16 दिसम्बर; ‘दिल्ली निर्भया काण्ड’ के पाँच बरस : मूल सवाल अब भी ज्यों का त्यों 

अरविन्द

16 दिसम्बर 2012 को हुए ‘दिल्ली निर्भया काण्ड’ को अब पाँच साल हो जायेंगे। उस समय को कौन भूल सकता है जब पूरे देश से लोगों का गुस्सा उबल पड़ा था। निश्चय ही लोगों का क्रोध अकेले निर्भया के हत्यारों और गुनहगारों के प्रति नहीं था बल्कि बहुत समय से एकत्र हो रहा क्रोध इस ह्रदयविदारक घटना पर केन्द्रित होकर फट पड़ा था। और ठीक इसी कारण से 16 दिसम्बर का दिन स्त्री विरोधी अपराधों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध का एक प्रतीक बन गया। उस समय से लेकर अब तक बहुतेरे दिन, महीने और साल बीत गये पर स्त्री विरोधी अपराधों में कितनी कमी आयी है यह सबके सामने है। सबसे निकृष्ट और घृणित अपराध; बलात्कार के 2012 में जहाँ 24,923 मामले दर्ज हुए थे वहीं 2016 में इनकी संख्या बढ़कर 38,947 हो गयी है! नवम्बर 2017 में आयी ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2016 में कुल 3,38,954 स्त्री विरोधी आपराधिक मामले दर्ज हुए हैं जबकि 2012 में इनकी संख्या 2,44,270 थी। निर्भया (दिल्ली) – डेल्टा (राजस्थान) – जीशा (केरल), गुड़िया (शिमला, हिमाचल) – गुड़िया (उकलाना, हरियाणा) और न जाने कितनी निर्दोष बलात्कार तथा हत्या की बली चढ़ा दी जाती हैं; इसका सही-सही कोई अनुमान नहीं है। ऐसा लगता है जैसे कानून-पुलिस-नेताशाही और समाज बस आँखों पर पट्टी बाँधकर गूंगे-बहरे बने बैठे हैं। और ये मामले तो वे हैं जो दर्ज होते हैं, जो दर्ज ही नहीं हो पाते या फिर माता-पिता लोक-लाज के भय से दर्ज कराते ही नहीं उनका तो कोई हिसाब नहीं है! उक्त रिपोर्ट के ही अनुसार नये-पुराने 4,97,482 मामले पुलिस कार्यवाही के और 13,42,060 मामले अभी न्यायालय के अधीन हैं। ऐसे में बहुत बार अपराधी पकड़ में ही नहीं आ पाते और बहुत बार उनको ‘सेटिंग’ करने का पूरा मौका मिल जाता है। किसी ने ठीक ही कहा है कि देर से मिलने वाला न्याय असल मायने में न्याय होता ही नहीं। जो स्त्री विरोधी अपराधों का ठीकरा स्त्रियों पर ही (यानि ओढ़ने-पहनने-जींस-मोबाइल-आधुनिकता के नाम पर उल्टा लड़कियों-महिलाओं पर ही आरोप लगाकर) फोड़ देते हैं उनके लिए यह बात पर्याप्त होगी कि बलात्कार के आरोपियों में 94.7 प्रतिशत जानकार यानी  नज़दीकी रिश्तेदार, पड़ोसी, कार्यस्थल/दफ़्तर वाले पाये गये हैं, और हरियाणा में तो कुल आरोपियों में इनका प्रतिशत 98.7 था। इसके अलावा 2,116 मामलों में लड़कियों की उम्र 12 साल से नीचे थी और 520 मामलों में उम्र 6 साल से भी नीचे!

इन तथ्यों के आधार पर हम समस्या की गम्भीरता को समझ सकते हैं। वैसे तो अपने देश-समाज में ‘यत्र नार्यस्तु पुज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ जैसी बात की जाती है, और नारी के सम्मान में गीत भी बहुत गाये जाते हैं पर दूसरी ओर नारी के ख़िलाफ़ बुरे से बुरे अपराध भी अंजाम दे दिये जाते हैं! ढोंग और पाखण्ड की बिलकुल सारी हदें पार कर रखी हैं! एक तरफ़ तो नारी रूप की पूजा होती है और दूसरी तरफ़ उसे गर्भ में ही मारने की तैयारी हो जाती है! ‘नारी नरक का द्वार’ तथा ‘औरत पैर की जूती’ कहने वालों की भी कोई कमी नहीं है! समाज के पढ़े-लिखे तबके मतलब कोट-टाई वाले साहबों में से भी बहुत सारे लड़कियों-औरतों के प्रति घोर कुण्ठा का शिकार रहते हैं। जहाँ थानों तक में से स्त्री विरोधी अपराधों के मामले सामने आ जाते हों, जहाँ संसद तक में बलात्कार के आरोपी पहुँच जाते हों और जहाँ लाखों मामले न्यायालयों के पोथों में दफन हो जाते हों, वहाँ हम केवल व्यवस्था और सरकारों के भरोसे कैसे बैठे रह सकते हैं? नहीं, बिलकुल नहीं! ऐसा करना तो ‘अपने पैरों पर ही कुल्हाड़ी मारना होगा’।

पहला सवाल तो हमें खुद से पूछना चाहिए कि हम आधी आबादी को बराबरी का दर्जा देते हैं या नहीं? उसके स्वयं हेतु लिये गये निर्णयों-फैसलों को मंजूरी देते हैं? यदि नहीं, तो हमारे ऊपर और हमारी पढ़ाई-लिखाई पर धिक्कार है! कोई बुरा माने चाहे भला, फिर हम एक स्वस्थ समाज में रहने के लायक नहीं हैं! बहुत सी महिलाएँ तो खुद ही स्त्री विरोधी सोच से ग्रसित होती हैं, उन्हें भी इस सोच से संघर्ष करना होगा क्योंकि जो खुद को पहले ही गुलाम मान कर बैठ जाता है उसे दुनिया की कोई ताकत आज़ाद नहीं करा सकती। यह बात दिमाग में गाँठ बाँध लेनी चाहिए कि जो समाज आधी आबादी को पैर की नौक पर रखे, उसकी इज़्ज़त व मान-सम्मान को तार-तार करे, उसके बरबाद होने में अधिक समय नहीं लगता! दूसरों को गुलाम समझने वाले खुद भी गुलाम बनने के लिए अभिशप्त होते हैं। स्त्री विरोधी सोच जहाँ भी जिस भी रूप में हो उस पर प्रहार होना चाहिए। कोई भी इसका शिकार हो सकता है। हमें इस समस्या को समझना होगा, इसकी जड़ों तक जाना होगा और कारणों की पहचान-शिनाख्त करके उनका समाधान तलाशना होगा।

दूसरा सवाल हमें मौजूदा मुनाफा केन्द्रित पूँजीवादी व्यवस्था पर उठाना पड़ेगा। इस बात में कोई झूठ नहीं है कि अपना समाज ओढ़ने-पहनने की तरफ़ से ही आधुनिक बना है, विचारों में अब भी यहाँ मध्ययुगीन-पिछड़ी सोच का ठीक-ठाक बोलबाला है। पूँजीवाद जब यहाँ विकसित हुआ तो वह उस समय ऐतिहासिक तौर पर अपने मानववाद और जनवाद के दर्शन से रिक्त/खाली हो चुका था। अंग्रेजी गुलामी के कारण अपने देश की स्वतन्त्र गति और अतीत से भी समाज का नाता टूट गया। नहीं तो कबीर, नानक, दादू, रैदास, तुकाराम,पल्टू आदि-आदि की निर्गुण भक्ति आन्दोलन की प्रगतिशील धारा और इस्लाम की तरफ़ से आने वाली सूफ़ी आन्दोलन की प्रगतिशील धारा विकसित होकर अपने परवान पर चढ़तीं और समाज का रंग-ढंग कुछ अलग ही होता! पर जो है हमारे सामने है, इसकी सच्चाई को स्वीकार करके ही हम इसके बदलने के विषय में सोच सकते हैं।

आज जिस रूप में पूँजीवाद यहाँ विकसित हुआ है उसने हर चीज़ की तरह स्त्रियों को भी बस खरीदे-बेचे जा सकने वाले सामान में तब्दील कर दिया है। पूँजीवाद के बाज़ार मूल्यों ने अश्लीलता फैलाना भी मोटे पैसे कमाने का धन्धा बना दिया है। कई सर्वेक्षणों में अनुमान हमारे सामने हैं। स्कूल से निकलने की उम्र तक एक बच्चा औसतन परदे पर 8,000 हत्याएँ और 1,00,000 (एक लाख) अन्य हिंसक दृश्य देख चुका होता है। 18 वर्ष का होने तक वह 2,00,000 (दो लाख) हिंसक दृश्य देख चुका होता है जिनमें 40,000 (चालीस हज़ार) हत्याएँ और 8,000 स्त्री विरोधी अपराध शामिल हैं। एक अन्य रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में ‘इण्टरनेट’ पर अश्लील सामग्री ‘पोर्न’ का कुल बाज़ार क़रीब 97 बिलियन डॉलर तक पहुँच चुका है। 34 प्रतिशत ‘इण्टरनेट’ उपभोक्ता बताते हैं कि किस तरह से उन्हें न चाहते हुए भी पोर्न आधारित विज्ञापन देखने पड़ते हैं। कुल डाउनलोड की जाने वाली सामग्री का 45 प्रतिशत अश्लील और पोर्न सामग्री का ही होता है। एक शोध यह भी बताता है कि ‘पोर्न’ के कारण वैवाहिक बेवफाइयाँ 300 प्रतिशत तक बढ़ी हैं।

अपने समाज की बात करें तो, अमीरजादों की “ऐयाशियों” की चर्चा ही क्या हो, 1990-91 से जारी ‘उदारीकरण और निजीकरण’ की नीतियों के लागू होने के बाद ज़मीन बेचकर और सब तरह के उल्टे-सीधे कामों से पैसा कमाकर मध्यवर्ग से भी नये अमीर तबके का उभार हुआ है। कुछ तो नये-नये पैसे का नशा और कुछ पूँजीवाद की गलीज संस्कृति, कुल-मिलाकर इस तबके का अच्छा-ख़ासा हिस्सा लम्पट हो गया। इसे लागता है कि पैसे के दम पर कुछ भी खरीदा जा सकता है, नोचा-खसोटा जा सकता है! इसके अलावा यह व्यवस्था ग़रीब आबादी में भी सांस्कृतिक पतनशीलता का ज़हर हर समय घोलती रहती है। लगातार मौजूद रहने वाली बेरोज़गारी, नशे, जुआ-पत्ते, आसानी से उपलब्ध अश्लील साहित्य, ‘पोर्न’ वीडियो, फ़िल्मों आदि के कारण स्त्री विरोधी/समाज विरोधी तत्त्व लगातार पैदा होते रहते हैं। औरतों को सिर्फ़ बच्चे (यशस्वी पुत्र) पैदा करने की मशीन समझने वाली और उन्हें चूल्हे-चौखट-घर की चहारदीवारी में कैद करने हेतु लालायित पितृसत्ता की मानसिकता के भी बहुत सारे रूप मौजूद हैं। पूँजीवादी व्यवस्था भी पितृसत्ता का पूरा इस्तेमाल करती है। यही कारण है कि स्त्री विरोधी बेहूदी-फूहड़ बयानबाजी करने वाले नेताओं, मन्त्रिओं और जाति-धर्म के ठेकेदारों का कुछ भी नहीं बिगड़ता। ऐसे कूढ़मगज आम समाज में से भी आसानी से मिल सकते हैं जिनके दिमागों में स्त्रियों के प्रति घोर कुण्ठा भरी हो तथा जो घटिया दर्जे की कलुषित मानसिकता से युक्त हों।

हमें ऐसी व्यवस्था का विकल्प सोचना ही पड़ेगा जो औरतों को माल और सामान की तरह पेश करे, सबकुछ बाज़ार के मातहत ला दे, लोगों के आगे संस्कृति के नाम पर कूड़ा परोसे, समाज की बहुत बड़ी आबादी को बेरोज़गारी की दलदल में धकेल दे और फिर उसे नशों-अश्लीलता की खुराक देकर नष्ट-भ्रष्ट कर दे! बेशक व्यवस्था परिवर्तन का यह रास्ता लम्बा है पर हमें शुरुआत तो कहीं से करनी ही पड़ेगी। इसका बीड़ा न सिर्फ़ युवा लड़कियों, औरतों को खुद उठाना पड़ेगा बल्कि इन्साफ़ के हक़ में खड़े नौजवानों, पुरुषों को भी कन्धे से कन्धा मिलाकर साथ खड़ा होना होगा। आज न्याय का यही तकाज़ा है। समझना-समझाना और बदलना तीनों ही चीज़ों पर एकसाथ ज़ोर देकर आगे बढ़ना होगा! हमें मिलकर तमाम स्त्री विरोधी अपराधों के खि़लाफ़ अवाज़ उठानी होगी। ऐसे अपराधों का जुझारू संगठन खड़े करके प्रतिरोध करना होगा। वह हर सार्वजानिक जगह; जो आधी आबादी से सुरक्षा का हवाला देकर छीनी जा रही है उसपर बार-बार हक़ का मुक्का ठोकना होगा। एकजुटता और संघर्ष के बल पर ही सरकारों, व्यवस्था के ठेकेदारों को स्त्री विरोधी मामलों को संज्ञान में लेने, अपराधियों को कठोर दण्ड देने, उत्पीड़ितों को न्याय देने हेतु न सिर्फ़ विवश किया जा सकेगा बल्कि इस संघर्ष की प्रक्रिया में ही व्यवस्था की कमजोरियाँ और सीमाएँ भी निकलकर सामने आयेंगी।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जनवरी-फरवरी 2018

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