‘अच्छे दिनों’ की मृगतृष्णा

अविनाश

मृगतृष्णा  एक दृष्टि भ्रम  होता है  जो  आपको उस चीज पर विश्वास दिलाता है जो यथार्थ से कोसों दूर होता है। मोदी सरकार ने भी ठीक इसी तरह अच्छे दिनों के गुलाबी हसीन सपने दिखाए थे ।यह वह समय था जब जनता कांग्रेस की एक दशक के कार्यकाल में घोटालों, बढ़ती गरीबी, रोजगार रहित विकास आदि से परेशान थी। तब छप्पन इंच का सीना फाड़े शेर की तरह दहाड़ता हुआ जगह-जगह ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ का पोस्टर बैनर व विज्ञापन मिल जाता था। पूँजीपतियों  को आर्थिक मन्दी के दौर में एक ऐसी पार्टी की जरूरत थी जो कांग्रेस से भी दस कदम आगे डण्डे मार कर जनता से मुनाफा लूट सके इसीलिए टाटा, बिड़ला, अम्बानी, अडानी ने सोलहवें लोकसभा चुनाव में प्रचार में ₹40000 करोड़ खर्च किया जिसमें से अकेले 10000 करोड़ रुपये मोदी पर खर्च किए गये। दरअसल ’बहुत हुई महँगाई की मार ,अबकी बार मोदी सरकार’,‘बहुत-बहुत जनता पर वार, अबकी बार मोदी सरकार’,’सबका साथ सबका विकास’ जैसे नारों की जरूरत फासीवादियों को अपने आप को स्वच्छता, नैतिकता, शुद्धि के पर्याय के तौर पर पेश करने के लिए होती है। ऐसा इसलिए होता है कि पूरी की पूरी फासीवादी राजनीति दरअसल राजनीति का सौंदर्यीकरण करती है। आज की पूँजीवादी व्यवस्था में सूचना संचार और संस्कृति का तंत्र सिनेमा के बाद टेलीविजन, केबल, कम्प्यूटर और इन्टरनेट के वर्तमान दौर में जितना संगठित है उसकी पहुँच जितनी व्यापक हुई है और विचारधारात्मक प्रचार आक्रमण और अनुकूलन के जितने सूक्ष्म और बहुआयामी  तौर तरीके आज चलन में है इतना पहले कभी नहींं थे। मनोरंजन और विज्ञापन उद्योग न सिर्फ पूँजी निवेश के बहुत बड़े क्षेत्र बन गये हैं बल्कि संस्कृति और विचारधारा क्षेत्र मे इन्होंने विश्व पूँजी को अभूतपूर्व नयी शक्ति और प्रभाव क्षमता से लैस किया है।  पूँजीवादी सांस्कृतिक उत्पादन आज एक विश्वव्यापी उद्योग के समान संगठित तरीके से काम कर रहा है। फासीवादी राजनीति ने भी इसका जमकर इस्तेमाल किया है। अगर हम इन फासीवादी नारों की जमीनी हकीक़त पर गौर करें तो चीज़ें और स्पष्ट होती हैं।

बहुत हुई महँगाई की मार

ग्लोबल हंगर इंडेक्स रिपोर्ट के मुताबिक 119 देशों में भारत 100वें पायदान पर आता है जो कि नॉर्थ कोरिया, बांग्लादेश से भी पीछे है। एक दूसरे आंकड़े के मुताबिक 2015-16 में 1/5 से भी ज्यादा बच्चे  (21 प्रतिशत) वेस्टिंग (लंबाई के हिसाब से कम वजन) से जूझ रहे  हैं। आज एक बड़ी आबादी को सम्पूर्ण आहार, जिसमें कार्बोहाइड्रेट, फाइबर, मिनरल्स, विटामिन शामिल है, नहींं मिलता है। 1991 यानी निजीकरण उदारीकरण नीति के लागू होने के बाद से 2015 तक प्रति व्यक्ति दाल का सेवन 61 ग्राम से घटकर 44 ग्राम तक पहुँच गया है। पर जो ‘बहुत हुई महँगाई की मार, अबकी बार मोदी सरकार’ के नारे दे रहे थे उनकी सरकार में नवम्बर 2015 में अरहर दाल के दाम ₹200 प्रति किलो तक पहुँच गये थे। आज दाल, सब्जी ,तेल, गैस आदि रोजमर्रा के सभी सामानों के दाम में इज़ाफ़ा हुआ है। अभी हाल ही में पेट्रोल और डीजल के दाम में 5 साल में  सबसे ज्यादा बढ़ोत्तरी देखी गयी है । इकॉनॉमिक टाइम्स रिपोर्ट के मुताबिक पेट्रोल डीजल के दाम के बढ़ने से किराने के सामान में 4 से 7% की बढ़ोत्तरी होगी । पर सवाल यह है कि क्या मौजूदा सरकार बढ़ती महँगाई पर अंकुश लगा सकती है। आइए देखते हैं बढ़ते तेल के दाम के पीछे के कारण क्या है।अभी हाल ही में सरकार ने पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाये हैं पेट्रोल के दाम दिल्ली में 73.73 रुपये और वही मुंबई में 86.33 है। यह सब 14.5 प्रतिशत कच्चे तेल में वृद्धि और 3.2% रुपये में हुए गिरावट के चलते हुआ है ।पर इस सरकार में अगर पेट्रोल के दामों पर गौर करें तो पता चलेगा कि जब कच्चे तेल के दाम मई 2014 में $113 प्रति बैरल से घटकर जनवरी 2015 में $50 प्रति बैरल पर आ गयी तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे अपना भाग्य बताया था।कच्चे तेल के दाम गिरने का सिलसिला यहीं नहींं रुका बल्कि जनवरी 2016 तक यह $29 प्रति बैरल तक पहुंच गयी पर इसका असर आम जनता को पेट्रोल डीजल के दामों में कटौती के तौर पर बिल्कुल नहींं मिला बल्कि पेट्रोल और डीजल की एक्साइज ड्यूटी में 5 मई 2014 से सितम्बर 2017 तक 12 गुना की वृद्धि देखी गयी। पेट्रोलियम प्लानिंग एंड एनालिसिस ( PPAC) डाटा के अनुसार एक्साइज ड्यूटी 54 प्रतिशत बढ़ी, वैट में 46% और डीलर कमीशन में 73% की वृद्धि हुई। सरकार ने 99 हजार करोड़ 2014-15 से 242 हजार करोड़ 2016-17 में यानी 15 महीने में रेवेन्यू दोगुना हो गया आज हालात ऐसे हैं कि पूरी दक्षिण एशिया में भारत में पेट्रोल और डीजल के दाम सबसे ज्यादा हैं। मौजूदा सरकार ने महँगाई की मार पर रोक लगाने के बजाय बढ़ाने में सबसे बड़ा योगदान दिया है।

बहुत हुआ महिलाओं पर वार

मोदी सरकार ‘बेटी पढ़ाओ बेटी बचाओ’ के नारे को लायी थी जिससे सम्भवतः महिलाओं कि साक्षरता बढ़नी चाहिए थी और महिला विरोधी अपराधों में कमी आनी चाहिए थी। भारत में 2011 की जनगणना के अनुसार 1000 पुरुषों पर 940 महिलाएँ हैं। यह आँकड़ा हरियाणा में 879, चंडीगढ़ में 818, दिल्ली में 868 तक पहुंच जाता है। वहीं साक्षरता दर 74.4% है जिसमें से पुरुष साक्षरता दर 82.14 प्रतिशत है और महिला साक्षरता दर 65.48% है। जिस स्कीम के तहत 161 जिलों में घटते लिंगानुपात जिसका एक कारण भ्रूण हत्या है, उसके लिए जनता को जागरुक करने के लिए अभियान चलाया जाना था। पर इसका 90% पैसा पार्लियामेंट्री पैनल के अनुसार इस्तेमाल ही नहींं किया गया। 2016-17 में इस स्कीम के 43 करोड़ में से सिर्फ 5 करोड़ खर्च किया गया। एनसीआरबी रिपोर्ट के अनुसार 2015 में कुल 10,854 मामले दर्ज हुए थे वहीं 2016 में इसकी संख्या बढ़कर 19,765 हो गयी। अभी 2017 की रिपोर्ट आनी बाकी है। सबसे ज्यादा शर्मसार करने वाली घटना 2018 की शुरुआत में घटी जिसमें कठुआ में 8 साल की बच्ची के साथ बर्बर तरीके से बलात्कार किया गया और मार दिया गया। इस घटना के बाद ‘हिंदू एकता मंच’ द्वारा आरोपियों के समर्थन में रैली निकाली गयी जिसमें भाजपा के दो विधायक भी शामिल थे। इस पूरे मामले को साम्प्रदायिक रंग दिया गया। वहीं दूसरी घटना में जनता के सेवक बीजेपी एम.ल.ए. कुलदीप सिंह सैंगर ने एक नाबालिक लड़की के साथ बलात्कार किया जिसपर उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ की सरकार ने 1 साल तक कोई कार्रवाई नहीं की, जब तक उनके मुख्यमंत्री के दफ्तर पर लड़की ने जान देने की कोशिश नहीं की थी। उसके बाद भी लड़की के पिता को गिरफ्तार करके हवालात में बंद कर दिया गया, जहां पर उनकी मौत हो गयी। इन घटनाओं की जब परतें खुल ही रही थी उसी समय देश के अलग-अलग इलाकों सासाराम, सूरत और इंदौर में भी ऐसी बर्बर घटनाएँ घट रही थी। इस पर भी बीजेपी के नेताओं द्वारा घृणास्पद बयान देना जारी था। साथ-साथ आसाराम, राम रहीम जैसे बाबाओं के साथ भाजपा नेताओं की साँठ-गाँठ से सभी वाकिफ़ हैं। इन घटनाओं से भाजपा सरकार का ‘चाल-चेहरा-चरित्र’ सबके सामने उजागर हो जाता है।

किसका साथ किसका विकास

ऑक्सफैम की रिपोर्ट के अनुसार 2017 में देश के 1% लोग देश की 73% सम्पत्ति पर कब्जा करके बैठे हैं। अमित शाह के बेटे जय शाह की सम्पत्ति में 16000 गुना की वृद्धि हुई है, विजय माल्या और नीरव मोदी जो 9000 करोड़ और 11000 करोड़ रुपये लोन लेकर विदेश भाग गये। पनामा और पैराडाइज़ पेपर के खुलासे के बाद सरकार की नंगयी साफ तौर पर जगजाहिर हो गयी कि इनका मकसद काला धन लाना नहीं उसे सफ़ेद धन में तब्दील करना है। इस साल रिकॉर्ड ब्रेक करते हुए सरकार ने एनपीए के मातहत 1,44,093 करोड़ रुपये माफ़ कर दिया। एक तरफ धन्नासेठों-मालिकों के लिए पलकें बिछाकर काम किया जा रहा है वहीं दूसरी तरफ कश्मीर से तूतीकोरिन तक जनता के प्रतिरोध को डंडे और बन्दूक के दम पर दबाया जा रहा है। छात्र, नौजवान, मजदूर, किसान, दलित, महिलाएँ  सब पर चौतरफा हमला किया जा रहा है। 2 करोड़  नौकरियाँ हर साल देने का वादा, नमामि गंगे में 7000 करोड़ रुपये खर्च किये जाने, 2019 तक सबको बिजली जैसे लोकलुभावन वायदों की हकीकत सबके सामने खुल रही है। अच्छे दिन आये पर धन्नासेठों के लिए, आम जनता की हालात बद से बदतर ही हुई है।

‘अच्छे दिनों’ की मृगतृष्णा को तोड़ो

दरअसल फासीवादी प्रचारतंत्र ऐसे ही जनता के बढ़ते असन्तोष को फासीवादी राजनीति के अनुसार संयोजित करके काम करता है क्योंकि इसका दर्शन प्रतिक्रियावादी व्यवहारवाद होता है। ऐसे किस्म के प्रचार में अनगिनत किस्म के आकारहीन और दिशाहीन सामाजिक असन्तोष को अपने मे समेट लेने की क्षमता होती है। कारण यह है कि फासीवादी प्रचार वास्तव में एक साथ इन तमाम अस्पष्ट सामाजिक असन्तोष के  शिकार वर्गों को हर एक चीज़ देने, मगर वास्तव में कुछ भी न देने, का वादा करते हैं। फासीवादी विचारधारा और राजनीति अपने विचार पद्धति के जरिये एकदम असमान, असम्बद्ध प्रकार के और अक्सर आपस में अन्तर्विरोधी किस्म के असन्तोष, आकांक्षाओं और सपनों को एक सर्वसमावेशी (महंगाई, गरीबी, काला धन पूँजीवाद में पैदा होंगे ही , इन्हें इस व्यवस्था में दूर नहीं किया जा सकता) या कहे सर्वसत्तावादी किस्म के लोकरंजक राजनीति ढांचे में सम्मिलित कर लेते हैं। ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ जैसे नारों की सच्चाई यही होती है कि यह प्रचार सच्चाई से जितना दूर और जितना रूमानी फंतासी के करीब होता है उतना प्रभावी होता है। इसके जरिये यह जनसमुदाय विशेषकर टटपुँजिया जनसमुदाय के बीच मौजूद प्रतिक्रियावादी सम्भावनाओं को वास्तविकता में तब्दील कर सकता है। ऐसे में क्रान्तिकारी प्रचार  की अहमियत सबसे ज्यादा बढ़ जाती है। इससे लड़ने का तरीका यही है कि आज फासीवादी प्रचार के विरुद्ध क्रान्तिकारी ताकतों को प्रचार करना चाहिए और उसकी असत्यता को जनता के बीच उघाड़कर रख देना चाहिए। फासीवादियों के बीच व्याप्त अनैतिकता और भ्रष्टाचार को लगातार बेनकाब करना चाहिए क्योंकि इन्हें अपनी राजनीति को सफल बनाने के लिए हमेशा एक आभामण्डल की आवश्यकता होती है (आसिफा, गौरक्षा पर मोदी की चुप्पी)। इस सब के लिए जनसमुदाय को उनके जीवन की ठोस भौतिक, सामाजिक और आर्थिक मांगों के लिए लगातार गोलबंद और संगठित करना चाहिए (शिक्षा, चिकित्सा रोजगार आदि मुद्दे), उन्हें यह समझाना चाहिए कि उनके जीवन में यह समस्या क्यों है, उसके लिए कौन जिम्मेदार है।  इन सबके साथ-साथ सर्वहारा पुनर्जागरण और प्रबोधन के कार्यभार को पूरा करना भी जरूरी होता है।

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-दिसम्बर 2018

'आह्वान' की सदस्‍यता लें!

 

ऑनलाइन भुगतान के अतिरिक्‍त आप सदस्‍यता राशि मनीआर्डर से भी भेज सकते हैं या सीधे बैंक खाते में जमा करा सकते हैं। मनीआर्डर के लिए पताः बी-100, मुकुन्द विहार, करावल नगर, दिल्ली बैंक खाते का विवरणः प्रति – muktikami chhatron ka aahwan Bank of Baroda, Badli New Delhi Saving Account 21360100010629 IFSC Code: BARB0TRDBAD

आर्थिक सहयोग भी करें!

 

दोस्तों, “आह्वान” सारे देश में चल रहे वैकल्पिक मीडिया के प्रयासों की एक कड़ी है। हम सत्ता प्रतिष्ठानों, फ़ण्डिंग एजेंसियों, पूँजीवादी घरानों एवं चुनावी राजनीतिक दलों से किसी भी रूप में आर्थिक सहयोग लेना घोर अनर्थकारी मानते हैं। हमारी दृढ़ मान्यता है कि जनता का वैकल्पिक मीडिया सिर्फ जन संसाधनों के बूते खड़ा किया जाना चाहिए। एक लम्बे समय से बिना किसी किस्म का समझौता किये “आह्वान” सतत प्रचारित-प्रकाशित हो रही है। आपको मालूम हो कि विगत कई अंकों से पत्रिका आर्थिक संकट का सामना कर रही है। ऐसे में “आह्वान” अपने तमाम पाठकों, सहयोगियों से सहयोग की अपेक्षा करती है। हम आप सभी सहयोगियों, शुभचिन्तकों से अपील करते हैं कि वे अपनी ओर से अधिकतम सम्भव आर्थिक सहयोग भेजकर परिवर्तन के इस हथियार को मज़बूती प्रदान करें। सदस्‍यता के अतिरिक्‍त आर्थिक सहयोग करने के लिए नीचे दिये गए Donate बटन पर क्लिक करें।