जनसँख्या की तुलना में संसाधनों की कोई कमी नहीं है। असल दिक्कत उत्पादन के सामाजिक स्वरूप और मालिकाने के निजी स्वरूप के अन्तर्विरोध के कारण है। उत्पादन समाज की ज़रूरत की बजाय मुनाफ़े को केन्द्र में रखने की वजह से है। तकनीक और विज्ञान की हर प्रगति का इस्तेमाल मुनाफ़ा बढ़ाने के लिए आम जन को बेरोज़गार करने के लिए होता है। इस बात के भी कुछ ठोस सुबूत हम आगे आपके समक्ष रखेंगे।
कोई जब पैदा होता है तो पेट लेकर ही नहीं बल्कि दो हाथ लेकर भी पैदा होता है! असल में व्यवस्था खुद को बचाने के लिए जनसँख्या को समस्या के तौर पर चित्रित करती है। असल में तो पूँजीवादी समाज में बेरोज़गारों की फ़ौज पूँजीपति के लिए एक ‘अच्छी’ चीज़ है क्योंकि यह शोषण में मदद करती है और बेरोज़गारी की आपा-धापी में मज़दूर सस्ते से सस्ते मोल में काम करने के लिए तैयार हो जाते हैं। पर यह सरकार के लिए शर्मिन्दगी का विषय भी है क्योंकि इसके कारण उसका तथाकथित सभ्य देश असभ्य दिखायी पड़ता है। साथ ही, जनता सबको रोज़गार देने की माँग उठाकर सरकार को मुश्किल में भी डाल सकती है। इस स्थिति से उबरने के लिए बुर्जुआ वर्ग की सेवा में लगे कुछ बुद्धिजीवियों ने पूँजीवादी व्यवस्था को सही ठहराने के लिए कई फ़र्ज़ी सिद्धान्त गढ़े। उन्नीसवीं शताब्दी के शुरू में एक अंग्रेज़ अर्थशास्त्री माल्थस द्वारा दिया गया “जनसंख्या का सिद्धान्त” भी ऐसा ही एक फ़र्ज़ी सिद्धान्त था।
माल्थस ने एक धूर्ततापूर्ण तर्क प्रस्तुत किया। उसने कहा कि जनसंख्या ज्यामितीय क्रम में (1, 2, 4, 8…) बढ़ती है जबकि आजीविका के साधन अंकगणितीय क्रम में (1, 2, 3, 4…) बढ़ते हैं। उसने तर्क दिया कि “फालतू” आबादी, बेरोज़गारी और जनता की ग़रीबी का मूलभूत कारण यही है। इस तर्क का मकसद यह समझाना था कि बेरोज़गारी और ग़रीबी पूँजीवादी व्यवस्था की बुराइयाँ नहीं बल्कि प्रकृति के नियम का परिणाम है। माल्थस के अनुसार युद्ध और महामारियाँ मानव समाज के लिए वरदान हैं। युद्धों और महामारियों में बड़ी संख्या में लोग मरते हैं जिससे फालतू आबादी के नकारात्मक प्रभाव कम होते हैं और जनसंख्या में वृद्धि आजीविका के साधनों में वृद्धि के अधिक अनुकूल हो जाती है।
लेकिन तथ्य तर्कों से ज़्यादा ताक़तवर होते हैं। माल्थस के प्रतिक्रियावादी “जनसंख्या के सिद्धान्त” में ज़्यादा दम नहीं है। जनसंख्या में ज्यामितीय वृद्धि और आजीविका के साधनों में अंकगणितीय वृद्धि दिखाने वाला यह फ़र्ज़ी विज्ञान अस्तित्व में कैसे आया? दरअसल हुआ यह था कि माल्थस ने एक ख़ास दौर में अमेरिका की जनसंख्या में हुई वृद्धि को जनसंख्या वृद्धि की दर का आधार बनाया। उसने एक ख़ास दौर में फ्रांस में खाद्यान्न उत्पादन में हुई वृद्धि को आजीविका के साधनों में वृद्धि की दर का आधार बनाया। उस समय अमेरिका की जनसंख्या में तेजी से हुई वृद्धि का कारण जनसंख्या की स्वाभाविक बढ़त नहीं था बल्कि बड़ी संख्या में अप्रवासियों के आने जैसे कारण इसके लिए ज़िम्मेदार थे। जहाँ तक फ्रांस के खाद्यान्न उत्पादन का सवाल है, यदि इसकी तुलना फ्रांस की जनसंख्या में हुई वृद्धि से की जाये, न कि अमेरिका की जनसंख्या वृद्धि से, तो यह जनसंख्या वृद्धि से कम नहीं, बल्कि ज़्यादा ही थी। 1760 में फ्रांस की जनसंख्या 21 लाख थी। प्रति व्यक्ति औसत खाद्यान्न उत्पादन 450 लीटर था। अस्सी वर्ष बाद 1840 में फ्रांस की जनसंख्या बढ़कर 34 लाख हो गयी, यानी इसमें 62 प्रतिशत की वृद्धि हुई। पर खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि उससे भी तेज़ गति से हुई। 1840 में फ्रांस में प्रति व्यक्ति औसत खाद्यान्न उत्पादन 832 लीटर था यानी इसमें 85 प्रतिशत की वृद्धि हुई। कई अन्य पूँजीवादी देशों के आँकड़ों से स्पष्ट है कि जनसंख्या में वृद्धि आजीविका के साधनों में वृद्धि से ज़्यादा नहीं थी। इसके विपरीत, आजीविका के साधनों में वृद्धि जनसंख्या वृद्धि से कहीं ज़्यादा थी। फिर भी मेहनतकश जनता बेहद ग़रीब थी और उसकी दशा शोचनीय थी। तथाकथित निरपेक्ष अतिरिक्त आबादी के तर्क से पूँजीवादी व्यवस्था की बुराइयों को ढँकने की माल्थस की कोशिश एक निष्फल प्रयास था। लेकिन अशिक्षा और अज्ञानता के कारण हमारे देश में अब भी बहुत बड़ी आबादी इस तर्क से प्रभावित है और मानती है कि बेरोज़गारी तथा ग़रीबी का कारण यह पूँजीवादी व्यवस्था नहीं, बल्कि देश की बढ़ती आबादी है।
प्रमुख खाद्यान्नों और जनसँख्या बढ़ोत्तरी की तुलना आप तालिका-1 से आसानी से समझ सकते हैं।
1950-51 से लेकर 2010-11 तक प्रमुख खाद्यान्न उत्पादन और जनसँख्या में हुई वृद्धि का दशवार ब्यौरा, उत्पादन और जनसँख्या वृद्धि का प्रतिशत 1950-51 और 2010-11 के बीच है :- 1950-51 1960-61 1970-71 1980-81 1990-91 2000-01 2010-11 बढ़ोत्तरी% 1.कुल खाद्यान्न उत्पादन* 50.8 82.0 108.4 129.6 176.4 196.8 244.5 381.3 *कृषि उत्पादन मिलियन टन में (1 मिलियन = 10 लाख) |
खनन तथा उद्योग के प्रमुख क्षेत्रों में हुए उत्पादन को तालिका-2 से समझा जा सकता है।
खनन और उद्योग के प्रमुख क्षेत्रों का विवरण निम्नलिखित है :-
1950-51 1960-61 1970-71 1980-81 1990-91 2000-01 2010-11 बढ़ोत्तरी%
- कोयला* 32.3 55.2 76.3 119.0 225.5 332.6 570.8 1667.2
- हॉट मेटल* 1.7 4.3 7.0 9.6 12.2 22.6 50.9 2894.1
- क्रूड स्टील* 1.5 3.5 6.1 10.3 Na 30.6 69.57 4538
- फिनिश्ड स्टील* 1 2.4 4.6 6.8 13.5 32.3 66.01 6501
- स्टील कास्टिंग्स** Na 35.0 62.0 71.0 262.0 352.4 1540 4300
- एल्युमिनियम** 4.0 18.5 168.8 199.0 451.1 620.4 790.4 19660
- मशीन उपकरण# 3 8 430 1692 7731 12263 18400 6132333
- कमर्शियल व्हीकल्स## 8.6 28.2 41.2 71.7 145.5 152.0 752.6 8651.2
- सीमेण्ट* 2.7 8.0 14.3 18.6 48.8 99.2 209.7 7666.7
- कॉटन वस्त्र& 4215 6738 7602 8368 15431 19718 31742 653.1
- चीनी** 1134 3029 3740 5148 12047 18510 24350 2047.3
- चाय** 277 318 423 568 705 827 967 249.1
- कॉफ़ी** 21 54 71 139 170 313 283 1247.6
- इलेक्ट्रीसिटी जनरेटेड$ 5 17 56 111 264 499 811.1 16122
जनसँख्या (करोड़ में)36.10 43.92 54.82 68.33 84.64 102.87 121.08 237.4
* उत्पादन प्रति मिलियन टन (मिलियन = 10 लाख), ** उत्पादन प्रति हज़ार टन, # उत्पादन प्रति दस लाख रुपये में,
## उत्पादन प्रति दस लाख, & उत्पादन प्रति दस लाख वर्ग मीटर, $ इलेक्ट्रिसिटी जनरेटेड (यूटिलिटीज़) उत्पादन अरब किलोवाट
स्रोत : (1) इकॉनोमिक सर्वे, भारत 2011-12, पृष्ट संख्या 32-34
(2) ऑफिस ऑफ़ द रजिस्ट्रार जनरल ऑफ़ इण्डिया, मिनिस्ट्री ऑफ़ होम अफेयर्स एण्ड इकनोमिक सर्वे 2013-14
क्या बेरोज़गारी के लिए कृषि संकट ज़िम्मेदार है?
कृषि और उद्योग में एक बुनियादी फर्क यह होता है कि कृषि की बजाय उद्योग में उत्पादन की गति तीव्र तथा मुनाफ़े की दर अधिक होती है इसीलिए कृषि और उद्योग में एक सामंजस्य की आवश्यकता होती है। परन्तु यह एक नियोजित अर्थव्यवस्था में ही सम्भव है जहाँ उत्पादन के केन्द्र में इंसान हो न कि मुनाफ़ा। किसानों के आर्थिक हालात पर निर्भर करता है कि किसानों की कौन सी आबादी संकट का शिकार बनेगी और जगह जमीन से उजड़कर बेरोज़गारों की कतार में सबसे पहले पहुँचेगी। 2005-06 की कृषि गणना के अनुसार हरित क्रान्ति के अग्रणी राज्यों में से एक हरियाणा में 67 प्रतिशत भूमि मालिकों के पास 2 हेक्टेयर से कम और 48 प्रतिशत के पास 1 हेक्टेयर से भी कम कृषि भूमि थी। देश के स्तर पर देखा जाये तो 2011 के सामाजिक-आर्थिक सर्वे व 2011-12 की कृषि जनगणना के अनुसार गाँवों के क़रीब 18 करोड़ परिवारों में से 54 प्रतिशत श्रमिक हैं, 30 प्रतिशत खेती, 14 प्रतिशत सरकारी/ग़ैर सरकारी नौकरी, 1.6 प्रतिशत गैर कृषि कारोबार से जुड़े हैं। सिर्फ़ खेती पर निर्भर 30 प्रतिशत आबादी में 85 प्रतिशत सीमान्त और छोटे किसान हैं जिनके पास क्रमशः एक से दो हेक्टेयर और एक हेक्टेयर से कम ज़मीन है। ऊपर के मध्यम और बड़े 15 प्रतिशत किसानों के पास कुल कृषि योग्य ज़मीन का क़रीब 56 प्रतिशत है। स्थिति साफ़-साफ़ दिखायी देती है कि किसानों का बहुत बड़ा हिस्सा रसातल में है तथा छोटी जोत होने के कारण न केवल इस हिस्से की उत्पादन लागत औसत से अधिक आती है बल्कि पूँजी के अभाव में यही हिस्सा कर्ज के बोझ तले भी दबा रहता है। इसमें कोई दोराय नहीं है कि देश की काफ़ी बड़ी आबादी कृषि से जुड़ी है किन्तु औसत जोत का आकार छोटा होने के कारण प्रति व्यक्ति उत्पादकता बेहद कम है, बहुत बड़ी आबादी तो मजबूरी में खेती-किसानी में उलझी हुई है जिसके पास कोई वैकल्पिक रोज़गार नहीं है। इसीलिए बड़ी आसानी से कृषि संकट को बेरोज़गारी के एक बड़े कारण के तौर पर प्रस्तुत कर दिया जाता है।
मुद्दे की बात यह है कि कृषि का संकट बेरोज़गारी के लिए ज़िम्मेदार नहीं है बल्कि बात दरअसल उलटी है! कृषि संकट बेरोज़गारी का कारण नहीं है बल्कि यह तथाकथित कृषि संकट ही पूँजीवादी व्यवस्था की पैदावार है। निश्चित तौर पर पूँजीवादी व्यवस्था के तहत ग़रीब किसान लगातार उजड़ते रहते हैं। किन्तु यह तो पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था का आम नियम ही है! इसमें अचरज कैसा? माल उत्पादक व्यवस्था में वही टिक पाता है जो अपना माल सस्ते में बेचे या जिसकी लागत कम हो। सस्ते में वही बेच सकता है जो उन्नत तकनीक का इस्तेमाल करे व साथ ही उत्पादन बड़े पैमाने का हो। यहाँ बाजी धनी किसान या पूँजीवादी कुलक फार्मर व बड़ी-बड़ी एग्रो बिजनेस कम्पनियाँ ही मार ले जाते हैं। यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि किसान कोई एक जातीय समूह नहीं है जो पुश्तैनी तौर पर खेती-किसानी करने के लिए निर्धारित हो बल्कि अन्य क्षेत्रों में यदि रोज़गार सृजन होगा तो बहुत बड़ी किसान आबादी की निर्भरता खेती पर से स्वयमेव हट जायेगी। औद्योगिक इलाकों में हज़ारों-लाखों की तादाद में किसानों-खेत मज़दूरों के बेटे-बेटियों को आईटीआई, पोलीटेक्निक और तमाम इस तरह के कोर्स करके काम की तलाश करते आसानी से देखा जा सकता है।
इस तथाकथित कृषि संकट से छुटकारा एक नियोजित अर्थव्यवस्था ही दिला सकती है जिसके केन्द्र में मुनाफ़ा नहीं बल्कि इंसानी ज़रूरतें हों। 20 वीं शताब्दी के सोवियत संघ और समाजवादी चीन के प्रयोग इस बात के गवाह हैं। उन प्रयोगों की तात्कालिक असफलता की पड़ताल हमारा विषय नहीं है किन्तु यह बात पक्की है कि कृषि के समाजवादी ढंग के नियोजन ने किसानों के जीवन को न केवल ख़ुशहाल बनाया बल्कि कृषि और उद्योग में भी तालमेल स्थापित किया।
क्या बेरोज़गारी के लिए मशीनीकरण ज़िम्मेदार है?
आपने सुना होगा कि जब मज़दूर वर्ग सचेत नहीं था तो अपनी बेरोज़गारी का कारण वह मशीनों को मान लिया करता था। और गुस्से के इज़हार के तौर पर लोग मशीनों को तोड़ दिया करते थे। यह इतिहास में ल्युड्डाइट आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। किन्तु धीरे-धीरे अपने संघर्षों में मेहनतकशों ने जाना कि बेरोज़गारी के असल कारण क्या हैं। बहुत सारे लोग मशीनीकरण को आज भी बेरोज़गारी का ज़िम्मेदार ठहराते हुए मिल जायेंगे। किन्तु यह असत्य है। श्रम की उत्पादकता तो मशीनीकरण के कारण बढ़ जाती है किन्तु बढ़ी हुई श्रमशक्ति की उत्पादकता का इस्तेमाल मज़दूरों और कामगारों को बेरोज़गार करने के लिए होता है। ऐसे अनगिनत उदाहरण मिल जायेंगे जब उन्नत तकनीक के साथ वही काम सैकड़ों श्रमिक कर दे रहे हैं जिसे करने के लिए पहले हज़ारों श्रमिकों को लगना पड़ता था। 8 घण्टे कार्यदिवस का नारा 1886 में लगाया गया था किन्तु आज श्रम की उत्पादकता देखी जाये तो क़रीबन 1 घण्टा 12 मिनट में औसतन उतना काम हो जाता है जितना कि उस समय औसतन 8 घण्टे में हुआ करता था। श्रम की उत्पादकता तो बढ़ गयी किन्तु श्रम का मूल्य नहीं बढ़ा बल्कि घट गया। आज फैक्टरी कारखानों में 12-12 घण्टे काम लिया जाता है और न ही श्रम कानूनों को लागू किया जाता। हर साल हज़ारों श्रमिक काम करने के बुरे हालात और बदइन्तजामियों के चलते अपनी जान से हाथ धो बैठते हैं। उत्पादन बढ़ने और साथ ही बेरोज़गारी बढ़ने को हम कुछ उदाहरणों से भी आसानी से समझ सकते हैं:
टाटा घराने का जमशेदपुर इस्पात संयन्त्र
वर्ष उत्पादन कुल कर्मचारी
1991 10 लाख टन 85 हज़ार
2005 50 लाख टन 44 हज़ार
नतीज़ा : उत्पादन में 400 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी, श्रम की उत्पादकता में दस गुणा से भी ज़्यादा की बढ़ोत्तरी किन्तु श्रमिकों की संख्या में 48 प्रतिशत की कमी।
टाटा मोटर्स पुणे
वर्ष उत्पादन कुल कर्मचारी
1999 1,29,000 35 हज़ार
2004 3,11,000 21 हज़ार
नतीज़ा : उत्पादन में 141 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी, श्रम की उत्पादकता में चार गुणा बढ़ोत्तरी किन्तु श्रमिकों की संख्या में 40 प्रतिशत की कमी।
बजाज मोटरसाइकिल कारखाना, पुणे
वर्ष उत्पादन कुल कर्मचारी
1995 10,00,000 24 हज़ार
2004 24,00,000 10.5 हज़ार
नतीज़ा : उत्पादन में 140 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी, श्रम की उत्पादकता में छः गुणे से भी अधिक की बढ़ोत्तरी किन्तु श्रमिकों की संख्या में 56 प्रतिशत की कमी।
उत्पादन के उपरोक्त क्षेत्रों में जो परिघटना दिख रही है उसका दोहराव हम उत्पादन में तमाम अन्य क्षेत्रों में भी घटित होते आसानी से देख सकते हैं। मालिक उत्पादकता बढ़ने पर काम के घंटे कम करने की बजाय मज़दूरों की संख्या को ही कम कर देते हैं। उपरोक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि श्रम की उत्पादकता बढ़ने पर पूँजीपति अपने मुनाफ़े की बढ़ोत्तरी के लिए मज़दूरों को काम से बाहर निकालना ही मुनासिब समझते हैं। और यही मुनाफ़े की हवस आगे चलकर आर्थिक मन्दी के तौर पर अभिव्यक्त होती है! सीधी सी बात है पूँजीपति अपने मुनाफ़े को सुरक्षित करने के मकसद से कम से कम खर्चे में अधिक से अधिक मुनाफ़ा निचोड़ लेना चाहते हैं। मशीनीकरण के जरिये वह मजदूरों की छँटनी करता है ताकि ज्यादा मुनाफा कमा सके। मजदूरों की बेशी आबादी यानी बेरोजगार आबादी के जरिये पूँजीपति काम कर रहे मजदूरों की मजदूरी संचालित करता है क्योंकि मजदूरों पर हमेशा यह दबाव रहता है कि अगर उन्होंने हड़ताल की या वेतन बढ़ाने की माँग की तो मालिक उन्हें काम से निकाल कर बेरोजगारों की फ़ौज से लोगों को काम दे देगा। यह बेरोजगारों की फ़ौज एक औद्योगिक सेना के रूप में मौजूद होती है जो मजदूरों की मजदूरी को कम रखने हेतु काम आती है। अर्थात यह इसलिए होता है ताकि पूँजीपतियों का मुनाफ़ा सुरक्षित रहे। इसलिए असल में मुनाफ़े की हवस ही वह कारण है जो लोगों का काम-धन्धा छीनती है न कि मशीनें। असल में विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल जब मानव जीवन की बेहतरी के लिए होने लगेगा तब ही मानव समाज में असल खुशहाली सम्भव होगी। आज मानव समाज की प्रगति न केवल ठहरी हुई है बल्कि विज्ञान और तकनीक का इस्तेमाल समाज के बहुसंख्यक को दीन-हीन बनाने के लिए हो रहा है। साफ़ है बेरोज़गारी का कारण मशीनें नहीं बल्कि स्वयं पूँजीवादी व्यवस्था है।
क्या जातिवादी पेशागत श्रम विभाजन के टूटने के कारण बेरोज़गारी की समस्या पैदा हुई है?
बहुत से लोग नासमझी और जातिवादी मानसिकता के चलते ऐसा भी कहते पाये जाते हैं कि “पहले सभी जातियाँ अपने-अपने पेशों के काम किया करती थीं तो कितनी सुन्दर व्यवस्था थी!! किन्तु आधुनिक काल में पेशे के आधार पर जातिगत तौर पर किये जाने वाले कामों की व्यवस्था टूट गयी तथा इसी के कारण बेरोज़गारी बढ़ी है!” यह बात भी मूर्खता पूर्ण है। आधुनिक पूँजीवादी उत्पादन के दौरान जातिवादी पेशागत श्रम विभाजन को एक हद तक तोड़ने का काम बड़े पैमाने के पूँजीवादी उत्पादन ने किया है जिसे अनुवांशिक श्रम विभाजन में बँधी श्रमिक आबादी की जगह “मुक्त श्रम” की ज़रूरत होती है। लेकिन इससे बेरोज़गारी का कोई सम्बन्ध नहीं है, सवाल यह है कि क्या जितने लोग हैं उस अनुपात में संसाधन मौजूद हैं या नहीं? हम यह देख चुके हैं कि पर्याप्त संसाधन होने के बावजूद भी लोगों को काम नहीं मिलता क्योंकि निजी मालिकाने की व्यवस्था में केंद्र में मुनाफा है! जाति व्यवस्था की एक पंजी अनुवांशिक श्रम विभाजन का टूटना इतिहास की गति का ही नतीजा है जिस प्रकार जाति व्यवस्था का अस्तित्व में आना भी इतिहास की जटिल गति का नतीजा है परन्तु इसका पूँजीवाद जनित बेरोज़गारी की मौजूदगी से कोई सम्बन्ध नहीं! लोहार, कुम्हार, सुनार, चमार इत्यादि इत्यादि जैसी जातियों का छोटे पैमाने का उत्पादन बड़े पैमाने के पूँजीवादी उत्पादन के सामने टिक ही नहीं सकता था। लोहार के हथोड़े और धोंकनी, कुम्हार के चाक और आँवे, बढ़ई के काट और कसौली, जुलाहे के सूत और चरखे के पाँव विराट पूँजीवादी उत्पादन के सामने कभी के उखड़ चुके हैं। लेकिन यह भी सच है कि स्वरोज़गार आधारित पेशों में मसलन धोबी, नाई आदि में जातिगत आधार पर काम होता है परन्तु यह मुख्य प्रवृत्ति नहीं है। हालाँकि इस अनुवांशिक श्रम विभाजन के एक हद तक ख़त्म होने का यह मतलब नहीं कि आज जातिगत उत्पीड़न मौजूद नहीं है असल में दलित जातियों की बहुसंख्या आज भी सामाजिक उत्पीड़न और आर्थिक शोषण का शिकार है। दलित आबादी का बहुलांश मजदूर है। वैसे तो ऐसी घृणित व्यवस्था जो जन्म के आधार पर लोगों के काम निर्धारित कर दे जितनी जल्दी तबाह हो जाये उतना बेहतर हो। विज्ञान-तकनीक-कौशल के हर विकास का इस्तेमाल लोगों की और भी भारी बहुसंख्या को बेरोज़गार करने के लिए किया जाता है। इस पर हम पहले ही बात कर चुके हैं। बेरोज़गारी के संकट का मूल कारण पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में है न कि जाति आधारित श्रम विभाजन की व्यवस्था के छिन्न-भिन्न होने में।
क्या बेरोज़गारी के लिए आरक्षण ज़िम्मेदार है?
अकसर समाज के अलग-अलग तबकों को एक-दूसरे के सामने खड़ा करके और एक-दूसरे को ही एक दूसरे के लिए बेरोज़गारी का कारण बताकर भी पूँजीवाद के हितरक्षक अपना उल्लू सीधा करते हैं। जैसे कि तथाकथित उच्च जातियों के लोगों में यह भ्रम डाला जाता है और लगातार मज़बूत किया जाता है कि बेरोज़गारी का कारण आरक्षण है। इसी तरह से अल्पसंख्यकों को भी रोज़गार के मार्ग में रुकावट बताकर निशाना बनाया जाता है। खासतौर पर रोज़गार हासिल करने की आपाधापी के बीच आरक्षण जैसे मुद्दे सामाजिक तनाव को बढ़ाने में ‘आग में घी का काम’ करते हैं। अपेक्षाकृत कम अंक (‘मैरिट’) के बावजूद भी जब किसी आरक्षित अभ्यर्थी को नौकरी मिल जाती है तो दूसरों को लगता है कि उनके रोज़गार छीनने वाले इसी श्रेणी के उम्मीदवार या विशिष्ट जातियों से आने वाले लोग ही हैं तथा आरक्षित श्रेणी वालों को लगता है कि आरक्षण के लिए कमर कसे हुए लोग दरअसल उनके रोज़गार पर डाका डालने के लिए ही कमर कसे हुए हैं। यह कोई नहीं सोच पाता कि बेरोज़गारी के असल कारण क्या हैं। तमाम जातियों के मेहनत करने वाले लोग एक दूसरे के ख़िलाफ़ दुश्मन के तौर पर खड़े कर दिये जाते हैं। मध्ययुगीन मूल्य-मान्यताओं, घोर जातिवादी नज़रिये के कारण यह भी कोई नहीं सोच पाता कि कितने पद तो आरक्षित श्रेणियों के बीच के भी खाली पड़े रह जाते हैं क्योंकि दलित और पिछड़ी जातियों का बड़ा हिस्सा शिक्षा और रोज़गार की दौड़ में पहले ही पिछड़ चुका होता है। आरक्षण शब्द आते ही देश की आम जनता और ख़ासकर इसकी युवा आबादी का अधिकांश हिस्सा पक्ष और विपक्ष में बँट जाता है। बहुत ही कम लोग होते हैं जो संजीदगी से देश में समय-समय पर आरक्षण के नाम पर लोगों को लड़ाये जाने के असल कारणों को समझ पाते हैं।
आज चारो ओर “रोज़गारविहीन विकास” का बोलबाला है। नौकरियाँ लगातार घट रही हैं और बेरोज़गारी लगातार बढ़ रही है। सरकारी नौकरियाँ पहले से ही ऊँट के मुँह में जीरे के समान थी अब तो वह उससे भी बदतर स्थिति में पहुँच गयी हैं। ऐसे में क्या आरक्षण का प्रतिशत इधर से उधर कर देने पर या फिर आरक्षण समाप्त कर देने या कुछ जातियों को नये सिरे से आरक्षण दे देने पर समस्या का हल दिखता है? हमारा संक्षिप्त जवाब है नहीं। भारत में आरक्षण आज पूँजीवादी शासक वर्ग के हाथ का वह खतरनाक औजार बन गया है जिसमें उन्हें बिना ज्यादा ऊर्जा खर्च किये जनता को बाँटने का अवसर मिल जाता है। इसलिए हमारा मत है कि इस सवाल पर गहराई से विचार किया जाना चाहिए। क्या इस समय हमारे पास एकमात्र विकल्प आरक्षण के पक्ष या विपक्ष में खड़ा होना ही है?
2007-08 के ही एक आँकड़े के अनुसार कुल युवा आबादी में से केवल 7 फ़ीसदी ही उच्च शिक्षा तक पहुँच पाते हैं और अब तो पिछले कई वर्षों में तकनीकी और प्रबन्धन की पढ़ाई के प्रति बढ़े (या बढ़ाये गये क्योंकि अब देशी-विदेशी पूँजीपतियों को सस्ते में कुशल श्रमिक चाहियें) रुझान ने उक्त स्थिति में और भी नकारात्मक प्रभाव डाला होगा। 1 जनवरी 2017 की ही कार्मिक एवं लोक शिकायत मन्त्रालय की रिपोर्ट के अनुसार केन्द्र के एससी, एसटी और ओबीसी वर्ग के लिए आरक्षित 28,713 पद तो अकेले केन्द्र में खाली पड़े हैं। दूसरी ओर पारम्परिक तौर पर कृषि से जुड़ी जातियों की बड़ी आबादी की कृषि के प्रति स्थिति साँप-छछुन्दर वाली हो गयी है। ये खेती को छोड़ें तो सामने बेरोज़गारी का दानव और करें तो भी गुजारा नहीं। पशुपालन पर आश्रित लोगों की अर्थव्यवस्था भी सामूहिक चारागाहों के खत्म होते जाने के कारण संकट में है। कुल मिलाकर छोटे पैमाने की कृषि और पशुपालन दोनों ही घाटे का सौदा हो चुके हैं। आज के दौर में द्रुत गति से छोटी हो रही जोत और संसाधनों में हो रही सिकुड़न किसान जातियों की इस बड़ी आबादी में असुरक्षा व अनिश्चितता को लगातार बढ़ावा देती हैं। वर्ग ध्रुवीकरण तेज़ गति से समाज को दो बड़े खेमों में बाँट रहा है। छोटा सा हिस्सा पूँजीपति जमात का हिस्सा बनता है और बहुसंख्यक उजरती मज़दूर यानी कि ऐसे लोग जिनके पास अपना मानसिक या शारीरिक श्रम बेचने के अलावा ज़िन्दा रहने का कोई चारा ही न हो।
रोज़गार की आपाधापी में मेहनतकशों के बीच फूट डालने के लिए पलीते को चिंगारी देने का काम करते हैं तमाम चुनावबाज पार्टियों से जुड़े वोटों के व्यापारी। बेरोज़गारी के इन भयानक हालात में जातियों का रहनुमा बनने वाला न तो कोई चुनावी नेता और न ही कोई खाप का चौधरी अपने मुखारविन्द से बेरोज़गारी के ख़िलाफ़ व सरकारों की नीतियों के विरोध में कोई बोल-वचन निकालता है और न ही इन हालात से उनके निजी जीवन में कोई फ़र्क पड़ता है क्योंकि अधिकतर के पास या तो बेशुमार दौलत है या फिर बेशुमार ज़मीन-ज़ायदाद और बहुतों के पास तो दोनों ही हैं! आरक्षण के लिए होने वाले संघर्षों में दो तरह के लोग बड़ी ही आसानी से देखे जा सकते हैं; एक तो कीमती गाड़ियों का इस्तेमाल करने वाले और एशो-आराम की ज़िन्दगी जीने वाले बड़े-बड़े पग्गड़धारी और सफ़ेदपोश तथा दूसरी तरफ फ़रसों, गण्डासों, डण्डों और जातीय नफ़रत की आग से लैस ग़रीब आबादी जिसका एक हिस्सा लगातार बढ़ रही बेरोज़गारी और ग़रीबी के संकट के चलते लम्पट भी हो चुका होता है। कहना नहीं होगा कि आरक्षण का मुद्दा भी व्यवस्था के लिए संजीवनी बूटी का काम करता है।
पूँजीवाद ने कामयाबी और काबिलियत दोनों को ही बिकाऊ माल में तब्दील कर दिया है। जिस व्यवस्था में करोड़ों-करोड़ मेहनतकश लोगों को नाकारा और नाकाबिल घोषित कर दिया जाता है क्या इसी तर्क से उस व्यवस्था के नाकारेपन और नाकाबलियत को सिद्ध करना ज़्यादा मुश्किल काम है? असल में वह व्यवस्था ही नाकारा और नाकाबिल है जिसमें करोड़ों लोगों के पास दो जून की रोटी जुगाड़ करने का कोई साधन नहीं है! अतः समझा जा सकता है कि पूँजीवादी व्यवस्था और उसके बुद्धिजीवी किस तरह से व्यवस्था के असल अन्तर्विरोधों की पर्देदारी करते हैं तथा झूठे तर्क गढ़ते हैं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मई-जून 2018
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