एक साजि़श जिससे जनता की चेतना पथरा जाए
लालचन्द्र
नये वर्ष के तीसरे दिन यानी तीन जनवरी की रात लखनऊ सहित उत्तर प्रदेश के सात-आठ जि़लों के लिए दशहत और आतंक का पर्याय बन गयी। आप शायद सोच रहे हैं कि ऐसी क्या हुआ था? यह कुछ और नहीं बल्कि एक अफ़वाह थी कि सोते आदमी पत्थर के बन जा रहे हैं, कि रात में कभी-भी भूकम्प आ सकता है, और यह बात यहाँ तक फैली की गोमती नदी के किनारे के कुछ गाँव ज़मीन में धँस गये हैं! देखते ही देखते यह अफ़वाह गाँवों-शहरों में फैल गयी, एकदम हवा की तेज़ी से। गाँवों में जागते रहो के नारे लगाकर कुछ लोग सो रहे लोगों को जगा रहे थे। उन्हें पूरी रात अलाव के पास बैठकर बितानी पड़ी। शहरों में क्या अमीर क्या ग़रीब सभी घरों से बाहर आ गये और मोबाइल से एक दूसरे की कुशल-क्षेम पूछने लगे, साथ ही यह भी बताते कि दुबारा सोना नहीं अन्यथा अनिष्ट हो जायेगा। धार्मिक आस्था के अनुरूप लोगों ने अपने ईष्ट देवों को याद करना शुरू कर दिया तो कुछ जगहों पर महिलाएँ अपने घरों के दरवाज़ों पर हल्दी लगे पंजों से छाप बनाने लगीं। इस तरह पूरी रात लोगों ने जागकर बितायी, सुबह होने पर ही लोग इस आशंका से मुक्त हो सके। इस घटना से कोई भी तार्किक व्यक्ति यह सोचने पर ज़रूर मज़बूर होगा कि अनपढ़ की बात छोड़ भी दी जाये तो उन तथाकथित अमीर व ‘पढ़े-लिखे’ लोगों ने ऐसी सोच को सही मानकर उसके अनुरूप ऐसा आचरण क्यों किया? यह कोई नयी घटना नहीं है जिसमें ऐसा हुआ है बल्कि ऐसी कई घटनाएँ अलग-अलग अन्दाज़ में सामने आ चुकी हैं। कभी मुँहनोचवा का आतंक, तो कभी गणेश भगवान के दूध पीने की अफवाह, कभी समुद्र के पानी के मीठे होने की बात, कभी मोबाइल का आतंक (पंजाब क्षेत्र में – इस घटना में यह बात फैली थी कि एक खास नम्बर से मोबाइल पर फ़ोन कॉल आती थी, रिसीव करनेवाले के मोबाइल की स्क्रीन लाल हो जाती थी और वह व्यक्ति मर जाता था) इस घटना के फैलने पर लोगों ने लैण्डलाइन फोन भी उठाना बन्द कर दिया था, केवल मोबाइल मैसेज़ के माध्यम से बात करते थे! बिना आग के धुआँ कैसे उठाया जाता है, इसके ये साक्षात उदाहरण हैं। सरकारें अफवाहों को अनैतिक व ग़ैरकानूनी मानती हैं परन्तु कभी भी उन लोगों की शिनाख़्त नहीं हो पायी जो अफवाह फैलाने के दोषी होते हैं। कुछ लोगों के अनुसार यह मोबाइल कम्पनियों का कारनामा हो सकता है जो मैसेज द्वारा ऐसी अफवाह फैलाकर कुछ ही समय में काफ़ी पैसे बना सकते हैं। दूसरा ऐसी खबरें गाँव-देहातों में दर्शकों की संख्या बढ़ाने और इसके बल पर टी.वी. कम्पनियों की रेटिंग बढ़ाने का माध्यम बन गयी हैं। कुछ जाँचों के दौरान यह भी सामने आया था कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने प्रचार तन्त्र की प्रभाविता जाँचने के लिए ऐसी अफ़वाहों का सहारा लेता है। लेकिन समाज में ये ताक़तें अफ़वाहें फैलाने में क्यों कामयाब होती हैं, यह सोचने की बात है। ऐसी बातों को मानने के कारण हमारे सामाजिक ताने-बाने में भी मौजूद हैं। कारण कि हम जिस समाज में पलते-बढ़ते हैं वहाँ पर तर्क करना, बहस करना, किसी चीज़ के होने के कारण को समझना हम नहीं सीख पाते। परिवार से लेकर शिक्षण संस्थाओं तक में यह कमी भारी पैमाने पर मौजूद है। जहाँ पर सिद्धान्त की बातें व्यवहार से कटी होगी वहाँ पर सिद्धान्त अर्थहीन बन जाता है। आज के समय पूरे विश्व ने जो प्रगति की है उसमें विज्ञान की ही भूमिका महत्वपूर्ण रूप से रही है। हमारे दैनिक जीवन के उपभोग की काफ़ी वस्तुएँ विशुद्ध वैज्ञानिक सिद्धान्तों पर काम करती है। हम कमोबेश इनके बारे में जानते भी हैं परन्तु विज्ञान के कार्य-कारण सिद्धान्त, तर्क प्रणाली, हमारी चेतना में, जीवन के विविध आयामों में अमली रूप में स्थापित नहीं हो पाता है।
विज्ञान और तकनोलॉजी के युग में हम जी रहे हैं। पूरे देश के पैमाने पर दूरसंचार माध्यमों का जाल फैला है। जिसके माध्यम से लोगों को बेहतर शिक्षा, जो कि वैज्ञानिक हो, तार्किक हो जो हमें सोचने का व्यापक फलक मुहैय्या कराती हो, दी जा सकती है। परन्तु ऐसा नहीं हो सकता है क्योंकि इन संचार माध्यमों पर सरकारी-ग़ैरसरकारी दैत्याकार कम्पनियों का इजारा है जिसका इस्तेमाल वे केवल मुनाफ़ा बटोरने के लिए करती हैं। इसी कारण केवल टी.वी. चैनलों पर ऐसे कार्यक्रम पेश किये जाते हैं जो कि हमें कूपमण्डूक, अतार्किक, ईश्वरीय शक्तियों पर भरोसा वाला आत्मविश्वासहीन व हिंसक बना रही हैं। बच्चों पर भी इसका काफ़ी बुरा प्रभाव हो रहा है।
‘आह्वान’ के पिछले अंक के टेरी ईगलटन पर लेख के एक अंश को उद्धृत करना उचित होगा जिससे हमारी बात और स्पष्ट हो सकेगी, कि ‘‘पूँजीवाद न सिर्फ विज्ञान और उसकी खोजों का मुनाफ़े के लिए आदमखोर तरीके से इस्तेमाल कर रहा है बल्कि आध्यात्म और धर्म का भी वह ऐसा ही इस्तेमाल कर रहा है। इसमें आध्यत्मिकता और धर्म का इस्तेमाल ज़्यादा घातक है क्योंकि इसका इस्तेमाल जनता के नियन्त्रण और उसकी चेतना को कुन्द और दास बनाने के लिए किया जाता है। पूँजीवाद विज्ञान की सभी नेमतों का उपयोग तो करना चाहता है परन्तु विज्ञान और तर्क की रोशनी को जनता के व्यापक तबकों तक पहुँचने से रोकने के लिए या उसे विकृत रूप में आम जनसमुदायों में पहुँचाने के लिए हर सम्भव प्रयास करता है।”
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2012
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Very nice post …
Vaakai is tarah ki afvaaf sabhi ke liye ghaatak hota hai …..fir bhi kuch log iska galat paryog karte hai …aisa nahi hona chahiye……thanks dear sir ….