प्रथम विश्वयुद्ध के साम्राज्यवादी नरसंहार के सौ वर्षों के अवसर पर
साम्राज्यवाद के जुवे को अपने कन्धों से उतारे बग़ैर दुनिया की मेहनतकश अवाम का कोई भविष्य नहीं
विराट
पिछली सदी में साम्राज्यवाद ने मानवता को दो बड़े साम्राज्यवादी युद्धों में धकेल कर अपने मुनाफ़े की ख़ातिर बड़े पैमाने पर नर बलि दी। 1914 से 1918 तक चले प्रथम विश्व युद्ध और 1939 से 1945 तक चले द्वितीय विश्व युद्ध ने असंख्य लोगों की जानें लीं। इतिहास में पहले कभी इतने बड़े नरसंहार का सामना मानव समाज को नहीं करना पड़ा था जितना कि इन दो महायुद्धों में करना पड़ा। आज से करीब 100 वर्ष पूर्व 1914 में प्रथम विश्व युद्ध की शुरुआत हुई। पूरा विश्व दो बड़े खेमों में बँट गया। ब्रिटेन, फ्रांस, रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका, जापान आदि मित्र शक्तियों (एलाइड पावर्स) के नाम से जाने गये और जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, ऑटोमन साम्राज्य, बुल्गारिया आदि धुरी शक्तियों (एक्सिस पावर्स) के नाम से जाने गये। मित्र शक्तियों की तरफ़ से लगभग 4 करोड़ 30 लाख लोगों ने इस युद्ध में हिस्सा लिया जिसमें से लगभग 56 लाख लोग मारे गये और धुरी शक्तियों की तरफ़ से लगभग 2.5 करोड़ लोगों ने हिस्सा लिया जिसमें से लगभग 44 लाख लोग मारे गये। युद्ध में मित्र शक्तियों की विजय हुई। इस भयंकर युद्ध ने लगभग 1 करोड़ 60 लाख लोगों की जान ले ली और असंख्य लोगों को शारीरिक रूप से बेकार कर दिया। यह युद्ध एक साम्राज्यवादी युद्ध था जो कि नयी पूँजीवादी शक्तियों के उदय के कारण दुनिया के पुनर्विभाजन के लिए लड़ा जा रहा था।
आज प्रथम विश्व युद्ध के 100 वर्ष पश्चात फ़िर से इसके कारणों की जाँच-पड़ताल करना कोई अकादमिक कवायद नहीं है। आज भी हम साम्राज्यवाद के युग में ही जी रहे हैं और आज भी साम्राज्यवाद द्वारा आम मेहनतकश जनता पर अनेकों युद्ध थोपे जा रहे हैं। इसलिये यह समझना आज भी ज़रूरी है कि साम्राज्यवाद क्यों और किस तरह से युद्धों को जन्म देता है। वैसे तो हर कोई प्रथम विश्व युद्ध के बारे में जानता है लेकिन इसके ऐतिहासिक कारण क्या थे, इस बारे में बहुत सारे भ्रम फैले हुए हैं या फिर अधिक सटीक शब्दों में कहें तो फैलाये गये हैं। अनेकों भाड़े के इतिहासकार इस युद्ध को इस तरह से पेश करते हैं मानो यह कुछ शासकों की निजी महत्त्वाकांक्षा व सनक के कारण हुआ था। अधिकतर इसकी पूरी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को ग़ायब कर देते हैं और बताते हैं कि ऑस्ट्रिया के आर्कड्यूक फ्रांज़ फर्डिनान्द की साराजेवो में हत्या के कारण यह युद्ध छिड़ गया। स्कूलों में इतिहास की पाठ्यपुस्तकों में भी ऐसे ही तात्कालिक कारणों पर पूरा ज़ोर दिया जाता है और युद्ध के मूल कारणों को नज़रअन्दाज़ कर दिया जाता है। पूछा जा सकता है कि यदि ऑस्ट्रिया के राजकुमार की हत्या न हुई होती तो क्या प्रथम विश्व युद्ध न हुआ होता? कोई भी गम्भीर पाठक ऐसी तमाम बेवकूफ़ी भरी व्याख्याओं पर विश्वास नहीं करेगा। इस वजह से युद्ध के सही कारणों को सामने रखना आज बेहद ज़रूरी है। प्रथम विश्व युद्ध कई चीज़ों को समझने के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान पहली बार साम्राज्यवाद के अन्तरविरोध और पूँजीवाद का नरभक्षी चरित्र पूर्णतः नग्न रूप में और इतने बड़े पैमाने पर सामने आया था। यही वह समय था जब सर्वहारा आन्दोलन के गद्दारों और भितरघातियों ने अपने सारे नक़ाब उतार फेंके थे और उनका असली चेहरा सामने आया था। दूसरे इण्टरनेशनल के तमाम नेता साम्राज्यवादी युद्ध को सर्वहारा क्रान्तियों का अवसर बनाने की बजाय “पितृभूमि की रक्षा” का नारा देते हुए आक्रामक अन्धराष्ट्रवाद की हवा में बह रहे थे। दूसरी ओर, लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी ने युद्ध को क्रान्ति के अवसर में तब्दील करने के क्रान्तिकारी नारे पर अमल किया। इस युद्ध से जो परिस्थितियाँ तैयार हुईं थी उन्होंने ही 1917 की अक्टूबर क्रान्ति को जन्म दिया था और लेनिनवाद की विजय हुई थी। यह विश्व युद्ध साम्राज्यवाद के ही घनीभूत होते अन्तरविरोधों के चरम पर पहुँच जाने की अभिव्यक्ति था। दोनों ही विश्व युद्धों के कारणों को समझने के लिए यह जान लेना बेहद ज़रूरी है कि साम्राज्यवाद क्या है और यह किस तरह से अपरिहार्य रूप से युद्धों को जन्म देता है। साम्राज्यवाद के एक-एक पहलू को समझाना यहाँ हमारा मकसद नहीं है। अतः बहुत ही संक्षेप में हम साम्राज्यवाद के मूल बिन्दुओं को समझाने की कोशिश करेंगे। यह जानना अत्यन्त आवश्यक है कि पूँजीवाद किन दौरों से गुज़रकर साम्राज्यवाद की मंज़िल में पहुँचा।
लेनिन ने साम्राज्यवाद के सभी पहलुओं को विस्तार से समझाया है। उन्होंने साम्राज्यवाद की स्पष्ट परिभाषा दी है – “साम्राज्यवाद पूँजीवाद की एक विशेष अवस्था है। यह विशिष्ट प्रकृति तीन रूपों में प्रकट होती है: (1) साम्राज्यवाद एकाधिकारी पूँजीवाद है; (2) साम्राज्यवाद हृासोन्मुख पूँजीवाद है; और (3) साम्राज्यवाद मरणासन्न पूँजीवाद है।” लेनिन ने साम्राज्यवाद की पाँच बुनियादी विशेषताएँ इस प्रकार गिनायी थीः “(1) उत्पादन और पूँजी के संकेन्द्रण का परिमाण इस हद तक विकसित हो जाता है कि आर्थिक जीवन पर एकाधिकारी संगठनों का आधिपत्य स्थापित हो जाता है; (2) बैंकिंग पूँजी और औद्योगिक पूँजी एक दूसरे में मिल जाते हैं और इस वित्तीय पूँजी पर एक वित्तीय अल्पतन्त्र का उदय होता है; (3) मालों के निर्यात से पूर्णतया भिन्न, पूँजी का निर्यात एक विशेष महत्त्व ग्रहण कर लेता है; (4) अन्तरराष्ट्रीय एकाधिकार संघों का निर्माण होता है; (5) सर्वाधिक शक्तिशाली पूँजीवादी शक्तियों के बीच पूरी दुनिया का क्षेत्रीय बँटवारा पूरा हो जाता है।” इन बुनियादी विशेषताओं को समझ कर ही हम आधुनिक युद्धों के कारणों को समझने में सक्षम हो पायेगे। इन विशेषताओं को हम संक्षेप में समझाने का प्रयास करेंगे।
1. एकाधिकार (इज़ारेदारी) साम्राज्यवाद की आर्थिक बुनियाद है
साम्राज्यवाद को एकाधिकारी पूँजीवाद भी कहा जाता है। पूँजीवाद के प्रथम दौर में इसकी विशेषता ‘स्वतन्त्र प्रतियोगिता’ थी। लेकिन पूँजीवाद की यह विशेषता होती है कि यह अपने स्वयं के अन्तरविरोधों से इज़ारेदारियों को जन्म देता है। पूँजीवाद का यह आम नियम है कि बड़ी पूँजी छोटी पूँजी को निगल जाती है। एकाधिकारी पूँजीवाद या साम्राज्यवाद का जन्म तीन मंज़िलों से होकर गुज़रा। पहली मंज़िल में उन्नीसवीं शताब्दी के सातवें और आठवें दशक के दौरान ‘स्वतन्त्र प्रतियोगिता’ उत्पादक शक्तियों के विकास के कारण अपने चरम बिन्दु पर पहुँच गयी। आन्तरिक दहन इंजन, बिजली के मोटर आदि की खोजें हुई जिससे उत्पादक शक्तियों का अभूतपूर्व विकास हुआ। इससे भारी उद्योगों की उत्पादन में सापेक्षिक हिस्सेदारी बढ़ने लगी। 1873 की मन्दी के फलस्वरूप दूसरी मंज़िल में उद्यमों के बीच प्रतियोगिता तीखी होती गयी और इसमें भारी पैमाने पर छोटे और मंझोले उद्यम बन्द होने लगे। अब एकाधिकारी संघों (कार्टेल, ट्रस्ट, सिण्डिकेट आदि) के विकास का रास्ता साफ हो गया। डीज़ल इंजन, भाप टर्बाइन आदि का अविष्कार होने से उत्पादक शक्तियों का और बड़े पैमाने पर विकास हुआ। उत्पादन में भारी उद्योगों की हिस्सेदारी लगातार और भी अधिक बढ़ती गयी। इस तरह एकाधिकार की मंज़िल तक संक्रमण की परिस्थितियाँ बुनियादी तौर पर पूरी हो चुकी थीं। लेकिन इसके बाद उत्पादक शक्तियों का विकास अवरुद्ध होने लगा। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त और बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में तीसरी मंज़िल में पूँजी के संचय और संकेन्द्रण की गति बेहद तेज़ हो चुकी थी। बड़े उद्यमों के हाथों में पूँजी का संकेन्द्रण अधिकाधिक होता गया। एकाधिकारी संगठन तेज़ी से विकसित होते गये और समस्त आर्थिक जीवन की बुनियाद बन गये। इस समय तक एकाधिकारी संगठन काफी मज़बूती से ज़्यादातर उत्पादों के उत्पादन और वितरण पर नियन्त्रण क़ायम कर चुके थे और पूँजीवादी देशों की नब्ज़ उनके हाथों में आ चुकी थी। ये एकाधिकारी संगठन बिक्री की शर्तों, अदायगी की तिथियों आदि के बारे में समझौता कर लेते थे। वे मण्डियों को आपस में बाँट लेते थे और कितना माल पैदा किया जायेगा और क्या क़ीमतें रखी जायेगी, यह भी तय कर लेते थे। इन संगठनों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही थी। 1896 में जर्मनी में कार्टेलों की संख्या लगभग 250 थी और 1905 आते-आते यह बढ़कर 385 तक जा पहुँची थी। इनमें लगभग 12000 उद्यम हिस्सा ले रहे थे। संयुक्त राज्य अमेरिका में 1900 तक 185 ट्रस्ट अस्तित्व में आ चुके थे और 1907 आते-आते ट्रस्टों की संख्या 250 हो गयी थी। ये कार्टेल और ट्रस्ट उद्योग की किसी शाखा का 70-80 प्रतिशत हिस्सा अपने हाथों में संकेंद्रित कर लेते थे। इनमें काम करने वाले मज़दूर कुल मज़दूरों का 70 से 75 प्रतिशत होते थे जबकि इन उद्यमों की संख्या कुल उद्यमों के लगभग चौथाई ही होती थी। देखा जा सकता है कि ये संगठन किस तक उत्पादन को अपने नियन्त्रण में रखते थे। ये बड़े एकाधिकारी संगठन छोटे उद्यमों को लगातार ख़त्म करते गये। इस तरह ‘स्वतन्त्र प्रतियोगिता’ के गर्भ से ही एकाधिकार पैदा हुआ लेकिन इसने किसी भी तरह होड़ को समाप्त नहीं किया, बल्कि इसके विपरीत इसने होड़ को और अधिक तीखा कर दिया। पूँजीवादी समाज में होड़ कभी समाप्त नहीं होती। एकाधिकारी और ग़ैर-एकाधिकारी संगठनों के बीच होड़ लगातार जारी रहती है, एकाधिकारी संगठनों के बीच आपस में भी कच्चे माल के स्रोतों और बाज़ार आदि के लिए होड़ जारी रहती है। एक ही एकाधिकारी संगठन के विभिन्न उद्यमों के बीच भी होड़ लगातार जारी रहती है।
2. वित्तीय पूँजी की बुनियाद पर एक वित्तीय अल्पतन्त्र का उदय
‘स्वतन्त्र प्रतियोगिता’ के दौर में बैंक समाज में निष्क्रिय पड़े हुए धन को इकट्ठा करते थे और मैन्युफैक्चरिंग करने वाले और वाणिज्यिक पूँजीपतियों को अल्पावधिक ऋण के रूप में देकर एक बिचौलिये की भूमिका निभाते थे। लेकिन जैसे-जैसे पूँजीवाद ‘स्वतन्त्र प्रतियोगिता’ से एकाधिकार की मंज़िल में प्रविष्ट हुआ, वैसे-वैसे बैंकों की भूमिका भी बदलती गयी। वह बिचौलिये की भूमिका से आगे बढ़कर एक सर्वशक्तिमान एकाधिकारी में तब्दील हो गया। बैंकिंग उद्योग में एकाधिकार ने बैंकिंग और मैन्युफ़ैक्चरिंग उद्योग के रिश्तों में मूलभूत परिवर्तन ला दिया। तीख़ी होती प्रतिस्पर्द्धा ने ऐसी स्थितियाँ पैदा कर दीं जिनके कारण बैंक पूँजी और औद्योगिक पूँजी के विलय की स्थिति पैदा हुई। बैंकों ने अपनी पूँजी को औद्योगिक घरानों को ब्याज़ पर देना शुरू किया। शुरुआत में उनकी स्थिति महज़ सहायक की थी। लेकिन जल्द ही बैंकों की स्थिति अधिक से अधिक नियन्त्रणकारी बनने लगी। साथ ही, यह प्रक्रिया इसके ठीक विपरीत रूप में भी घटित हुई। तमाम बड़े औद्योगिक घरानों ने बैंकों को या उनके शेयरों को ख़रीदना शुरू किया या फिर अपने बैंक स्थापित कर बैंकिंग के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर पूँजी संचय हेतु हस्तक्षेप करना शुरू कर दिया। मैन्युफैक्चरिंग स्टॉक को बड़े बैंक भारी मात्रा में ख़रीदने लगे, इसके साथ ही मैन्युफैक्चरिंग एकाधिकारी संगठन भी बैंकों के स्टॉक ख़रीदने लगे। इस तरह एकाधिकारी बैंकिंग पूँजी और एकाधिकारी मैन्युफैक्चरिंग पूँजी का धीरे-धीरे विलय हो गया और वित्तीय पूँजी अस्तित्व में आयी तथा बेशुमार वित्तीय पूँजी के स्वामी पूँजीपति वित्तीय सम्राट बन गये। ये विराटकाय वित्तीय घराने आने वाले समय में राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं को अधिक से अधिक नियन्त्रित करने लगे। और जैसा कि अपेक्षा की जा सकती थी, जल्द ही ये वित्तीय दैत्य प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से राजनीतिक ढाँचे को भी नियंत्रित करने लगे।
3. माल निर्यात से भिन्न पूँजी के निर्यात का असाधारण महत्त्व ग्रहण करना
स्वतन्त्र प्रतियोगिता के दौर में पूँजीवाद की आभिलाक्षणिकता मालों का निर्यात होती थी पर साम्राज्यवाद आते-आते पूँजी के निर्यात ने असाधारण महत्त्व ग्रहण कर लिया। साम्राज्यवाद के युग से पहले ‘स्वतन्त्र प्रतियोगिता’ के दौर में भी पूँजी का निर्यात होता था पर यह व्यापक नहीं था। 1862 में इंग्लैण्ड द्वारा विदेशों में लगाई गयी पूँजी 3.6 अरब फ्रैंक थी, 1893 में यह 42 अरब फ्रैंक हो गयी और प्रथम विश्व युद्ध आते-आते यह 75 से 100 अरब फ्रैंक तक हो गयी थी। आसानी से देखा जा सकता है कि साम्राज्यवाद के दौर में पूँजी के निर्यात में अपार वृद्धि आ जाती है। पूँजीवादी देशों के भीतर सभी मुनाफ़ा देने वाले कारोबारों पर पहले ही एकाधिकार क़ायम हो चुका था। इसलिए पहले अपने देश के मेहनतकशों के ख़ून को निचोड़कर संचित की हुई पूँजी को उन देशों में लगाया गया जहाँ पूँजी का अभाव था और श्रम और कच्चे माल बेहद सस्ते थे। इन देशों में मज़दूरी बेहद कम थी, जमीनें और कच्चे माल आसानी से और बहुत सस्ती क़ीमतों पर मिल जाते थे। इन देशों के मज़दूरों का निर्मम शोषण किया गया और पूँजी का अम्बार खड़ा किया गया। वित्तीय पूँजी के दौर में पूँजी का निर्यात स्वाभाविक था। देशी बाज़ारों के सन्तृप्ति बिन्दु पर पहुँचने के साथ और साथ ही देशी अर्थव्यवस्था में मुनाफ़े की दरों के ख़तरनाक हदों तक गिर जाने के साथ साम्राज्यवादी देशों के पूँजीपति वर्ग के लिए पूँजी निर्यात अधिक उपयुक्त नीति थी। विश्व पैमाने पर जारी प्रतिस्पर्द्धा में मालों के उत्पादन की लागत को कम से कम रखने के लिए साम्राज्यवादी देशों के पूँजीपति वर्ग को सस्ते से सस्ता श्रम ओर सस्ते से सस्ता कच्चा माल चाहिए था। और यह उन्हें उपनिवेशों में मिल सकता था। साथ ही, अपने देश के भीतर मज़दूर आन्दोलन के बढ़ते दबाव से निजात पाने और अपने देश के भीतर मज़दूर वर्ग को कुछ सहूलियतें मुहैया कराने के लिए भी जिस चीज़ की ज़रूरत थी, वह था पूँजी निर्यात। पहले उन्नत पूँजीवादी देश अपने यहाँ उत्पादन कर उपनिवेशों के बाज़ारों में बेच रहे थे और उपनिवेशों से कच्चे माल की आपूर्ति करवा रहे थे। लेकिन अब कच्चे माल को सात समन्दर पार ले जाकर उत्पादित माल को वापस उपनिवेशों में लाकर बेचने की बजाय ज़्यादा बेहतर था कि पूँजी का निर्यात कर उपनिवेशों में ही माल को उत्पादित किया जाय और उसे दुनिया भर में बाज़ारों में बेचा जाय। जल्द ही पूँजी का निर्यात प्रमुख प्रवृत्ति बन गयी जबकि माल का निर्यात गौण हो गया।
4. अन्तरराष्ट्रीय एकाधिकारी संघों का निर्माण और उनके बीच दुनिया का बँटवारा
लेनिन ने बेहद सटीक शब्दों में इस परिघटना को समझाया है-“पूँजीपतियों के एकाधिकारी संघ, कार्टेल, सिण्डिकेट तथा ट्रस्ट सबसे पहले अपने देश के बाज़ार को आपस में बाँट लेते हैं, उस देश के उद्योगों को कमोबेश पूरी तरह अपने कब्ज़े में कर लेते हैं। परन्तु पूँजीवाद के अन्तर्गत देश का बाज़ार अनिवार्य रूप से विदेशी मण्डी के साथ सम्बद्ध होता है। पूँजीवाद ने बहुत पहले विश्व मण्डी तैयार कर दी थी। जैसे-जैसे पूँजी का निर्यात बढ़ता गया और बड़े-बड़े एकाधिकारी संघों के वैदेशिक तथा औपनिवेशिक सम्बन्ध और प्रभाव-क्षेत्र हर तरह से बढ़ते गये, वैसे-वैसे हालात स्वाभाविक रूप से इन संघों के बीच अन्तरराष्ट्रीय समझौते की दिशा में और अन्तरराष्ट्रीय कार्टेलों के निर्माण की दिशा में अग्रसर होते गये। यह पूँजी तथा उत्पादन के विश्वव्यापी संकेन्द्रण की नयी मंज़िल है, जो पहले की तमाम मंज़िलों से कहीं ज़्यादा ऊंची है।” ये अन्तरराष्ट्रीय कार्टेल छोटी-मोटी कम्पनियों को अपने अधीन कर लेते थे और दुनिया के आर्थिक बँटवारे के लिए आपस में समझौते कर लेते थे। स्टैण्डर्ड ऑयल कम्पनी, जनरल इलेक्ट्रिक कम्पनी, जनरल मोटर्स कम्पनी आदि इसी तरह के अन्तरराष्ट्रीय संघ बनकर उभरे थे। विभिन्न समझौतों के ज़रिये दुनिया का आर्थिक बँटवारा करने के बाद भी अन्तरराष्ट्रीय संघों के बीच का संघर्ष समाप्त नहीं होता बल्कि बढ़ता ही है। चूंकि ये संघ साम्राज्यवाद की आभिलाक्षणिकता हैं और साम्राज्यवाद स्वयं पूँजीवाद की ही एक चरम अवस्था है इसलिए जब तक वर्गों का अस्तित्व है, तब तक इन संघों के बीच के संघर्ष की प्रकृति और इस संघर्ष की अन्तर्वस्तु कभी बदलती नहीं हैं और केवल इसका रूप ही बदलता रहता है। साम्राज्यवाद के युग में संकेन्द्रण जिस हद तक पहुँच चुका होता है, उसमें पूँजीपतियों के पास मुनाफ़ा कमाने के लिए दुनिया का बँटवारा करने के अलावा कोई चारा नहीं बचता। यह बँटवारा पूँजी के अनुपात और शक्ति के अनुपात से होता है और शक्ति के अनुपात में बदलाव के साथ ही यह संघर्ष तीखा होता जाता है और राजनीतिक संघर्षों का रूप ले लेता है। लेनिन के शब्दों में – “पूँजीवादी संघों के बीच कुछ ऐसे सम्बन्ध पैदा हो जाते हैं, जो दुनिया के आर्थिक बँटवारे पर आधारित होते हैं और इनके साथ-साथ तथा इन्हीं के सिलसिले में राजनीतिक संघों के बीच, राज्यों के बीच कुछ ऐसे सम्बंध पैदा होते हैं, जिनका आधार दुनिया का क्षेत्रीय बँटवारा, उपनिवेशों के लिए संघर्ष, “आर्थिक क्षेत्रों के लिए संघर्ष” होता है।”
5. साम्राज्यवादी शक्तियों के बीच दुनिया का क्षेत्रीय बँटवारा
साम्राज्यवाद के युग में साम्राज्यवादी पूँजी द्वारा दुनिया के आर्थिक बँटवारे ने उपनिवेशों के रूप में दुनिया के क्षेत्रीय बँटवारे को जन्म दिया। वैसे तो उपनिवेशों के लिए छीना-झपटी पूँजीवादी देशों के बीच काफ़ी पहले ही शुरू हो गयी थी लेकिन साम्राज्यवाद के युग में यह संघर्ष अपने चरम पर पहुँच गया। जर्मनी और अन्य यूरोपीय देश व संयुक्त राज्य अमेरिका ब्रिटिश आधिपत्य को चुनौती देने लगे थे। जैसे-जैसे इन देशों की शक्ति का अनुपात बढता गया वैसे-वैसे यह संघर्ष तीव्रतर होता गया। प्रथम विश्व युद्ध आते-आते पूरी दुनिया का क्षेत्रीय बँटवारा यूरोपीय साम्राज्यवादी देशों के बीच पूरा हो चुका था। यदि आँकड़ों को उठाकर देखा जाये तो यह साफ़ हो जाता है। जहाँ 1876 तक यूरोपीय औपनिवेशिक ताक़तों का आधिपत्य अफ्रीका के केवल 10.8 प्रतिशत क्षेत्र पर था, वहीं 1900 आते-आते अफ्रीका के 90.4 प्रतिशत क्षेत्र पर आधिपत्य क़ायम कर लिया गया था। पोलिनेशिया के 57 प्रतिशत क्षेत्र पर 1876 तक आधिपत्य क़ायम हो चुका था जो 1900 आते-आते 99 प्रतिशत हो चुका था। एशिया के 57 फ़ीसदी क्षेत्र पर औपनिवेशिक ताक़तें अपना कब्ज़ा जमा चुकी थीं। ऑस्ट्रेलिया का पूर्ण उपनिवेशिकरण पहले से ही हो चुका था। इस तरह पूरी दुनिया का विभाजन साम्राज्यवाद के दौर में पूरा हो चुका था और अब केवल उसका पुनर्विभाजन ही हो सकता था। इस परिघटना को लेनिन ने इन शब्दों में व्यक्त किया है-“पूँजीवादी देशों की औपनिवेशिक नीति ने हमारी इस पृथ्वी पर अनधिकृत प्रदेशों पर आधिपत्य जमाने का काम पूरा कर लिया है। पहली बार दुनिया पूरी तरह बँट गयी है और इसलिए भविष्य में उसका पुनर्विभाजन ही सम्भव है, अर्थात अब यह नहीं हो सकता कि कोई ऐसा इलाक़ा, जिसका कोई मालिक न हो, किसी “मालिक” के कब्ज़े में आ जाये, बल्कि अब तो केवल यह हो सकता है कि इलाक़े एक “मालिक” से दूसरे के हाथ में चले जायें।” यानी कि एक साम्राज्यवादी युद्ध के लिए पूर्वपीठिका तैयार हो चुकी थी।
इस तरह से हमने देखा कि साम्राज्यवाद के अन्तर्विरोध तीव्रतर होते जाते हैं और अन्ततः साम्राज्यवाद युद्धों को जन्म देता ही है। प्रथम विश्व युद्ध साम्राज्यवादी युद्ध था और साम्राज्यवाद के तीखे होते हुए अन्तर्विरोधों के चरम पर पहुँच जाने की ही अभिव्यक्ति था। इसे किन्ही शासकों के षड्यन्त्र या किसी राजकुमार की हत्या के कारण जनित मानना अनैतिहासिकता होगी। काफी पहले से ही साम्राज्यवादी युद्ध की सम्भावनाएँ बनने लगी थी। 1910 आते-आते यह स्पष्ट हो गया था कि विश्व ज्वालामुखी के दहाने पर बैठा है। दुनिया का पुनर्विभाजन अब युद्ध के ज़रिये ही हो सकता था। 1876 से 1914 के बीच फ्रांस और जर्मनी बड़ी पूँजीवादी ताक़तों के रूप में उभरे और जैसे-जैसे इनकी शक्ति बढ़ती गयी वैसे-वैसे उपनिवेशों के लिए संघर्ष तीखा होता गया। यह भी समझने की ज़रूरत है कि आखिर उपनिवेश पूँजीवादी देशों के लिए इतने महत्त्वपूर्ण क्यों थे। पहला, उपनिवेश साम्राज्यवाद के लिए कच्चे मालों के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्रोत थे। चूंकि इज़ारेदारी ने बड़े पैमाने के उत्पादन को जन्म दिया, उत्पादन का पैमाना बढ़ते जाने के साथ ही कच्चे माल की ज़रूरत अधिकाधिक बढती गयी और उनके स्रोतों पर कब्जा करना महत्त्वपूर्ण होता गया। दूसरा, उपनिवेशों में साम्राज्यवादी देशों के एकाधिकारी संगठन मज़दूरों का अधिक निर्मम शोषण कर सकते थे। तीसरा, एकाधिकारी संगठनों के लिए उपनिवेश सर्वाधिक लाभदायक बाज़ार थे। चौथा, अपना विश्व प्रभुत्व क़ायम करने के लिए साम्राज्यवादी उपनिवेशों को अपना आधार क्षेत्र बनाते थे, युद्ध के लिए उपनिवेशों से सैनिक भर्ती किये जा सकते थे, उपनिवेशों की जनता पर भारी कर थोपकर युद्ध के लिए संसाधन जुटाये जा सकते थे। पाँचवा, साम्राज्यवादी उपनिवेशों में भयंकर लूट मचाकर अपने देश के भीतर पनप रहे मज़दूर वर्ग के गुस्से को एक हद तक शान्त कर सकते थे। उन्नीसवीं शताब्दी के अन्त में ब्रिटेन के एक वित्तीय सम्राट सेसील रोड्स ने एक जगह साम्राज्यवाद की हिमायत करते हुए कहा था-“युनाइटेड किंगडम के 4 करोड़ निवासियों को रक्तपातपूर्ण गृहयुद्ध से बचाने के लिए हम लोगों, औपनिवेशिक राजनीतिज्ञों को यहाँ की बेशी आबादी को बसाने के लिए और यहाँ के कारख़ानों तथा खानों की पैदावार की खपत के वास्ते नयी मण्डियाँ मुहैया करने के लिए नये इलाक़े हासिल करने होंगे। जैसा कि मैनें हमेशा कहा है, साम्राज्य दाल-रोटी का सवाल है। यदि आप गृहयुद्ध से बचना चाहते हैं, तो आपको साम्राज्यवादी बनना पड़ेगा।” साफ देखा जा सकता है कि साम्राज्यवादियों के लिए उपनिवेशों के लिए संघर्ष कितने महत्त्वपूर्ण बन गये थे। साम्राज्यवादी ताक़तों के विकास के साथ साम्राज्यवादी युद्ध अपरिहार्य हो गया था। 1876 से 1914 के दौरान ब्रिटेन के उपनिवेशों का क्षेत्रफल 225 लाख वर्ग किलोमीटर से बढ़कर 335 लाख वर्ग किलोमीटर हो गया था। फ्रांस के उपनिवेशों का क्षेत्रफल 60 लाख वर्ग किलोमीटर से बढ़कर 106 लाख वर्ग किलोमीटर हो गया था। जर्मनी जिसके पास पहले कोई उपनिवेश नहीं थे वह भी 1914 तक 29 लाख वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल पर कब्ज़ा जमा चुका था। संयुक्त राज्य अमेरिका और जापान भी लगातार शक्तिशाली होते जा रहे थे। जापान 1904-05 में रूस को करारी शिकस्त दे चुका था। ऑटोमन साम्राज्य का विघटन हो रहा था और बाल्कन राज्यों पर सारे साम्राज्यवादी जीभ लपलपा रहे थे। साम्राज्यवादी देशों के लिए भी स्पष्ट था कि युद्ध ज़्यादा दूर नहीं है। सभी साम्राज्यवादी देश अपनी सैन्य ताक़त को 1890 के बाद से ही बढ़ाने में लगे हुए थे। ब्रिटेन का सैन्य व्यय जहाँ 1887 में 32 मिलियत पाउण्ड था; वह 1894 में 44 मिलियन पाउण्ड और 1913 तक 77 मिलियन पाउण्ड हो चुका था। जर्मनी का सैन्य व्यय जहाँ 1895 में 90 मिलियन मार्क प्रति वर्ष था, वहीं 1913 आते-आते वह 400 मिलियन मार्क प्रतिवर्ष हो चुका था। शस्त्र उद्योग का 70 फ़ीसदी से ज़्यादा हिस्सा एकाधिकारी संगठनों के हाथों में था। युद्ध के संकेत मिल चुके थे। जुलाई-अगस्त 1914 में साम्राज्यवादी अन्तर्विरोध मुखर होकर सामने आये और विश्व युद्ध की शुरुआत हुई। यह हम देख ही चुके हैं कि इस युद्ध के ऐतिहासिक कारण पूँजीवाद के साम्राज्यवाद में संक्रमण में ही निहित हैं। दोनों साम्राज्यवादी खेमें किस तरह के समझौतों के द्वारा अस्तित्व में आये, युद्ध के दौरान शक्ति सन्तुलन किस प्रकार बदलता रहा और युद्धोपरान्त कैसी-कैसी “शान्ति” संधियाँ हुई; यह सब एक अलग लेख के विषय हो सकते हैं। हमारा मक़सद पूरे युद्ध का वर्णन करना नहीं है और इसके ऐतिहासिक कारणों तक ही हम ख़ुद को सीमित रख पायेंगे।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही समाजवादी खेमे में मौजूद अवसरवादियों और संशोधनवादियों का चरित्र भी खुलकर सामने आया था। इनकी अगुवाई दूसरे इण्टरनेशनल का नेता काउत्स्की कर रहा था। 1912 में बैसेल (स्विट्ज़रलैण्ड) में दूसरे इण्टरनेशनल की एक कांग्रेस में एक घोषणापत्र जारी किया गया था जो इस बात पर ज़ोर दिया गया था कि यदि साम्राज्यवादी युद्ध छिड़ता है तो समाजवादियों को युद्धजनित आर्थिक और राजनीतिक संकट से लाभ उठाकर समाजवादी क्रान्ति के लिए अपना संघर्ष तीव्र कर देना चाहिए। उस समय दूसरे इण्टरनेशनल के काउत्स्की, वानडरवेल्डे आदि नेताओं ने कांग्रेस में इस युद्ध विरोधी घोषणापत्र का समर्थन किया था। लेकिन जैसे ही साम्राज्यवादी युद्ध छिड़ा तो इन नेताओं ने सर्वहारा वर्ग से गद्दारी करते हुए अपने देशों की बुर्जुआ सरकारों की साम्राज्यवादी नीति का खुलकर समर्थन किया और साम्राज्यवादी युद्ध को पितृभूमि की रक्षा के लिए लड़ा जाने वाला युद्ध बताया। इसके फलस्वरूप जल्दी ही दूसरे इण्टरनेशनल का पतन हो गया। रूस में बोल्शेविक पार्टी ने ही लेनिन की अगुवाई में दृढ़ता से सही नीति अपनाते हुए युद्धजनित राजनीतिक संकट का फ़ायदा उठाकर साम्राज्यवादी युद्ध को गृहयुद्ध में तब्दील कर देने का नारा दिया और रूस की महान अक्टूबर क्रान्ति सम्पन्न हुई। लेनिन ने यह सिद्ध किया कि साम्राज्यवादी युद्ध क्रान्तिकारी परिस्थितियाँ भी तैयार करते हैं और अगर सर्वहारा वर्ग के पास उसका नेतृत्व करने वाली संगठित, तपी-तपायी और क्रान्ति के विज्ञान की सुसंगत समझ रखने वाली एक पार्टी हो तो क्रान्तिकारी परिस्थितियों से लाभ उठाकर वह साम्राज्यवाद की संगठित ताक़तों को पराजित कर सकता है।
पूँजीवाद के कारण उत्पन्न हुए संकटों से निज़ात पाने के लिए और अपना विश्व प्रभुत्व क़ायम करने के लिए साम्राज्यवादी हर-हमेशा मेहनतकश जनता पर युद्ध थोपते ही हैं। दूसरे विश्व युद्ध को भी सिर्फ़ हिटलर की सनक और यहूदियों के प्रति नफ़रत के कारण जनित मानना अनैतिहासिकता होगी। दूसरा विश्व युद्ध भी साम्राज्यवाद के भीतर के अन्तर्विरोधों के फ़ट पड़ने का ही नतीजा था। प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी की बुरी हार हुई थी और उसपर कड़े जुर्माने लगाये गये थे। इसके बाद भी जर्मनी में औद्योगिक उत्पादन 1927 आते-आते पहले जितनी रफ़्तार पकड़ चुका था। युद्ध के बाद आयी तेज़ी ने पूँजीवाद को कुछ साँस ले लेने की मोहलत दी थी। लेकिन पूँजीवाद में संकटों का पैदा होना अवश्यम्भावी है और 1929-30 में महामन्दी ने पूँजीवाद के दरवाजे़ पर फिर से दस्तक दी। यह मन्दी इतिहास की सबसे ख़तरनाक मन्दी साबित हुई। इससे निजात पाने के लिए साम्राज्यवादियों को एक और भीषण युद्ध की दरकार थी। जापान और जर्मनी का औद्योगिक विकास काफ़ी बड़े पैमाने पर हुआ था। जापान प्रथम विश्व युद्ध में विजयी खेमें के साथ था लेकिन उसे कुछ विशेष हासिल नहीं हुआ था। मन्दी के दौर में मुनाफ़े के बेहद संकुचित हो जाने के कारण और मज़दूर आन्दोलन को दबाने के कारण जर्मनी के पूँजीपतियों को हिटलर जैसे ही राक्षस की ज़रूरत थी। मुनाफ़े की हवस एक बार फ़िर विश्व को तबाही की ओर ले जा रही थी। जर्मनी, इटली, अपेरिका, जापान आदि की शक्ति का अनुपात लगातार बढ़ता जा रहा था और दुनिया के पुनर्विभाजन का सवाल एक बार फ़िर सामने आ खड़ा हुआ था। आर्थिक संकट से निजात पाने के लिए और अपना विश्व प्रभुत्व क़ायम करने के लिए साम्राज्यवादियों के बीच में एक और भीषण युद्ध अपरिहार्य था और 1939 में यह फूट पड़ा।
लेनिन ने साम्राज्यवाद को मरणासन्न पूँजीवाद कहा था। उन्होंने कहा था कि साम्राज्यवाद सर्वहारा क्रान्तियों की पूर्वबेला है। आज जिस युग में हम जी रहे हैं वह साम्राज्यवाद का ही युग है। अपने रूपों में तमाम बदलावों के बावजूद साम्राज्यवाद की अन्तर्वस्तु आज भी वही है। मौजूदा समय में साम्राज्यवाद पहले से भी अधिक खोखला हो चुका है। पिछली शताब्दी में साम्राज्यवाद ने दो विश्व युद्धों समेत अनेकों छोटे-बड़े युद्धों को जन्म दिया। दो बड़े विश्व युद्धों में साम्राज्यवादियों को स्वयं बेहद नुकसान उठाना पड़ा। आज साम्राज्यवादी देशों की अर्थव्यवस्था एक-दूसरे के कंधे का सहारा लेकर खड़ी हैं और इसको देखते हुए आज तीसरे विश्व युद्ध की परिस्थितियाँ बेहद अल्प हैं। इसके कई कारण हैं। एक तो यह कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद साम्राज्यवाद की कार्यशैली में कई परिवर्तन आये हैं। इन परिवर्तनों में सबसे अहम है दुनिया का विऔपनिवेशीकरण। अब दुनिया उस तरफ़ वापस नहीं लौट सकती है, जब अफ्रीका, एशिया और लातिन अमेरिका के तमाम देश साम्राज्यवादी शक्तियों के पूर्ण उपनिवेश और गुलाम थे। आज भी साम्राज्यवाद की लूट का दबाव इन्हीं महाद्वीपों के उत्तर-औपनिवेशिक देशों पर ज़्यादा है, लेकिन यह भी सच है कि इन उत्तर-औपनिवेशिक देशों का शासक पूँजीपति वर्ग अपनी राजनीतिक स्वतन्त्रता को बरक़रार रखता है। यह वास्तव में साम्राज्यवाद का कनिष्ठ साझीदार बनकर उससे सौदे और मोलभाव करता है। उसके बाद एक विशालकाय बाज़ार, एक विशालकाय सस्ती श्रम शक्ति और कच्चे मालों का भण्डार है, तो दूसरी ओर उसे प्रतिस्पर्द्धा में टिके रहने के लिए पूँजी और तकनोलॉजी की भी आवश्यकता है। वहीं साम्राज्यवादी देशों के संकट से घिरे पूँजीपति वर्ग को नये बाज़ारों और पूँजी के आधिक्य को निपटाने के लिए लाभपूर्ण निवेश के नये अवसरों की आवश्यकता है। इस नयी स्थिति ने विश्व पूँजीवाद के आन्तरिक समीकरणों को बदला है। आज विश्वयुद्ध के होने की गुंजाइश कम है। उस प्रकार से विश्व भर में शक्तियों का ध्रुवीकरण होना ही बहुत मुश्किल है। इसलिए छोटे पैमाने के क्षेत्रीय युद्धों (रीजनल थियेटर्स ऑफ वॉर) के मंचों पर साम्राज्यवादी अपने अन्तरविरोधों को निपटाने का प्रयास कर रहे हैं। कहने की आवश्यकता नहीं है कि ये क्षेत्रीय युद्ध उन्हीं क्षेत्रों में होंगे जो कि विश्व पूँजीवाद के लिए आर्थिक, रणनीतिक, सामरिक और राजनीतिक तौर पर विशेष अहमियत रखते हैं। यही कारण है कि पश्चिम एशिया और यूक्रेन आज ऐसे दो क्षेत्रीय युद्धों के मंच बने हुए हैं जहाँ साम्राज्यवादी अन्तरविरोध गुत्थमगुत्था हैं। साम्राज्यवादियों के बीच युद्ध अन्य रूप भी ले रहा है, जैसे कि मुद्रा युद्ध। साथ ही एक अन्य कारण भी है जिसके कारण आज विश्व युद्ध की सम्भावना कम है और वह है आणविक डेटरेण्ट की मौजूदगी। निश्चित तौर पर, ऐसा कोई सामरिक कारक अपने आप में निर्धारक भूमिका नहीं निभा सकता। लेकिन साम्राज्यवाद की पूरी संरचना और कार्य प्रणाली में आये बदलावों के सन्दर्भ में इसकी भी एक भूमिका बनती है। आज का साम्राज्यवादी विश्व पहले से कहीं ज़्यादा तीख़ी प्रतिस्पर्द्धा का साक्षी बन रहा है। ‘पैक्स ब्रिटानिका’ जैसा दौर फिर कभी नहीं आ सकता है; वह साम्राज्यवाद के एक विशिष्ट दौर में ही सम्भव था। सोवियत संघ के विघटन के बाद कुछ समय के लिए ‘पैक्स अमेरिकाना’ जैसी स्थिति का दृष्टिभ्रम पैदा हुआ था, जिसका शिकार कई मार्क्सवादी भी हो गये थे। लेकिन वह दृष्टिभ्रम 2000 के पहले दशक में ही टूट गया। आज हम अमेरिकी आर्थिक शक्तिमत्ता के उतार के साक्षी बन रहे हैं और अन्य साम्राज्यवादी शक्तियों के उदय और उभार को भी देख रहे हैं, जो कि अमेरिकी साम्राज्यवादी वर्चस्व के साथ ज़रूरत पड़ने पर सौदे भी कर रही हैं, और उन्हें चुनौती भी दे रही हैं। ऐसे समय में, तृतीय विश्वयुद्ध की गुंजाइश कम ही नज़र आती है।
लेकिन इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं है कि साम्राज्यवाद के अस्तित्व के लिए युद्ध आवश्यक नहीं है। आज भी साम्राज्यवाद का मतलब युद्ध ही है। जैसा कि हमने पहले ज़िक्र किया, फ़िलहाल, अरब जगत साम्राज्यवादी युद्धों का एक रंगमंच बना हुआ है। यूक्रेन विवाद भी साम्राज्यवादी देशों के बीच संघर्ष की ही अभिव्यक्ति है। अफ़गानिस्तान और इराक़ में पहले ही साम्राज्यवादी युद्ध थोपे जा चुके हैं। आज साम्राज्यवाद 1930 के बाद की महामन्दी के बाद की सबसे बड़ी मन्दी से जूझ रहा है। ख़ुद के आर्थिक और राजनीतिक संकटों से निजात पाने के लिए साम्राज्यवादी देश आज भी युद्धों पर ही आश्रित है। आज का साम्राज्यवाद सट्टेबाज पूँजी के आधिपत्य वाली अस्थिर-अराजक भूमण्डलीय अर्थव्यवस्था पर खड़ा है जिसकी नींव एकदम खोखली हो चुकी है और यह अपनी जड़ता की शक्ति के कारण ही क़ायम है। जब तक इसका विनाश नहीं हो जाता तब तक यह मानव समाज के लिए ख़तरा बना रहेगा और मानवता पर युद्ध लादता जायेगा और साथ ही पर्यावरण को भी ख़तरनाक हदों तक तबाह करता जायेगा। लेकिन यह अपनी गति से स्वयं ही नहीं ढह जायेगा। जैसा कि माओ ने कहा था-“जब हम कहते हैं कि साम्राज्यवाद बहुत ख़तरनाक है तब हमारा तात्पर्य यह होता है कि इसका चरित्र कभी नहीं बदल सकता। साम्राज्यवादी अपना विनाश होने तक न तो हथियार रखेंगे और न ही स्वेच्छा से बौद्ध बन जायेंगे।”
प्रथम विश्वयुद्ध की विभीषका के सौ वर्षों के अवसर पर यह अपने आपको फिर से याद दिलाने की ज़रूरत है कि पूँजीवाद-नामक मुनाफ़ाखोर, कफ़नखसोट, मुर्दाखोर और सड़ाँध मारती नरभक्षी व्यवस्था ने मुनाफ़े की ख़ातिर कितने लोगों की नरबलियाँ दी हैं और आज भी लगातार दे रहा है। फ़िलिस्तीन से लेकर इराक़, सीरिया, लेबनॉन, यूक्रेन, अफ्रीका के तमाम देशों में हज़ारों-हज़ार बेगुनाह नागरिकों की कुरबानी किसलिये दी जा रही है? सिर्फ़ इसलिए कि साम्राज्यवादी धनपशुओं का मुनाफ़ा क़ायम रहे। साम्राज्यवाद-पूँजीवाद का एक-एक दिन हमारे लिए भारी है। इसे बहुत पहले ही इतिहास की कचरा-पेटी में फेंक दिया जाना चाहिए था। अब भी अगर हम यह समझते नहीं और इस लुटेरे निज़ाम को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए एकजुट नहीं होते, तो कल बहुत देर हो जायेगी।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अगस्त 2014
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