कोरोना वायरस : नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के दौर की महामारी

आनन्द

लेख 14 मार्च को लिखा गया

कोरोना वायरस का प्रकोप दुनियाभर में तेज़ी से बढ़ता जा रहा है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे ‘पैण्डेमिक’ (वैश्विक महामारी) घोषित कर दिया है। यह महामारी अब अंटार्कटिका को छोड़कर सभी महाद्वीपों को अपनी चपेट में ले चुकी है। अमेरिका में कोरोना वायरस के संक्रमण के तेज़ी से फैलने की ख़बरों को पहले अफ़वाह बताने वाले ट्रम्प प्रशासन को भी आख़ि‍रकार राष्ट्रीय आपातकाल की घोषणा करनी पड़ी जिससे समझा जा सकता है कि स्थिति कितनी ख़तरनाक है। यह लेख लिखे जाने तक विश्व में कोरोना वायरस से सं‍क्रमित लोगों की संख्या डेढ़ लाख तक पहुँच चुकी थी और पाँच हज़ार से ज़्यादा लोग इस वायरस के संक्रमण की वजह से जान गँवा चुके थे। भारत में भी अब तक कोरोना वायरस के संक्रमण की वजह से दो मौतें हो चुकी हैं और 85 लोगों में यह संक्रमण पाया गया है। आने वाले दिनों में इस महामारी के तेज़ी से फैलने के आसार हैं। वैज्ञानिक कोरोना वायरस की उत्पत्ति को प्रकृति के बेहिसाब दोहन से जोड़कर देख रहे हैं जिसके लिए सीधे तौर पर पूँजीवाद ज़िम्मेदार है।

हालाँकि भविष्य में भी कोरोना जैसे वायरस की उत्पत्ति की सम्भावना को पूरी तरह ख़त्म नहीं किया जा सकता, लेकिन विभिन्न देशों के मेडिकल विशेषज्ञ इस बात की ताईद कर रहे हैं कि सरकारों की चौकसी और बेहतर सार्वज‍निक स्वास्थ्य व्यवस्था की बदौलत इस तरह के संक्रमण को महामारी में तब्दील होने से रोका जा सकता था। परन्तु नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के मौजूदा दौर में दुनिया के तमाम मुल्क़ों में बेतहाशा निजीकरण के चलते सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था लचर हो चुकी है जिसकी वजह से इस बीमारी की रोकथाम उचित ढंग से नहीं हो सकी। तमाम देशों की सरकारों ने भी इस महामारी को फैलने से रोकने के लिए सही समय पर चौकसी नहीं दिखायी। साम्राज्यवादी लूट की बदौलत विलासिता के शिखर पर बैठे अमेरिका तक में कोरोना वायरस के परीक्षण के लिए किट और N95 फ़ेसमास्क पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हो सके जिसकी वजह से वहाँ इस बीमारी को फैलने से नहीं रोका जा सका।

कोरोना के सम्मुख ग़रीब और मेहनतकश आबादी की बेबसी

कोरोना जैसी महामारी के समय पूँजीवादी समाज की वर्गीय खाई और मानसिक श्रम व शारीरिक श्रम करने वाले लोगों के बीच की खाई उभरकर सतह पर दिखायी देने लगती है। इस महामारी की रोकथाम के लिए डॉक्टर लोगों को सामूहिक स्थानों पर जाने से बचने की सलाह दे रहे हैं। इस सलाह को ध्यान में रखते हुए दुनियाभर में कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों को घर से ही काम करने की इजाज़त दे रही हैं ताकि उन्हें ऑफ़ि‍स न जाना पड़े। लेकिन ग़ौर करने वाली बात यह है कि घर से काम करने की सुविधा का लाभ केवल उन पेशों और उन पदों पर काम करने वालों को मिल सकता है जो कम्प्यूटर और इण्टरनेट की मदद से काम करते हैं। परन्तु अधिकांश पेशों में ख़ासतौर पर शारीरिक श्रम करने वाले लोगों को अपनी आजीविका चलाने के लिए अपने कार्यस्थल तो जाना ही पड़ेगा। ऐसे में समाज की बहुसंख्यक मेहनतकश आबादी को इस संक्रमण की चपेट में आने का ख़तरा लम्बे समय तक बना रहेगा।

कोरोना वायरस की चपेट में आने पर डॉक्टर मरीज़ को बिल्कुल अलग-थलग करने की सलाह देते हैं ताकि किसी अन्य व्यक्ति को यह संक्रमण न फैल सके। इसके लिए अस्पतालों में ऐसी सुविधाएँ होनी चाहिए और घरों में इतनी जगह होनी चाहिए कि कोरोना के मरीज़ को अलग-थलग किया जा सके। धनी लोग पैसे के दम पर निजी अस्पतालों में मरीज़ का इलाज करवा सकते हैं और अपने घरों में भी पर्याप्त जगह के अलावा सैनिटाइज़र, मास्क, टिश्यू पेपर जैसी चीज़ों की बदौलत इस वायरस के संक्रमण की सम्भावना को कम कर सकते हैं, लेकिन बहुलांश मेहनतकश आबादी न तो निजी अस्पतालों में जा सकती है, न ही उसके घर में पर्याप्त जगह होती है कि परिवार के अन्य सदस्य मरीज़ से दूरी बना सकें और न ही वे सैनिटाइज़र, मास्क, टिश्यू पेपर जैसी चीज़ें अफ़ोर्ड कर सकती है। कोरोना महामारी के मद्देनज़र मध्य वर्ग और धनिक वर्ग ने अपनी ज़रूरत के सामानों और राशन का स्टॉक जमा करना शुरू कर दिया है ताकि उनकी क़िल्लत होने पर उन्हें कोई दिक़्क़त न हो। ज़ाहिरा तौर पर अधिकांश मेहनतकश आबादी इसके बारे में सोच भी नहीं सकती।

इसका सही-सही अनुमान लगाना भी मुश्किल है कि ग़रीब मेहनतकशों के घरों में कितने लोग पहले ही इस वायरस से संक्रमति हो चुके होंगे क्योंकि इसके टेस्ट की पहुँच ही उन तक नहीं है। मेडिकल क्षेत्र के विशे‍षज्ञ यह भी बता रहे हैं कि कुपोषण के शिकार लोगों में इस वायरस के संक्रमित होने का ख़तरा ज़्यादा होता है। ऐसे में ग़रीब आबादी में इस वायरस के फैलने से स्थिति क़ाबू से बाहर हो सकती है। यही नहीं, कोरोना महामारी के आतंक से दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाएँ भी लड़खड़ाने लगी हैं जिसका सबसे ज़्यादा असर मेहनतकश आबादी पर ही हो रहा है क्योंकि उनके सामने आजीविका का संकट उठ खड़ा हुआ है। ऐसे में ज़ाहिर है कि कोरोना की वैश्विक महामारी के सामने मेहनत-मज़दूरी करने वाले लोग ही ख़ुद को सबसे ज़्यादा लाचार पा रहे हैं।

लचर सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था इस महामारी को फैलने में मदद कर रही है

यह बात सच है कि भूमण्डलीकरण के मौजूदा दौर में देशों की सीमाओं के आर-पार लोगों की बढ़ती आवाजाही की वजह से कोरोना वायरस के प्रकोप को भूमण्डलीकृत स्वरूप अख़्तियार करने में मदद मिली है। परन्तु यह भी सच है कि दुनिया के तमाम देशों में यदि सार्वजनिक स्वास्थ्य सुविधाएँ बेहतर होतीं तो इसके फैलाव को कम किया जा सकता था और इसे महामारी बनने से रोका जा सकता था। लेकिन नवउदारवादी भूमण्डलीकरण के इस दौर में न सिर्फ़ तीसरी दुनिया के देशों में, बल्कि विकसित देशों में मुनाफ़े की हवस में सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की कमर तोड़कर निजी अस्पतालों को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिसकी वजह से कोरोना महामारी पर नकेल कसने में दिक़्क़त आ रही है। ग़ौरतलब है कि कोरोना वायरस के संक्रमण से बचने के लिए सैनिटाइज़र, फ़ेसमास्क जैसी चीज़ों की ज़रूरत है जो पूँजीवाद में लोगों की ज़रूरतें पूरी करने की बजाय मुनाफ़े के लिए पैदा की जाती हैं। कोरोना के संक्रमण के फैलाव को देखते हुए इन अत्यन्त आवश्यक चीज़ों की जमाखोरी भी शुरू होने लगी है जिसकी वजह से आम आबादी इस ख़तरनाक वायरस के सामने ख़ुद को निहत्था पा रही है।

कोरोना वायरस से संक्रमित होने के बाद मरीज़ को अस्पताल के अन्य मरीज़ों से अलग-थलग करने के लिए विशेष सुविधाओं की ज़रूरत होती है ताकि संक्रमण अन्य लोगों तक न फैले। अगर ऐसे मरीज़ों की संख्या बढ़ती है तो ज़ाहिरा तौर पर ऐसी सुविधाओं की ज़रूरत ज़्यादा होगी। चीन में समाजवादी अतीत की वजह से वहाँ स्वास्थ्य सुविधाएँ अभी भी सरकार के नियंत्रण में हैं जिसकी वजह से वहाँ कोरोना वायरस के संक्रमण को काफ़ी हद तक क़ाबू में किया जा सका, हालाँकि वहाँ भी अगर आज समाजवादी व्यवस्था क़ायम होती तो इस बीमारी को फैलने से बहुत पहले ही रोका जा सकता था। फिर भी चीन ने वुहान शहर में तो कोरोना संक्रमण के लिए विशेष रूप से 1000 बेड वाला अस्पताल 6 दिनों के भीतर बना लिया। लेकिन दुनिया में कितने देशों में सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था पर सरकार का इतना नियंत्रण है? अमेरिका जैसे साम्राज्यवादी मुल्क़ में भी कोरोना के संक्रमण को समय रहते क़ाबू में न कर पाने के लिए ट्रम्प की चौतरफ़ा निन्दा हो रही है। इटली और स्पेन जैसे देशों में भी यह बीमारी बहुत तेज़ी से फैल गयी। जब इन विकसित मुल्क़ों में सरकारें कोरोना को फैलने से रोकने में नाकाम साबित हुईं तो अब जबकि यह वायरस इरान, फ़ि‍लीपींस और भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में फैल चुका है, आने वाले दिन बेहद चुनौतीपूर्ण होने वाले हैं।

ग़ौरतलब है कि कोरोना वायरस की रोकथाम की कोई दवा अभी तक नहीं खोजी जा सकी है और न ही इसका कोई टीका ही खोजा जा सका है। विशेषज्ञों का कहना है कोरोना की काट के लिए दवा बनायी जा सकती है, परन्तु उसके लिए जिस स्तर के शोध और अनुसन्धान की ज़रूरत है वह इस समय नहीं हो रहा है। बेहिसाब मुनाफ़ा पीटने वाली दैत्याकार फ़ार्मा कम्पनियाँ फ़्लू के लिए एण्टीवायरल और एण्टीबॉयोटिक दवाओं की बजाय मोटापा कम करने, ट्रैंकिलाइज़र, पुंसकत्व बढ़ाने और जीवनशैली से सम्बन्धित रोगों की दवाओं पर शोध करने में ज़्यादा संसाधन ख़र्च करती हैं जो धनिक और मध्यवर्ग की ज़रूरते हैं। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि फ़्लू के टीकाकरण या एण्टीवायरल दवा पर शोध बेहद महँगा होता है और उसकी माँग बहुत सीमित होती है जो मुनाफ़े पर टिकी फ़ार्मा कम्पिनयों को नहीं आकर्षित करती हैं। हालाँकि महामारी के समय ऐसी दवाओं की माँग फैलती है, लेकिन महामारी के क़ाबू में आने के बाद उनकी माँग फिर से गिर जाती है। ग़ौरतलब है कि वर्ष 2003 में सार्स नामक बीमारी के फैलने के बाद भी फ़्लू की रोकथाम के लिए दवाओं पर शोध करने की बात चली थी, लेकिन बाद में किसी भी फ़ार्मा कम्पनी ने इस शोध की ज़िम्मेदारी अपने कन्धों पर नहीं ली। अगर ऐसा शोध जारी रहता तो मुमकिन था कि अब तक कोरोना वायरस का टीका या एण्टीवायरल दवा मौजूद होती।

भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में हाल के दशकों में जीडीपी और स्वास्थ्य सुविधाओं पर होने वाले ख़र्च के अनुपात में या तो लगातार कमी आती रही है या फिर कोई विचारणीय वृद्धि नहीं हुई है। इस वजह से कोरोना जैसी महामारी से निपटने के लिए ये देश तैयार ही नहीं हैं। सरकार द्वारा लोगों को इस बीमारी के बारे में सही ढंग से शिक्षित न कर पाने की वजह से जहाँ पहले इसको ख़तरा मानने से ही इन्कार किया जाता था वहीं अब एक पैनिक की स्थिति बनती जा रही है। इस स्थिति का लाभ उठाकर जहाँ सैनिटाइज़र, फ़ेसमास्क, एण्टीबायोटिक साबुन और टिश्यू पेपर बेचकर बेहिसाब मुनाफ़ा पीटा जा रहा है वहीं भाँति-भाँति के नीमहकीम कोरोना वायरस से निपटने के लिए रामबाण नुस्ख़े बताकर जनता को बरगलाने का काम कर रहे हैं। बीमा कम्पनियों ने भी इस महामारी का लाभ उठाकर लोगों को डराते हुए अपना मुनाफ़ा बढ़ाने की कोशिशें तेज़ कर दी हैं।

इस महामारी से निकलने वाला सबक़

कोरोना महामारी ने एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि विज्ञान की चमत्कारिक तरक़्क़ी के बावजूद पूँजीवाद आज समाज की बीमारियों को दूर करने की बजाय नयी बीमारियों के फैलने की ज़मीन पैदा कर रहा है। ऐसी महामारियों से निपटने के लिए भी पूँजीवाद को नष्ट करके समाजवादी समाज का निर्माण आज मनुष्यता की ज़रूरत बन गया है। समाजवादी समाज में सार्वजनिक और निशुल्क स्वास्थ्य सुविधाओं की बदौलत कोरोना जैसी महामारियों को फैलने से आसानी से रोका जा सकता है। साथ ही दवाओं के शोध और अनुसन्धान के लिए संसाधनों की कमी आड़े नहीं आयेगी क्योंकि उसका मक़सद मुनाफ़ा कमाना नहीं होगा। परन्तु समाजवादी समाज का निर्माण हमारा दूरगामी लक्ष्य है। इस महामारी की स्थिति में हमारा तात्कालिक लक्ष्य पूँजीवाद की चौहद्दी के भीतर सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था को दुरुस्त करवाना, सार्वभौमिक स्वास्थ्य को मूलभूत अधिकार का दर्जा दिलाना और दवाओं के निर्माण के क्षेत्र को मुनाफ़े की दुनिया से अलग कराना होना चाहिए।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2020

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