कलाकार का सामाजिक दायित्व क्या है?
सनी
सच्चे कलाकार को जनता के दुखों को अपने कैनवास, सेल्यूलोईड या संगीत में उतार लाना होगा। इस कथन में ही यह निहित है कि मौजूदा बाज़ार पर चलने वाली व्यवस्था में एक कलाकार को अपनी कलाकृति को बाजारू माल नहीं बल्कि जनपक्षधर औज़ार बनाना होगा। आज जिस समाज में हम जी रहे हैं वह मानवद्रोही और कलाद्रोही है और नैसर्गिक तौर पर कोई भी कलाकार इस समाज की प्रभावी विचारधारा से ही निगमन करता है परंतु उसकी कला उसकी पूँजीवादी विचारधारा के नज़रिये के विरोध में रहती है। कला इसलिए ही एक आदमी द्वारा दूसरे आदमी के शोषण पर टिके मौजूदा समाज के खिलाफ़ विद्रोह के साथ ही संगति में रहती है। आज जब देश में फासीवादी सरकार जनता के हक अधिकारों को अपने बूटों तले कुचल रही है तो क्या इन मसलों पर कलाकारों द्वारा एक जनपक्षधर विरोध देश में उठता दिख रहा है? नहींं। हालाँकि कलाकार भी इन सभी मुद्दों से अलहदा नहींं हैं। इस सवाल पर थोड़ा विस्तार से बात करते हैं। ऊपर किये विमर्श से यह अर्थ निकलता है कि कलाकार को तमाम सामाजिक मुद्दों में अपनी पक्षधरता चुननी होगी, उसे अपना पक्ष देश की मेहनतकश जनता के पक्ष लेना होगा। इस प्रश्न को दो तरीकों से देखा जा सकता है। एक नैतिकता के नज़रिये से तो दूसरा एतिहासिक और वैज्ञानिक तौर पर।
पहले नैतिक नज़रिये से अगर इस सवाल को देखते हैं। कलाकार के जीवन कि सभी ज़रूरतें देश की आम मेहनतकश आबादी पूरा करती है। रोटी, कपड़ा मकान से लेकर हर ज़रूरत का सामान 12-14 घंटे फैक्टरियों और खेत-खलिहान में खटकर बनाती है। इस देश के हर नागरिक पर या कॉर्पोरेट घराने को जो पैसा दिया जा रहा है उसका सबसे बड़ा हिस्सा मेहनतकश आबादी पैदा करती है। कला के छात्र भी जो उच्च शिक्षण संस्थानों में पढ़ पा रहे हैं तो यह उनकी ज़िम्मेदारी बनती है कि वे अपने समाज को अपनी कला के जरिये बदल दें, उसकी सेवा करें। तमाम कला विद्यालयों महाविद्यालयों को विश्वविद्यालय अनुदान के जरिये कुल पढ़ाई लिखाई का एक बड़ा हिस्सा देश की जनता के जरिये मिलता है। सरकारी खजाने से मिलने वाले इस पैसे में सबसे बड़ा हिस्सा अप्रत्यक्ष करों से आता है जिसका सबसे बड़ा हिस्सा इस देश की गरीब जनता देती है। इसलिए क्या यह कलाकारों की नैतिक ज़िम्मेदारी नहींं बन जाती है कि वे उस मेहनतकश जनता और उस समाज का कर्ज चुकाएँ और जनता के पक्ष को हिम्मत के साथ उठायें। लोर्का, पिकासो से लेकर तमाम कलाकार जनता के कलाकार थे जो ज़रूरत पड़ने पर अपनी जान की कुर्बानी कर जनपक्षधर बने रहे।
अब दूसरे पहलू यानी ऐतिहासिक और वैज्ञानिक नज़रिये से इस सवाल को देखते हैं। कलाकार इस दुनिया की गति और उसकी आवाज़ों को सँवारते हैं, उसके रंगों को खूबसूरती देते हैं या बिम्बों और सिने दृश्यों को रचते हैं। पिकासो के शब्दों में कला ज़िन्दगी से अनावश्यक को छाँटने का काम करती है। आज की सामाजिक परिस्थिति में कलाकार क्या पक्ष चुने? किन आवाज़ों को सँवारे, किन दृश्यों को रचे? देश के अन्दर जनता पर और विश्वविद्यालयों में छात्रों पर सत्ता का दमन बदस्तूर जारी है। देश में फासीवादी सरकार का दमन विद्रोह की माँग कर रहा है। परन्तु कलाकार इन मुद्दों से अलग खड़े हैं। क्योंकि आज कला के उत्पादों को बाज़ारू माल बना दिया गया है और कला की सामजिक भूमिका के बारे में बात करना ही चलन में नहींं है। इस सवाल को भले ही हमें किताबें और अखबार और अकादमिक पाठ्यक्रम न बताये पर कला समाज में जो घट रहा है उससे प्रभावित होती है। यही कला की अनवरत चलती दास्ताँ है। आज भले ही कला को म्यूज़ियम और स्टूडियो तक सीमित कर दिया गया है और कला के दर्शन को “कला कला के लिए” तक सीमित कर दिया गया है परन्तु अगर हम जनपक्षधर कलाकारों की ज़िन्दगी और उनकी कलाकृतियों पर नज़र डालें तो ये कुछ और ही बयां करती हैं। कूर्बे खुद क्रान्तिकारी थे और उनकी कला सत्ता के दमन का विरोध करती थी और मेहनतकश आवाम की आवाज़ थी। लेओनार्दो दा विन्ची की विख्यात तस्वीर मोनालिसा में एक बर्गर यानि व्यापारी घराने की महिला की तस्वीर ने राजे रजवाड़े के परिवारों की जगह सत्ता से बाहर लोगों के जीवन को कला की दुनिया में प्रवेश कराया। मोनेट से लेकर माइकलएंजेलो ने अपने समय में मौजूद दमनकारी सत्ता की संस्कृति और राज्य को चुनौती दी। बीथोवेन की सिम्फनी नंबर पाँच फ़्रांसिसी जन क्रान्ति का विजय गान है तो पिकासो की गुएर्निका ने युद्ध के खिलाफ क्रान्तिकारी प्रतिरोध का झण्डा बुलन्द किया। परन्तु यह सब हमें क्लासरूम में नहींं पढ़ाया जाएगा। हमें अलग विधाओं ‘एक्सप्रेशनिज़्म, इम्प्रेशनिज़्म, सुर्रियलिज़्म” आदि से इमारत, मानव शरीर और क्षितिज की आकृति को उभारना सिखाया जायेगा परन्तु इन विधाओं के सामाजिक उद्भव और भूमिका पर कोई बात नहींं की जायेगी। कला समाज और प्रकृति का प्रतिबिम्बन मात्र नहींं बल्कि पुनर्सृजन है। वह लोगों के अन्दर जीवन के पार्थक्य और अलगाव को ख़त्म करने का माध्यम है। यह उत्पीड़ित की आवाज़ है। किसी कलाकार के मन पर सामाजिक घटनाओं की छाप किस तरह पड़ती है वही वह वापस अपनी कलाकृति में उकेरता है।
कला का उद्भव ही सामाजिक होता है। एक कलाकार समाज का हिस्सा होता है और उसका सामाजिक परिवेश उसकी कला को प्रभावित करता है। न सिर्फ कलाकार की कला को उसका सामजिक परिवेश प्रभावित करता है बल्कि कला भी सामाजिक होती है। और वह पलटकर समाज को बदलने में भूमिका निभाती है। पुरखों से विरासत में मिली कलाकृतियाँ और कलात्मक ज्ञान या संवेदन ही वह आधार बनता है जिसके ऊपर कोई कलाकार नवीन कलात्मक कृति का सृजन करता है। कलाकार की कूची से लेकर उसके रंग या कैमेरा तक कलाकार के समाज के उत्पादन स्तर द्वारा निर्धारित होते हैं। रोज़-रोज़ हमारी जीवन की बुनियादी शर्त को पैदा करने वाली मेहनतकश आबादी द्वारा रची दुनिया और प्रकृति की परिघटनाएँ जो हमारी चेतना पर संवेदनात्मक प्रभाव छोड़ती हैं या वर्ग समाज में वर्गों के बीच का टकराव जो युद्ध और शांति के अनवरत क्रम को जन्म देता है इन सब प्रक्रियाओं को कृतियों में ढाल पाने की कलाकार की क्षमता अन्ततः सामाजिक होती है। ब्रेष्ट के शब्दों में कलाकार को अपने समाज को कला के जरिये न सिर्फ़ आईना दिखाना चाहिए बल्कि उसे एक औजार की तरह इस्तेमाल कर समाज को बदल देना चाहिए। बल्कि सच्ची कला विद्रोह से ही पैदा होती है। कला सामाजिक संघर्षों की आँच से ही विकसित होती है और उसे काफी हद तक प्रभावित भी करती है। कलाकारों को भी इसमें अपनी भूमिका तय करनी चाहिए। रंगों में आकार, ब्रश के स्ट्रोक, संगीत में आरोह और अवरोह या नाटक में दुखांत या सुखान्त लोगों को इसलिए ही प्रभावित करते हैं क्योंकि कोई भी कलाकृति सामाजिक घटनाओं की भावनात्मक और विचारगत अभिव्यक्ति होती है। एक कलाकार को “पैसा कमाने” के चलन से इतर अपने सामाजिक दायित्व का निर्वाह करना चाहिए। पिकासो के ये शब्द इस आशय को व्यक्त करते हैं -“आप क्या सोचते है एक कलाकार क्या है? एक मूर्ख, जिसके पास सिर्फ आँखें है अगर वह पेंटर है, या सिर्फ कान अगर वह संगीतकार हो? इसके ठीक विपरीत, वह एक राजनीतिक प्राणी होने के साथ दुनिया में घटने वाली मर्मभेदी, ज्वलंत और सुखद घटनाओं के प्रति निरंतर सतर्क रहते हुए खुद को उनके समरूप ढालते रहता है।”
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान,जुलाई-दिसम्बर 2018
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