कठुआ और उन्नाव : बलात्कार का भगवा गणतंत्र

शिवानी

अगर इस साल की शुरुआत में आपने सोचा था कि वे सारे सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक पतन जो एक संकटग्रस्त पूँजीवादी व्यवस्था फासीवादी निज़ाम के सत्तासीन होने के बाद अंजाम दे सकती है, पिछले साढ़े तीन सालों में पूरे किये जा चुके तो आप बिना किसी आश्चर्य के गलत साबित हुए हैं। हमारे देश के इतिहास में पिछले कुछ महीनों में घटी घटनाओं ने एक बार फिर यह दिखला दिया है कि फासीवादी व्यवस्था किस तरह नयी गहराईयों तक गिर सकती है। जम्मू के कठुआ में 8 साल की मासूम बच्ची के साथ बर्बर बलात्कार के बाद उसकी हत्या और उत्तर प्रदेश के उन्नाव में एक नाबालिग के साथ हुए बलात्कार ने हिंदुत्ववादी फ़ासीवाद की असलियत को बेपर्दा कर दिया है। इन सभी घटनाओं ने यह स्पष्ट रूप से साबित कर दिया है कि महिलायें (ख़ासतौर पर समाज के सबसे दमित हिस्से से आने वाली महिलायें) बर्बरतम फ़ासीवादी क्रूरताओं का शिकार होती हैं। इस तथ्य के विरोधी (पढ़िए “भक्त”) बहस करेंगे कि यह पहली बार नहीं है जब बलात्कार जैसी घटनाएँ हो रही हैं। क्योंकि स्त्री-विरोधी अपराध हर दिन होते हैं इसीलिए वह ऐसे जघन्य अपराधों के ख़िलाफ़ विरोध को प्रतीकात्मक रोष कह नाकार देते हैं। मगर सच तो यह है कि हालाँकि बलात्कार की घटनाएँ नयी नहीं हैं लेकिन जिस बेशर्मी से बलात्कारियों को हिंदुत्व फ़ासीवादी व्यवस्था के भीतर राजनीतिक संरक्षण और सुरक्षा हासिल है वह पहले कभी देखी या सुनी नहीं गयी।

कठुआ में जहाँ इन्सान कहलाने का हक़ खो चुके दरिंदों ने 8 साल की मासूम बच्ची के साथ एक मन्दिर के परिसर में बर्बर बलात्कार किया और उसकी हत्या कर दी वहाँ ‘हिन्दू एकता मंच’ नामक एक संगठन जिसका निर्माण दोषियों को “न्याय दिलाने” के लिए किया गया था, के बैनर तले बलात्कारियों के समर्थन में रैलियाँ निकाली गयी। इस भगवा संगठन की सदस्यता पर एक नज़र डालते ही हिंदुत्व फ़ासीवादी राजनीति के निम्न बुर्जुआ मूल आधार का पता चल जाता है- ठेकेदार, व्यापारी, दलाल, ब्रोकर, प्रॉपर्टी डीलर, दुकानदार आदि। इनमें से ज़्यादातर संगठन आरएसएस से जुड़ें हुए हैं और उनकी सम्बद्धता पार्टी लाईनों से परे हैं। इन फ़ासीवादी गुण्डों और लफंगों का नाता अपने तात्कालिक राजनीतिक हितों और फायदों के कारण विभिन्न पार्टियों से हो सकता है लेकिन विचारधारात्मक रूप से इनकी नाभि-नाल संघ परिवार से जुड़ी हुई है। इन रैलियों  में भारतीय जनता पार्टी के दो वर्तमान विधायकों जो कि जम्मू की सरकार में मंत्री भी थे, ने भी हिस्सेदारी की। हिन्दू धर्म के इन ठेकेदारों ने बड़ी बेशर्मी के साथ “भारत माता की जय”, “जय श्री राम” के नारे लगाए, हाथों में तिरंगा लेकर हिंदुत्व राष्ट्रवाद के अब चित-परिचित हो चुके हथकण्डों का इस्तेमाल करते हुए इस जघन्य बलात्कार और उस मासूम बच्ची की हत्या के लिए औचित्य इकठ्ठा करने की कोशिश की। यहाँ यह कहने की आवश्यकता नहीं है कि  इन “राष्ट्रवादी गौरव के प्रतीकों” का इस्तेमाल पहले भी दंगे भड़काने, भ्रष्टाचारियों को बचाने और हर राजनीतिक विरोधी को “देशद्रोही” घोषित करने के लिए किया जा चुका है। लेकिन इस बार इन फ़ासीवादियों ने नीचता की सारी हदें पार कर इनका इस्तेमाल एक मासूम बच्ची के साथ बलात्कार करने वाले दरिंदो को बचाने के लिए किया। केवल इतना ही नहीं, मीडिया घराने जैसे ज़ी न्यूज़, जो कि नरेंद्र मोदी और अमित शाह के पालतू कुत्ते होने का काम करने में लीन है ने यह झूठी खबर तक चलाने से भी गुरेज़ नहीं किया कि कठुआ में कोई बलात्कार हुआ ही नहीं है।

दूसरी घटना में, जहाँ भाजपा का एक और विधायक कुलदीप सिंह सेंगर एक नाबालिग के साथ सामूहिक बलात्कार के मामले में लिप्त पाया गया, तो योगी आदित्यनाथ की सरकार ने एक साल से भी ज़्यादा वक़्त बीत जाने के बाद भी उस एमएलए के ख़िलाफ़ कोई कार्यवाही नहीं की, जब तक कि उस नाबालिग लड़की ने मुख्य मंत्री आवास पर आत्मदाह करने का प्रयास नहीं किया। जिसके पश्चात उलटे लड़की के पिता को गिरफ़्तार कर लिया गया और हिरासत में उनकी बेरहमी से पीट-पीट कर हत्या कर दी गयी ।

जब कठुआ और उन्नाव की दहशत फैला देनी वाली घटनाओं का खुलासा हो रहा था, तब देश के अलग-अलग कोनों जैसे सासाराम, सूरत और इंदौर से भी इसी तरह की पाशविकता के और मामले सामने आ रहे थे। यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह घटनाएँ स्त्रियों के ख़िलाफ़ अपराधों का बेहद छोटा प्रतिशत है। आज भी ज़्यादातर मामले दर्ज़ भी नहीं करवाए जाते।

जिस महत्वपूर्ण तथ्य को यहाँ रेखांकित करने की ज़रूरत है वह यह है कि ऐसी जघन्य घटनाओं के ख़िलाफ़ मात्र विरोध प्रदर्शन करने से इनका ख़ात्मा नहीं किया जा सकता। न ही मानवता की उदार गुहारें लगाने से कोई परिवर्तन लाया जा सकता है। जब तक कि सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में स्त्री विरोधी अपराधों और स्त्री विरोधी मानसिकता को बढ़ावा देने वाले मूल कारणों की पड़ताल नहीं की जाती तब तक ऐसे अपराधों से लड़ना असम्भव है। हमें यह सवाल करने की ज़रूरत है कि वे कौन सी ताकतें हैं जो कठुआ के बलात्कारियों जैसे तत्वों और कुलदीप सिंह सेंगर जैसे आदमियों को फलने-फूलने देती हैं।

और यहीं पितृसत्ता और पूँजीवाद के बीच का अपवित्र गठबन्धन सामने आता है। पूँजीवाद ने बड़ी चालाकी से समाज के पोर-पोर में पैठी पितृसत्तात्मक मूल्य-मान्यताओं को सहयोजित कर लिया है जिससे स्त्रियों के उत्पीड़न को वैध और उचित ठहराने के लिए आधार हासिल हो जाता है। साथ ही आये दिन विचारधारात्मक और सांस्कृतिक माध्यमों से बलात्कार जैसी घटनाओं के प्रति उदासीनता और उपेक्षा का बोध फैलाया  जाता है। नव उदारीकरण के बाद,  नव-धनाढ्यों की “खाओ-पियो-ऐश करो” की संस्कृति, जो औरतों को केवल उपभोग और विनमय की वस्तु के रूप में एक माल की तरह देखती है के चलते स्त्री-विरोधी अपराधों में भयानक तेज़ी आयी है। क्या बलात्कारी और बलात्कार की संस्कृति इसी पतनशील पूँजीवादी संस्कृति की उपज नहीं है ?

लेकिन इसका मतलब यह कत्तई नहीं है कि कठुआ जैसी घटना की विशिष्ट पाशविकता को नज़रअन्दाज़ किया जा सकता है। यह एक दम प्रत्यक्ष है। हिंदुत्व फ़ासीवादी ताकतों द्वारा यौन हिंसा का प्रयोग एक राजनीतिक हथियार के रूप में कर अल्पसंख्यकों के मन में डर भर देना कड़वी वास्तविकता है। पुलिस द्वारा दायर की गयी चार्जशीट में भी साफ़ तौर पर इसका उल्लेख है। हिंदुत्ववादी ताकतों द्वारा यह भयावह कृत्य मुस्लिम बकरवालों को उनके गाँवों से भगा देने के एक बड़े षड्यंत्र का हिस्सा था। ‘ हिन्दू एकता मंच’ के बैनर तले बलात्कारियों के समर्थन में आयोजित रैली से भी स्पष्ट हो जाता है कि इस बलात्कार की घटना के पीछे एक बड़ा राजनीतिक प्रयोजन था।

साथ ही उन्नाव जैसी घटनाओं से यह भी उजागर हो जाता है कि क़ानून बनाने वाले जिन जन-प्रतिनिधियों को आम जनता की रक्षा करनी चाहिए वे खुद इन अपराधों में शामिल हैं और राजनीतिक संरक्षण के चलते विरले ही उन्हें उनके अपराधों की सज़ा भोगनी पड़ती है। ‘एसोसिएशन ऑफ़ डेमोक्रेटिक राइट्स’ की एक रिपोर्ट के अनुसार संसद और विधान सभाओं में 51 सदस्यों के ख़िलाफ़ गम्भीर स्त्री-विरोधी अपराध दर्ज़ हैं जिनमें बलात्कार भी शामिल है। भाजपा यहाँ भी बाज़ी मार जाती है। “बेटी बचाओं, बेटी पढ़ाओ” का नारा देने वाली पार्टी जो एक क्षण के लिए भी खुद को ‘उच्च नैतिकता और आचरण” का उदाहरण कहने से परहेज़ नहीं करती (जो कि आसाराम, रामपाल और राम रहीम जैसे ढोंगी बाबाओं और बलात्कारियों को बचाने की कवायद के दौरान जगज़ाहिर था) हर राजनीतिक रंग के बलात्कारियों, दंगाइयों, गुण्डों, भ्रष्टाचारियों यानी कि बुर्जुआ राजनीति के बदमाशों का नया शरणागृह है। इनके “चाल, चरित्र और चेहरे” की असलियत इसी से ज़ाहिर हो जाती है।

कठुआ और उन्नाव की घटनाओं ने हिंदुत्व फ़ासीवाद के सारतत्व को उजागर कर दिया है। स्त्री विरोधी मानसिकता जो हिंदुत्व फ़ासीवादी विचारधारा के केंद्र में है और उसे पोषित करती है आज आसानी से देखी जा सकती है। उदार बुर्जुआ भावनात्मक गुहारों व अपीलों ने न पहले स्त्रियों से जुड़ें मुद्दों को हल करने में मदद की थी और न ही अब करेंगे। नारी मुक्ति के प्रश्न के साथ जुड़ें “बेहद बदनाम” वर्ग विश्लेषण पर भी ध्यान केंद्रित किये जाने की ज़रूरत है। मीनाक्षी लेखी और स्मृति ईरानी जैसे लोग जो मुखर रूप से हिंदुत्व फ़ासीवादियों के स्त्री-विरोधी मानसिकता के समर्थन में खड़ी हैं वे कभी भी किसी सूरत में किसी प्रगतिशील, आमूल परिवर्तनवादी, पितृसत्ता-विरोधी, पूँजीवाद विरोधी प्रोग्राम का हिस्सा नहीं बन सकती। सच्चाई यह है कि मानवता और मानव सार के दुश्मनों यानी फ़ासीवादियों का पूर्ण रूप से इलाज सिर्फ़ और सिर्फ़ क्रान्तिकारी तरीके से किया जा सकता है। अब सवाल उठता है कि क्या महिलायें इसमें पीछे रह सकती हैं?

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मई-जून 2018

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