विकास करता भारत! मगर किसका??
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न्यूज़ चैनलों व अखबारों में प्रायः कुछ शब्द और वाक्य ज़रूर देखने-सुनने को मिलते है जैसे कि-‘विश्व का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश भारत’, ‘तेज़ रफ्तार से विकास करता भारत’, ‘अतुल्य भारत’, ‘भारत में है विश्वास’, मेरा भारत महान’, ‘सब पढ़े, सब बढ़े’, ‘जागो ग्राहक जागो’, ‘पहले हम रोज़गार को ढूँढते थे अब रोज़गार हमें ढूँढता है’, आदि। इस तरह के नारों को पुष्ट करने के लिए तर्क भी दिया जाता है और जनमानस में एक भ्रम की स्थिति बरकरार रहती है।
अभी हाल में ही भारत सरकार ने बताया की भारत की प्रति व्यक्ति सालाना आय में 15.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई। अब प्रति व्यक्ति आय 46,117 रुपये से बढ़कर 53,,331 रुपये हो गयी है। भारत सरकार इसे विकासमान भारत के रूप में पेश कर रही है। सरकार की गोद में बैठकर पत्रकारिता करने वाले बुद्धिजीवियों के लिए ‘‘विकास’’ को पुष्ट करने वाले ऐसे नये आँकड़े मिलना बहुत अच्छी बात हो सकती है तथा सिविल सर्विस या अन्य प्रतियोगिताओं की तैयारी करने वाले छात्रों के लिए भी यह नम्बर प्राप्त करने के लिए एक अच्छी जानकारी हो सकती है। खाते-पीते मध्यवर्ग के कानों तक जब विकास की बात आती है तो उसकी आँखों के सामने चमकता मेट्रो, शेयर बाज़ार की बिल्डिंग, बड़े-बड़े मॅाल, कम्प्यूटर पर काम करते उच्च वेतन प्राप्त करने वाले मध्यवर्गीय युवक, ताजमहल की सैर, कार में मुस्कराता परिवार और एवरेस्ट पर फहराता तिरंगा जैसी तस्वीरें आती हैं।
अब आइये थोड़ा इसकी तह में जाकर पता लगाते है कि प्रतिव्यक्ति आय की गणना कैसे की जाती है? एक उदाहरण लेते है समझना आसान होगा। मान लीजिए 20 लोग कुम्भकरण की सेवा मे लगे हुए हैं, एक व्यक्ति एक समय में 5 रोटी खाता हो और कुम्भकरण एक समय में 1000 रोटी खाता है। अगर हम इस हिसाब से कुम्भकरण और उसके यहाँ काम करने वाले सभी लोगों का एक समय की रोटी की खपत का औसत निकालें तो 52 रोटी से ज़्यादा पड़ेगा। अगर आपको यह बताया जाय कि कुम्भकरण के यहाँ प्रतिव्यक्ति रोटी की खपत एक समय में 50 है तो आप हर्ष-मिश्रित आश्चर्य में पड़ जाएँगे! भारत सरकार का आँकड़ा भी हूबहू ऐसा ही है। जिस भारत में एक तरफ प्रति मिनट 2 करोड़ रुपये कमाने वाले लोग हों और दूसरी तरफ 84 करोड़ लोग 20 रुपये रोज़ाना पर गुज़र-बसर करते हों तो दोनों को मिलाकर एक औसत आय निकालना बेईमानी है। असल में आय में वृद्धि ऊपर की 10 प्रतिशत आबादी की ही हो रही है नीचे की 90 प्रतिशत आबादी तो नर्क की जि़न्दगी बिता रही है। ‘अतुल्य भारत’ की सच्चाई यह है कि एक तिहाई आबादी भूखे पेट सोती है और मनमोहन सरकार के मन्त्रीमण्डल में 77 प्रतिशत मन्त्री करोड़पति हैं! जिन सांसदों ने अपने को करोड़पति नहीं बताया उनकी असलियत उस क्षेत्र की जनता से छुपी नहीं है। जिन मन्त्रियों ने अपनी सम्पत्ति का ब्योरा दिया है ज़रा उसे भी देखें। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास 5 करोड़ की सम्पदा है जिसमें कुछ फ्लैट हैं, एक 1996 मॉडल की मारूती 800 कार और 15 हजार नकद; इनके पास कोई ज़मीन नहीं है! कृषि मंत्री शरद पवार, जो बीसीसीआई के अध्यक्ष भी हैं, के पास 3.46 करोड़ की सम्पदा है और इनके पास अपनी कार नहीं है! चिदम्बरम के पास कुल सम्पदा 11.16 करोड़ रुपये की है तो मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल के पास करीब 35 करोड़ की चल-अचल सम्पत्ति है। हालाँकि सम्पत्ति की इन घोषणाओं धोखाधड़ी और बेईमानी ही अधिक है, लेकिन इनसे भी ‘‘अतुलनीय भारत’’ की सच्चाई उजागर हो जाती है!
‘अतुल्य’ इसलिए क्योंकि जनता और पूँजीपतियों और उनकी चाकरी करने वाले नेता-मन्त्रियों में कोई तुलना नहीं है! और ‘महान’ इसलिए कि भुखमरी के शिकार लोगों के देश में नेता-मन्त्री करोड़पति हैं! शिक्षा व्यवस्था ऐसी है कि आम आदमी के लिए उच्चशिक्षा आकाश-कुसुम की अभिलाषा के समान है। बारहवीं पास करने वाले सारे बच्चों में से केवल 7 प्रतिशत उच्च शिक्षा तक पहुँच पाते हैं। बड़े घर के बच्चे ही ऊँचे पद और ऊँची शिक्षा पा रहे हैं। 84 करोड़ ग्राहक जो 20 रुपये प्रति दिन की आय पर जीते हैं उसके लिए ‘जागो ग्राहक जागो’ नारे के बदले ‘भागो ग्राहक भागो’ होना चाहिए! सर्वशिक्षा अभियान के ‘सब पढ़ें, सब बढ़ें’ की जगह सही नारा होना चाहिए ‘कुछ पढ़ें, कुछ बढ़ें और बाकी मरें’! मनरेगा के तहत जो रोज़गार की बात सरकार करती है वह सरासर मज़ाक है। मनरेगा वास्तव में गाँवों में मौजूद नौकरशाही के लिए कमाई करने का अच्छा ज़रिया है। इसकी सच्चाई लगभग सभी राज्यों में उजागर हो चुकी है। दरअसल सरकार और व्यवस्था की चाकरी करने वाले मीडिया के ‘‘विकास’’ का सारा शोरगुल इस व्यवस्था द्वारा पैदा आम जन के जीवन की तबाही और बरबादी को ढकने के लिए धूम्र-आवरण खड़ा करता है। विकास के इन कथनों के पीछे अधिकतम की बर्बादी अन्तर्निहित होती है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2012
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