विचारधारा के पीछे अपनी कायरता को मत छिपाओ नवाज़ुद्दीन
सनी
बॉलीवुड की चकाचौंध भरी दुनिया में बिरले ही ऐसे अभिनेता हैं जिन्हें उनके अभिनय के कारण पसंद किया जाता है। इनमें से एक नवाज़ुद्दीन सििद्दकी हैं जिन्होंने अभिनय से बॉलीवुड की दुनिया में अपना नाम कमाया है। हाल ही में उन्होेंने कुछ ऐसी फिल्में की जिससे प्रतीत होता है कि वे राजनीति के स्पेक्ट्रम के दोनों छोर को पेश कर रहे हों। एक तरफ़ उन्होंने मंटो के जीवन पर आधारित फिल्म की तो दूसरी ओर उन्होंने बाल ठाकरे सरीखे फासिस्ट के जीवन पर आधारित फिल्म भी की। हालांकि नंदिता दास द्वारा निर्देशित फिल्म ‘मंटो’ के राजनीतिक मर्म पर हम नहीं जायेंगे फिर भी अगर उसे ‘ठाकरे’ के सामने रखा जाये तो निश्चित ही वह फिल्म प्रगतिश्ाील कही जायेगी। इन दोनों फिल्मों की ‘विपरीत’ विचारधारा के बारे में पूछा गया तो नवाज़ ने कहा कि उनकी कोई विचारधारा नहीं है और एक अभिनेता की कोई विचारधारा होनी भी नहीं चाहिए। नवाज़ के अनुसार एक अभिनेता किरदार के अनुरूप खुद को ढालता है और उसके बाद अभिनेता के लिए वह किरदार खत्म हो जाता है। किरदार और सिनेमा में प्रस्तुत विचार जब लोगों के ज़हन में उतरते हैं तो इससे नवाज़ को कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे उनके निजी विचारों के अनुरूप नहीं हैं। यह जानने के लिए कि हर फिल्म की अपनी विचारधारा होती है और अभिनय भी एक विचारधारा की सेवा करता है किसी के पास न्यूटन सरीखी प्रतिभा होने की आवश्यकता नहीं है। परन्तु यह आसान सी बात नवाज़ को समझ नहीं आती है। ऐसे ‘नासमझ’ वे अकेले भी नहीं हैं। हाल ही में आयी पितृसत्तात्मक विचारों का जश्न मनाने वाली फिल्म ‘कबीर सिंह’ में लुच्चे किरदार की भूमिका अदा करने के बाद शाहिद कपूर ने कहा कि वास्तविक जीवन में भी ऐसे लोग होते हैं और उसे इससे फर्क नहीं पड़ता है कि लोग क्या बोलेंगे क्योंकि उसके लिए अभिनय एक कलाकर्म है जिसमें वह एक किरदार को अदा करने के बाद छोड़ देता है। इस तरह के बयान देकर ये अभिनेता खुद को व फिल्म को निेरपेक्ष दिखाने का प्रयास करते हैं। इस पक्ष से ‘कला कला के लिए’ की ध्वनि सुनायी देती है। परन्तु इनकी फिल्में निश्चित ही विचारधारात्मक तौर पर प्रतिबद्ध हैं और ये मौजूदा बाज़ार की व्यवस्था के पक्ष में आम जन को सहमत कराने का माध्यम हैं। इस व्यवस्था को शाश्वत बनाकर पेश करना और इसकी संस्कृति को सहज मानव चरित्र बनाकर पेश करने का काम ही ये फिल्में करती हैं। नवाज़ व अन्य अभिनेता बॉलीवुड उद्योग के हिस्से है और बॉलीवुड पूँजीवादी संस्कृति उद्योग का ही हिस्सा है। बाज़ार की इस दुनिया में बॉलीवुड में बनी फिल्में भी बाज़ार की ज़रूरत के अनुसार बाज़ारू माल होती हैं। जनता के उपभोग के लिए बनी यह सिनेमा एक माल होती है। ये अभिनेता जो इस उद्योग का हिस्सा हैं और जिनका मकसद पैसा व शोहरत कमाना रह जाता है ये अपनी कला को विचारधारा से मुक्त पेश करते हैं। बॉलीवुड उद्योग वर्ग संघर्ष में शासक वर्ग का सबसे परिष्कृत औजार है जो आम जनमानस में बुर्जुआ विचारधारा का प्रचार प्रसार करता है। इस संस्कृति उद्योग का कार्य मुनाफा आधारित व्यवस्था को जनता के बीच ग्राह्य (digestible!) बनाना होता है और इसलिए यह बुर्जुआ विचारधारा की बहुस्वरीय व कलात्मक और सपाट व सस्ते मनोरंजन के दोनों छोरों की फिल्म बनाता रहता है। कई बार ये फिल्में इस चौखटे से बाहर भी जाती हैं परन्तु केवल अंशों में या इशारों में ही। अन्ततोगत्वा यह पूँजीवादी समालोचना करते हुए इस व्यवस्था का वैचारिक पोषण करती है।
आज यह संस्कृति उद्योग खुलकर बर्बरता के पक्ष में खड़ा हुअा है क्योंकि बाज़ार की ताक़तें खुलकर फासीवादी राजनीति के पक्ष में खड़ी हैं। जब देश में राजनीति ऐसा मोड़ ले ले कि समाज में नफ़रत और डर घर कर जाये और तानाशाही कायम की जाये तो कला भी प्रभावित होती है। ऐसे में कलाकार अपना पक्ष चुनते हैं। कुछ लेनी रेफ़ेंस्टाइल जैसे होते हैं और कुछ बेर्तोल्ट ब्रेष्ट सरीखे। ब्रेष्ट एक प्रतिबद्ध माक् र्सवादी थे जो आधुनिक काल के महानतम नाटककार भी थे जिन्होने फासीवाद के खिलाफ़ खुलकर लिखा जिस कारण उन्हें देश भी छोड़ना पड़ा। वहीं लेनी रेफ़ेंस्टाइल जर्मन फिल्मकार थी जिन्होनेे फासीवाद व हिटलर की स्तुति में फिल्में बनायी थीं। यानी एक तरफ हैं वे लोग जिन्होंने बिगड़े माहौल में अपनी रीढ़ की हड्डी गिरवी रखी और सत्ता की सेवा में लग गये और दूसरी ओर वे जो कुछ भी झेलकर लिखते रहे। एक तरफ़ लम्बी फेहरिस्त उन कलाकारों की है जो जनता के बीच से उनके जीवन को कलाकृति में ढाल पाने का हुनर हासिल करते हैं और उसे फिर बाज़ार की दुनिया के हाथों बेच देते हैं। तो दूसरी तरफ़ कुछ ऐसे हैं जो बाज़ार के लिए या उपभोग के लिए नहीं बल्कि जनता के साथ अपनी पक्षधरता दिखाते हुए कलाकर्म करते हैं। परन्तु नवाज़ द्वारा उनकी यह अभिव्यक्ति मानो उन्हें किसी पक्षहीन प्लैटफॉर्म पर पहुँचा देती है। वे खुद अपने साथ अभिनय को भी पक्षधरता से परे ले आते हैं। यह तर्क कलाकारों की जमात में मौजूद है। आइए इस प्रश्न को जरा अभिनय की सैद्धान्तिकी की नज़र से देखते हैं। हमें इस सवाल पर स्तानिस्लाव्स्की के दृष्टिकोण की पड़ताल करनी होगी क्योंकि वे ही इन नवाज़ जैसे ‘मँझे’ हुए अभिनेताओं के प्रेरणा स्रोत हैं। स्तानिस्लाव्स्की अपने अभिनय शास्त्र में अभिनय के सच्चेपन की बात करते हैं, अभिनेता को चरित्र से जुड़ने और उसके भाव को दर्शक तक तद्नुभूति के जरिये पहुँचाने की बात करते हैं। स्तानिस्लाव्स्की जब तद्नुभूति (एम्पैथी) की बात करते हैं तो उनका अर्थ होता है कि दर्शक उसी तरह से महसूस करे जैसे कि अभिनेता महसूस करता है। अभिनेता का अभिनय इतना प्रामाणिक, ओजस्वी और जीवन्त हो कि उसका भावनात्मक आवेग दर्शक में संक्रमित हो जाये। स्तानिस्लाव्स्की के अनुसार- “जो कलाकार परिवेशी जीवन को देखने और उसकी खुशियों तथा तकलीफ़ों को अनुभव करने पर भी उसकी गहराइयों, जड़ों में नहीं जाता और उसके पीछे चरम नाटकीयता तथा शौर्य भावना से ओत–प्रोत महती घटनाओं को नहीं देखता, वह कलाकार सच्चे सृजन के लिए मृत है। ताकि कला के लिए जिया जा सके, कलाकार को परिवेशी जीवन के मर्म में पैठना ही होगा, अपने मस्तिष्क पर ज़ोर देना ही होगा, ज्ञान की जो कमी है उसे पूरा करना ही होगा और अपने नज़रिये में परिवर्तन लाना ही होगा। यदि कलाकार अपने सृजन को बेजान नहीं बनाना चाहता, तो उसके लिए आवश्यक है कि वह जीवन को कूपमण्डूक की भाँति न देखे। कूपमण्डूक कलाकार सच्चे अर्थों में कलाकार नहीं हो सकता।” यह साफ़ है कि नवाज़ स्तानिस्लाव्स्की के दृष्टिकोण से कोसों दूर हैं। वे स्तानिस्लाव्स्की के शब्दों में कूपमण्डूक है।
स्तानिस्लाव्स्की अपने अभिनय सिद्धान्त में मुख्य तत्व ‘भावनात्मक स्मृति’, ‘मुख्य अभिप्राय’ व अन्य अवयवों का जिक्र करते हैं। विस्तार में जाये बगैर ही हम कुल मिलाकर कह सकते हैं कि वे दार्शनिक तौर पर वे आनुभविक भौतिकवादी ही रहते हैं। हालाँकि उनका दृष्टिकोण क्रान्तिकारी नज़रिये की तरफ़ झुकाव रखता है। उन्होंने चेखव से लेकर गोर्की के नाटकों को प्रस्तुत किया। एक क्रान्तिकारी पक्षधरता रखते हुए वह अपने रंगकर्म में शिद्धत से लगे रहे।
ब्रेष्ट ने उनके अभिनय शास्त्र पर टिप्पणी करते हुए कहा था कि स्तानिस्लाव्स्की का अभिनय शास्त्र अन्तत: एक पद्धति है। इसे ‘मैथड एक्टिंग’ के नाम से जाना जाता है। इस पद्धति का इस्तेमाल सच्चाई को विकृत कर पेश करने में भी हो सकता है और हुआ भी है। स्तानिस्लाव्स्की की सर्वहारा पक्षधरता की जगह मौजूदा सिनेमा जगत में तमाम फिल्मकार बुर्जआ समाज के नैतिक पतन को सेलिब्रेट करते हैं और उसे मानवीय स्वभाव के नेैसर्गिक गुण के रूप में पेश करते हैं। ये वास्तविकता के तत्वों का बुर्जुआ विचारधारा हेतु इस्तेमाल कर यथार्थ की विकृत तस्वीर पेश करते हैं। नवाज़ खुद को स्तानिस्लाव्स्की के अभिनय शास्त्र का शिष्य बताते हैं परन्तु ऊपर आये स्तानिस्लाव्स्की के अभिनय सैद्धािन्तकी के संक्षिप्त विवरण से यह साफ़ है कि नवाज़ स्तानिस्लाव्स्की के सरोकारों से दूसरे छोर पर खड़े हैं।
नवाज़ ने न सिर्फ फासिस्ट प्रचार के लिए बनी फिल्म ‘ठाकरे’ की बल्कि इंसानी मूल्य मान्यताओं पर संदेह पैदा करती फिल्में ‘रमन राघव’ के किरदार को अदा किया। इन किरदारों के लिए नवाज़ उस पद्धति से ही तैयारी करता है जिसे स्तानिस्लाव्स्की की पद्धति कहा जाता है। इस दौरान नवाज़ खुद को उस किरदार की मानसिक अवस्थिति में ढालने की कोशिश करता है। उसे किरदार की सच्चे मायने में पड़ताल करनी होती है। इस पड़ताल के बाद ही वह उस किरदार को नाटक जगत या सिनेमा के परदे पर उतार सकता है। इस पड़ताल में वह अपनी विचारधारा का ही सहारा लेता है। पर नवाज़ इससे इन्कार करते हैं। पर नवाज़ ने बाल ठाकरे के किरदार का अध्ययन किया होगा। यहाँ हम किसी काल्पनिक चरित्र की बात नहीं कर रहे हैं हालाँकि ऐसे किरदारों का भी स्रोत वास्तविकता ही होती है पर फिलहाल नवाज़ के लिए अपने किरदार का अध्ययन करने का मौका था। नवाज़ ने लगभग हर साक्षात्कार में बताया कि उसने बाल ठाकरे के जीवन का बहुत बारीकी से अध्ययन किया। परन्तु ‘ठाकरे’ फिल्म में ठाकरे का चित्रण सच्चाई से कोसों दूर है। ठाकरे का उभार मुंबई के मजबूत मज़दूर आंदोलन को मराठी और गैर मराठी में बाँट देने और स्ट्राइक ब्रेकर के रूप में हुआ था। वह पूँजीपतियों का टुकड़खोर था। परन्तु फिल्म में उसका चित्रण एक ऐसे समझौताविहीन व्यक्ति के रूप में किया गया है जो उम्र भर अपने सिद्धान्तों के लिए लड़ता रहा। असल में यह पूँजी का दलाल है जो उनके हितों के लिए मराठा और गैर मराठा मज़दूर के बीच और हिन्दू मुसलमान के बीच अंतर खड़ा करता था। इस राजनीति से सबसे ज़्यादा हमला गरीब जनता पर हुआ। ‘लुंगी उठाओ पुंगी बजाओ’ को वह महाराष्ट्र में रह रहे अमीर तमिलों पर नहीं बल्कि गरीबों पर अमल में लाता है। उसकी हिम्मत एक भीड़ में पौरुष दिखाने वाले गीदड़ की हिम्मत के समान है। यह सत्य देश के हर गुण्डे़ के बारे में भी सच है कि वह अपनी हिम्मत के कारण नहीं बल्कि सत्ता और हथियारों के आतंक के जरिये ही बाहुबली बनता है। फासीवादियों के बारे में तो यह खास तौर पर सच साबित होता है क्योंकि ये लोग केवल और केवल भीड़ में हमला करते हैं और कोई प्रतिरोध करने वाली छोटी ताकत के आगे भी ये दुम दबाकर भाग जाते हैं। ब्रेष्ट ने अपने नाटक ‘द रज़िस्टिबल राइज़ ऑफ आर्तुरो ऊई’ में यह दर्शाया है कि फासीवादी उभार किस तरह आर्थिक संकट की पैदाइश है और एक मामूली गुंडा किस तरह लोगों की निष्क्रियता की वजह से ताकतवर बनता है जबकि उसे रोका जा सकता था। इसमें हिटलर के जीवन की तुच्छता और उसके द्वारा अवसरवादी तौर पर इस्तेमाल किये गये जुमलों का कुल जमा जोड़ आया है। ब्रेष्ट द्वारा रचित किरदार एक कमजोर आदमी है जो तमाम परिस्थितियों और लोगों की निष्क्रियता के कारण पूँजीपतियों के पैसे के दम पर सत्ता हासिल करता है। जबकि ‘ठाकरे’ फिल्म में शुरुआत से ही व्यक्ति पूजन और ठाकरे के चरित्र को नायकत्व से भरने का प्रयास किया गया है। इसका आस्वादन फासीवादी ज़हर से भरे दिमाग ही कर सकते हैं। असल में इस फिल्म का मकसद भी यही था। ‘मोंसेय वरडु’ और ‘ग्रेट डिक्टेटर’ में चार्ली चैपलीन भी हिटलर का मखौल उड़ाते हैं और दिखाते हैं कि कैसे आर्थिक संकट के कारण फासीवाद पैदा हुआ। चार्ली चैपलीन को अपनी विचारधारात्मक प्रतिबद्धताओं के चलते अमरीका से निकाल दिया गया और कईं ऐसे लोग थे जो चैपलीन सरीखे बड़े नाम नहीं थे परंतु जिन्हें कम्युनिस्ट होने के नाम पर प्रताड़ित किया गया। यूरोप में कलाकारों ने भयंकर दमन झेलकर भी संघर्ष को जिलाये रखा। भारत में आज़ादी के दौर से लेकर नक्सलबाड़ी उभार तक कई कलाकारों ने जनता के संघर्षों के प्रति अपनी पक्षधरता बरकरार रखी। परंतु बाज़ार के हाथों बिक चुके अभिनेताओं से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है और न ही नवाज़ से यह उम्मीद रखी जा सकती है। नवाज़ सरीखा बॉलीवुड का कोई भी अभिनेता अपने कैरियर में ऊपर पहुँचने के लिए बहुत समझौते करता है। इसके लिए वह उन सभी सिद्धान्तों को बलि चढ़ाने से हिचकता नहीं है। किसी फासीवादी प्रयोजनमूलक फिल्म में काम करने को ”कला के लिए काम करना’ बताना लोगों की आँख में धूल झोंकना है। इस फिल्म की पटकथा पढ़कर ही समझा जा सकता था कि फिल्म में एक फासीवादी नेता के उभार का विवरण सच्चाई से कोसों दूर है। नवाज़ एक साक्षत्कार में यह भी बताते हैं कि वे किसी किरदार को उसमें अन्तर्निहित विचार के चलते नहीं बल्कि व्यक्तित्व के कारण चुनते हैं। गोया व्यक्तित्व विचार से रहित कोई चीज़ हो। विचार से रहित किरदार का पक्षपोषण असल में यह स्वयं एक विचारधारा है। वे बाल ठाकरे के व्यक्तित्व की तारीफ़ करते हुए कहते हैं- ‘‘वह एक विराट व्यक्तित्व के व्यक्ति थे। हमें उनकी स्तुति करने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि वे पहले से ही महान थे।… निश्चित ही उनका जीवन कई विवादों से भरा था। पर हमें उनके विराट व्यक्तित्व के पीछे उनकी असल जि़न्दगी देखनी थी। वे अच्छी खासी नौकरी कर रहे थे और जब मिल बन्द हो गई तो अपने (मराठी) लोगों के लिए अपना जीवन लगा दिया।….. मैंने उनके कमरे उनके कपड़े रखने की अलमारी देखी, सोफा देखा और उनका डिजाइन और उनका रंग उनके सौन्दर्य बोध को बताता है।’’ नवाज़ को शिव सेना में प्रगतिशीलता नज़र आती है क्योंकि शिव सेना ने नवाज़ में मुसलमान नहीं बल्कि कलाकार देखा! उन्होंने लगभग हर साक्षात्कार में कहा कि बाल ठाकरे के विराट व्यक्तित्व के कारण यह किरदार चुना। किरदारों और उनकी ‘महानता’ में विचार गायब हो तो आपको नरसंहारी और दंगे करवाने वाले लोग भी महान प्रतीत हो सकते हैं। जर्मन फिल्म जगत में एक बड़ी फिल्मकार लैनी राइफैन्सटल को भी हिटलर का महान व्यक्तित्व पसन्द आता था और इसलिए ही उसने नाज़ी सत्ता के स्तुति और नाज़ी प्रचार में भूमिका निभायी। लैनी ने हिटलर के व्यक्तित्व की स्तुति कुछ यूँ की थी:
” मेरे लिये हिटलर अभी तक जीिवत महानतम व्यक्ति हैं। वे सच में त्रुटिरहित हैं, इतने साधारण परन्तु पौरुषुत्व से लबरेज़… वे बहुत खूबसूरत हैं, वे बुद्धिमान हैं। उनसे ऊर्जा निकलती है। जर्मनी के सभी महान व्यक्ति- फ्रेडरिक, नीत्शे, िबस्मार्क- में गलतियाँ थी। िहटलर के भक्त दोषरहित नहीं है। केवल वे शुद्ध हैं।” इस महानता के पूजन के पीछे कोई भोलापन नहीं अवसरवादिता और उनकी फासीवादी विचारधारा ही थी। नवाज़ भी भोलेपन का सहारा लेकर व विचारधारा के स्वतंत्र होने की बात कहकर अपनी अवसरवादिता को छिपा नहीं सकते हैं। खुद नवाज़ की विचारधारा फासीवादी नहीं है पर ऐसी नपुंसक अवसरवादिता सत्ता की चाटुकारिता ही करती है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-दिसम्बर 2019
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