एनआरसी के ड्रैगन को समझिए!
नाम में ही सब कुछ रखा है, लेकिन आपका नाम कहाँ है?
इस्लाम हुसैन
आपके काग़ज़ों में दादा-दादी, नाना-नानी के नाम में थोड़ा-सा अन्तर या अलग नाम आपको यातनागृह में डाल देगा।
रमुवा और रामू ही राम सिंह या राम लाल/राम प्रसाद है, या रामलाल, फकीरे, फकीर चन्द्र/चन्द है यह आज आप नहीं जान सकते।
आप ऐसे ही हज़ारों, लाखों, करोड़ों रमुवा, पदुवा, धनुआ, नत्थू, छिद्दा पिद्दा, रमुली, जसुली, नथिया, बुंदिया, बुल्ले, कीकर, झोंटू, दुल्ला, गुल्ला, बेलू, को नहीं जानते।
आप जान ही नहीं सकते, क्योंकि ये प्राणी जिसके नाम चुनाव सूची या अन्य दस्तावेज़ों में जो दर्ज हैं, वह वो नहीं होते हैं जो नाम लिखे हैं, उनके नाम वो हैं जिसे भारत सरकार का चुनाव आयोग और सरकारी सिस्टम नहीं जानता। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसी ही दस्तावेज़ी भूलों व ग़लतियों के आधार पर नागरिकता संशोधन का भरतनाट्यम चलाया और दिखाया जा रहा है। जिसपर सब नाचने के लिए बाध्य किये जा रहे हैं। कुछ नाच रहे हैं कुछ नाचने के लिए तैयार है।
एनआरसी और नागरिकता के मुद्दे पर हो रहे हंगामें के बीच अनेक विचार आते रहे, एक विचार यह था कि क्या होगा देख लेंगे, लेकिन जब अगली पीढ़ी का ख़्याल आता तो उलझन होती, काग़ज़-वाग़ज़ देखने का अब मन नहीं करता।
इस विवाद के बीच पहले मेरा एक बच्चा, जो आज की परिभाषा में एक विख्यात विश्व विद्यालय में (ग्रेजुएशन के बाद आगे एमटेक) उच्च शिक्षा ग्रहण कर रहा है, वह आया हुआ था, और नागरिकता क़ानून को लेकर बहुत ग़ुस्से में था, आमतौर पर वह अपनी पढ़ाई के अलावा मामलों में ख़ामोश रहता है, लेकिन इस मामले को लेकर बेचैन था।
बातचीत में उसने बताया कि आधार कार्ड में ग़लत नामों का इन्दराज का रेट 5-8% है, और चूंकि आधार को नागरिकों की पहचान से जोड़ने का प्रोपगेण्डा ख़ूब हुआ था इसलिए अधिकांश नागरिकों ने अपने आधार कार्ड बनवा लिये हैं, यदि उसमें उनके नाम ग़लत इन्दराज हुए होंगे तो वो कहाँ जायेंगे – डिटेंशन सेन्टर, अभी तक जो असम का अनुभव है उसको देखकर यही लगता है, जहाँ बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिनके डाक्यूमेन्ट्स के नाम में अन्तर था।
मैं एकदम चकरा गया, और मुझे 25-30 साल पहले वोटर सूची और वोटर आईडी में दर्ज हुए नाम का प्रकरण याद आ गया। लेख के आरम्भ में मेरे सवाल का यही आधार है।
यदि आप के पास 25-30 साल पहले वाली वोटर सूची होती तो आप किसी भी मुहल्ले में मकान नम्बर मिलने के बाद भी उस व्यक्ति को नहीं ढूँढ़ पाते, मकान में पहुँच भी जाते तो आपको अपने पर और सरकारी अमले की नालायक़ी पर खीज और ग़ुस्सा आता।
मेरे बच्चे ने तो आधारकार्ड की ग़लती होने का औसत 8% बताया, मगर वोटर आईडी में यह औसत इससे कहीं अधिक है।
मैने अपने शहर की मिलीजुली आबादी के एक मतदान केन्द्र की लगभग 2100 मतदाता सूची का जो अवलोकन किया उसे देखकर यही लगता है कि एनआरसी लगने पर देश के नागरिक एक बड़े संकट में फँसने वाले हैं। इसमें मतदाताओं के नाम में ग़लती का प्रतिशत 14-18% है।
तो कुछ देशप्रेमी जो लगातार राष्ट्रीय स्तर पर एनआरसी का समर्थन कर रहे हैं उन्हें बताते चलें कि असम का अनुभव बताता है कि वहाँ 3 करोड़ आबादी में से 40 लाख लोग नागरिकता रजिस्टर से बाहर हो गये थे, पुनः वेरीफ़िकेशन में जिनकी संख्या बाद में 19 लाख रह गयी थी। (इस अवधि में लोगों को कितनी मानसिक पीड़ा होगी इसकी कल्पना करना मुश्किल है। )
इस आधार पर पूरे देश की कम से कम 20 प्रतिशत जनसंख्या (अर्थात 20-30 करोड़) बुरी तरह पीड़ित होगी। जिसमें सभी धर्म और जाति के लोग शामिल होंगें, ऐसा नही कि कोई धर्म विशेष के लोग ही परेशान होंगे। और जो जितना ग़रीब होगा, और सुदूर क्षेत्र का निवासी होगा वह उतना ही पीड़ित होगा। ज़रा कल्पना करें कि पर्वतीय या बीहड़ इलाक़े में रहने वालों को ज़िला या ब्लॉक मुख्यालय में एनआरसी में नाम जुड़वाने के लिए कितने चक्कर लगाने पड़ेंगें। और यदि नहीं हुआ तो कितनी ज़लालत झेलनी पड़ेगा।
यह उन लोगों से पूछिए जिन्हें किसी सरकारी योजना का लाभ लेने के लिए अनिवार्य रूप से बैंक खाता खोलने के लिए अनेक बार अपने घर से बैंक शाखा तक 20-20 कि.मी. पैदल चक्कर लगाने पड़े थे, क्योंकि हमारा अनुभव है कि बैंक के साहब ग़रीबों का बैंक खाता तक एक ही दिन में आसानी से नहीं खोलते। और यह तो एनआरसी जैसी भारी भरकम प्रक्रिया है साहब।
उत्तराखण्ड के सन्दर्भ में जान लें कि यहाँ कम से कम 20 लाख लोग बुरी तरह पीड़ित होगें।
इससे पहले कुछ तथ्य जानना ज़रूरी है जिनमें कि अभी भी हमारे देश में वास्तविक साक्षरता और आँकड़ों की साक्षरता में बड़ा अन्तर है और तीन दशक पहले जब वोटर आईडी शुरू की की गयी थी तो और भी बुरा हाल था। पढ़े-लिखे और अध्यापन जैसे व्यवसाय में जो लोग हैं उनकी भाषा वर्तनी की शुद्धता पर भी सवाल है, मतदाता या आधार कार्ड बनाने वाले सभी धर्मों/भाषाओं की गूढ़ता/बातों/रस्मों और प्रतीकों को जानते हों यह ज़रूरी नहीं यही कारण है कि प्रमाणपत्रों और दस्तावेज़ों में लिखे नाम उनके वास्तविक नामों से भिन्न हो गये हैं।
फिर जागरुकता का अभाव हर काल में रहा है, यहाँ तो पढ़े -लिखे भी बात समझने के लिए तैयार नहीं होते, हिन्दी में नाम की अशुद्धियों के अतिरिक्त अंग्रेज़ी में दिये नाम में और भी ग़लतियाँ देखी गयी हैं।
मतदाता सूची में और अन्य दस्तावेज़ों में ब, भ, स श, अ, ह, त, थ, आधा त, र, स श न, ह, के प्रयोग की भयंकर अशुद्धियाँ शामिल हैं। नाम में ग़लत शब्द के प्रयोग से धर्म का बोध तक बदलता देखा गया है, मुस्लिम नाम कफ़ील के हिन्दू नाम कपिल बनने में देर नहीं लगती, इसी तरह मुस्लिम नाम निशात, बदलते बदलते निशाद हो जाता है। क़तील नाम क़ातिल हो जाये कह नहीं सकते। गुरमित ही गुरप्रीत है यह सिद्ध करना आसान नहीं होगा।
पर्वतीय क्षेत्रों में ‘त्र’ अक्षर से अनेक नाम ख़ूब प्रचलित हैं, त्रिभुवन, त्रिलोक, त्रिलोचन, त्रिपुरारि, आदि-आदि यह शब्द कम से कम तीन अन्य तरह से दस्तावेज़ों में मिलता है, जैसे, तिरलोक, तिलोक, तिरिलोक/तिरीलोक। इसी तरह आधे अक्षरों से युक्त शब्दों के एक से अधिक रूप हैं : देवेन्द्र, देवेन्द्रा, देविन्दर, देवेन्दर। चन्द्र कब और कैसे चन्दन हो जाये या चन्द्रा हो जाये कहा नहीं जा सकता।
इसी तरह एक मुस्लिम नाम ‘इशहाक़’ मतदाता सूची/दस्तावेज़ों में कैसे-कैसे लिखा गया है इसकी बानगी देखिए, ईशाक, इशाक, इश़ाक, इशहाक, इश्हाक, ईश़हाक, ईशहाक।
इसी तरह ईश्वर शब्द भी अनेक रूपों में दस्तावेज़ों में मिल जायेगा।
परेशानी यह है कि वर्तमान समय में कम्प्यूटर की मूल भाषा अंग्रेज़ी होने के कारण ॉपरेटर कैसे लिखता है, जो कि आपके मूल दस्तावेज़ से भिन्न है, इसे अच्छे-अच्छे पढ़े लोग नहीं जान पाते हैं, अशिक्षित और कम जानकारों के लिए यह सब बहुत ही मुश्किल है।
हिन्दी से रोमन या अंग्रेज़ीकरण करने का कोई मानक तय नहीं है। (यदि होगा तो उसकी जानकारी नहीं है और न व्यवहार में ऐसा हो सकता है) हिन्दी टाइपिंग में वर्तनी की अशुद्धियों और भूलों को सुधारने का न तो कोई नियम है और न उसे सुधारने की कोई स्वतः प्रक्रिया ही अस्तित्व में है।
दस्तावेज़ों में ग़लतियों से फ़ौजियों/फ़ौजी परिवारों को सर्विस के दौरान और रिटायरमेन्ट के बाद अपने बच्चों के नाम में फ़र्क़ से होने वाली परेशानी से भटकते देखा है। बैंक एकाउण्ट से लेकर स्कूल में दाख़िल होने तक में परेशानी आती है। ऐसे में यदि दादा, नाना के मूल नामों में अन्तर आया तो एनआरसी में नागरिकता सिद्ध करना आसान नहीं होगा, असम में ऐसे लोगों का बहुत बड़ा प्रतिशत है।
एक सार्वजनिक कम्पनी में प्लेसमेंट और ट्रेनिंग का कार्य देखते हुए और बाद में संस्थागत कार्य करते हुए नामों में बहुत ग़लतियाँ मिली, हिन्दी और अंग्रेज़ी के नाम में बहुत अन्तर से बखेड़े होते हुए देखे हैं। जिसके कारण लोगों के बहुत काम अटके, वह या तो नहीं हुए या फिर देर से हुए, नवराष्ट्रवाद के काल में ऐसा भी हुआ कि बच्चों के स्कूलों में एडमीशन और परीक्षाओं में प्रवेश में भी आधार कार्ड के और दूसरे दस्तावेज़ों में दर्ज नामों के अन्तर के कारण परेशानी और झंझट हुए।
हमारे समय में हिन्दी वर्णमाला के साथ बारहखड़ी एक आवश्यक अभ्यास था ताकि शब्द लिखने में और वाक्य विन्यास में आसानी हो, अब ऐसा नहीं होता। बात मज़ाक़ में की जाती है कि हिन्दी में बीए, एमए करने वाला हिन्दी की 10 पंक्तियाँ शुद्ध नहीं लिख सकता, यही हाल अंग्रेज़ी का भी है।
ऐसी स्थिति में यदि एनआरसी समर्थक भी जब अपने या अपने परिवार के सदस्यों के नामों को सही करने के लिए लाइन लगायेंगे तो कितना श्रम, उर्जा और धन की बर्बादी होगी इसको सोचकर सिहरन होती है। असम का अनुभव है कि वहाँ लोग चार साल तक पगला गये थे, हर परिवार के हज़ारों रुपये अनावश्यक इसमें लगे थे। 16000 करोड़ रुपये यदि सरकारी पैसा ख़र्च हुआ है तो वह भी देश का पैसा बर्बाद हुआ है, एक अध्ययन के अनुसार एक असमिया के एनआरसी रजिस्टर में अपना नाम दर्ज/वेरीफ़ाई कराने में औसतन 19000 रुपये ख़र्च हुए हैं। कल्पना करें कि पूरे देश में कितनी बड़ी बर्बादी होने जा रही है।
इस स्थिति की गम्भीरता को इस तरह समझें कि किन्हीं लोगों के पिता/बुज़ुर्गों का नाम भूमि आदि के दस्तावेज़ों में रामू, दीनू, नथुवा, बलवन्ता लिखा है जबकि उनके दस्तावेज़ों में क्रमशः राम सिंह या रामलाल, रामप्रसाद, दीनानाथ, दीनदयाल, और बलवन्त सिंह है तो उन्हें बहुत कुछ सिद्ध करना पड़ सकता है। उदाहरणार्थ रामू क्या वास्तव में तुम्हारे बाप/बुज़ुर्ग थे। यह जान लें कि अभी तक दस्तावेज़ों तक में अशुद्ध या देशज/घरेलू नामों का प्रयोग ख़ूब हुआ है और होता रहा है, अशिक्षित बुज़ुर्गों द्वारा दस्तावेज़ों में ख़ूब घरेलू नामों का प्रयोग होता था, स्कूल में दाख़िल होते समय यह नाम कुछ का कुछ हो जाता था। वैसे यह बिगड़ भी जाता था।
जिन लोगों ने अपने पिता के नाम दस्तावेज़ों में आधे-अधूरे व देशज नामों से ज़रा भी अलग रखे हैं, या स्कूल में मास्साहबों ने “सुधार” दिये हैं, ठेंगा सिंह एक दस्तावेज़ में ठाकुर सिंह हो सकते लेकिन दस्तावेज़ में दोनों एक ही हैं यह सिद्ध करना मुश्किल हो जायेगा। ऐसे लोग जान लें कि उनपर बड़ी आफ़त आने वाली है, यह नाम रमुवा, भिमुवा, जसुली, परूली से लेकर छिद्दा, छिद्दू और ननकू तक हो सकते हैं।
क्योंकि जैसे आजकल के बहुत से माँ-बापों तक को यह पता नहीं होता उनका मुन्ना, पिंकी, गुड्डी, दस्तावेज़ों में क्या हैं। वैसे अब पप्पू, कार्की और गुड्डी अधिकारी भी होते हैं। ऐसे में सौ साल पहले की स्थिति की कल्पना करें। ध्यान रहे, स्कूल जानेवाले और हाईस्कूल तक पहुँचने वाले बहुत-से बच्चे अभी भी ख़ानदान में पहले होते हैं, यानी कि उनके माँ-बाप और बुज़ुर्गों ने इससे पहले स्कूल का मुँह नहीं देखा होगा।
अब ज़रा एक और तकनीकी पक्ष देखें एनआरसी प्रक्रिया में हर भारतीय की नागरिकता सन्दिग्ध मान ली जायेगी, आपको लाइन लगाकर यह सिद्ध करना होगा कि आपका जन्म 1972 से पहले भारत में हुआ है और यहीं रहते थे, यदि उसके बाद हुआ है तो आपके माता-पिता/दादा-दादी का जन्म उस अवधि से पूर्व भारत में हुआ था और वह यहाँ रह रहे थे। जिसके लिए आपके पास ऐसा दस्तावेज़ होना चाहिए। जन्म पंजीकरण के क़ानून को लागू हुए अभी जुमा-जुमा आठ दिन हुए हैं लेकिन आपको एनआरसी के लिए दश्को पुराने अपने बुज़ुर्गों का जन्म प्रमाण चाहिए होगा।
इस प्रक्रिया में यह बात समझ लें कि नाम लिखित में सही होना चाहिए और उस नाम से आपका या आपके पिता या माता का नाम मिलना चाहिए, या सम्बन्ध स्थापित होना चाहिए।
इस समय यह भूल जायें कि भारत में बड़ी संख्या में अशिक्षित, भूमिहीन, आदिवासी, घुमक्कड़ खानाबदोश, बिना मकान के इधर-उधर या खुले आसमान के नीचे फ़ुटपाथ में रहकर गुजरबसर वाले करोड़ों लोग हैं जिनके पास अपना या अपने बुज़ुर्गों के जन्म का कोई प्रमाण नहीं होता।
यदि बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं कि उनके पास अपने बुज़ुर्गों के जन्म की लिखित सनद है तो “वह भी” समझ लें कि उसमें से 25% पर आफ़त आने वाली है क्योंकि भूमि/ आदि के दस्तावेज़ों में 25% अशुद्धियाँ तो मिलनी हैं, यदि किसी के बुज़ुर्ग के नाम में अशुद्धि मिली तो बुज़ुर्ग का नाम तो ठीक होने से रहा उसे ही अपने और अपने बच्चों के नाम उसी तरह शुद्ध कराने पड़ेंगे, सामान्य रूप से समझ लें कि आपके बुज़ुर्ग का नाम जो कुछ है वैसा ही आपके दस्तावेज़ों में होना चाहिए।
आप अपने बच्चों या अपने आधार कार्ड का नाम सुधारना चाहते हैं तो अब यह आसान नहीं है, आधारकार्ड में नाम सुधार की प्रक्रिया बहुत कड़ी और सीमित कर दी गयी है, पिछले वर्ष तक यह हर सेन्टर पर आसानी से हो जाया करती थी। फिर आप अभी अपने या बच्चों के नामों में सुधार जैसे-तैसे कर भी लें (जो अब आसान नहीं हैं) तो अपने दादा-नाना का नाम कैसे ठीक करेंगे?
ऐसे में सबसे बड़ी समस्या दलितों, आदिवासियों, खानाबदोशों और प्रवासी लोगों की होने जा रही है, जिनके ख़ुद के प्रमाणपत्र नहीं होते वह अपने बाप-दादाओं के काग़ज़ात कहाँ से लायेंगे।
दलितों के साथ तो यह भयानक मज़ाक़ है क्योंकि अभी हाल तक उन्हें नाम रखने का अधिकार नहीं था, न ही उनका नामकरण होता था और न उनकी जन्मपत्री बनती थी। यहाँ तक यदि किसी दलित बच्चे का नाम ढंग का रख भी दिया गया तो उच्च वर्ग उस नाम को बिगाड़ देता था। रामलाल का रामू व रमुवा इसी तरह हो जाता था।
बेहद ग़रीबों, ग्रामीणों और प्रवासियों के सामने दस्तावेज़ सुरक्षित रखने का संकट भी रहा है, वह वर्षा, बाढ़, प्राकृतिक आपदा, आग, और अपने लगातार बदलते प्रवास में अपने सीमित काग़ज़ भी सुरक्षित कैसे रखें। उत्तर भारत में विशेषकर उत्तराखण्ड व हिमाचल में घुमन्तु वनवासी गूजर इसी समस्या से परेशान हैं।
यह जान लें कि इस प्रक्रिया में पूर्व राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अहमद और असम की पूर्व मुख्यमंत्री अनवरत तैमूर व कारगिल के हीरो फ़ौजी सनाउल्ला जैसे सेना अधिकारी ही नहीं परेशान हुए हैं, लाखों शर्मा, वर्मा और सुन्दर, चन्दर भी परेशान हुए हैं।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,मार्च-अप्रैल 2020
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!