प्रस्तावित ‘राष्ट्रीय मैनुफैक्चरिंग नीति’
श्रम की लूट व मुनाफ़े की हवस का दस्तावेज़
प्रेमप्रकाश
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अध्यक्षता में जून 2011 में एक उच्च स्तरीय कमेटी ने ‘राष्ट्रीय मैनुफैक्चरिंग नीति’ के मसौदे को स्वीकृति प्रदान की। ‘औद्योगिक नीति एवं प्रमोशन विभाग’ ने ‘नेशनल मैनुफैक्चरिंग कम्पटेटिव काउंसिल और योजना आयोग के सलाह से इस श्रम विरोधी नीति को तैयार किया। प्रधानमंत्री ने इस नीति को उद्योगों पर आने वाली दिक्कतों को कम करने वाला बताया और कहा कि ‘यह निवेशकों के लिए अच्छा सन्देश होगा’। और सचमुच यह नीति पूँजीपतियों के लिए लूट का जंगलराज उपलब्ध करवायेगी।
1991 से शुरू हुई भूमण्डलीकरण और उदारीकरण की नीतियों ने पूँजीपतियों को मुनाफा निचोड़ने का अभूतपूर्व अवसर प्रदान किया। तमाम क्षेत्रों में पूँजी द्वारा श्रम को निचोड़ने के साथ शासक वर्ग मैनुफैक्चरिंग क्षेत्र में शोषण के नये तरीके ईजाद कर रहा है। जिस तरह से उदारीकरण के शुरू में लोगों को लुभावनी बातें सुनायी गयी थी कि नयी नीतियों के आने के बाद रोजगार का सृजन होगा, लोगों की आय बढ़ेगी, समाज के उच्च शिखरों पर जब समृद्धि आयेगी तो वह रिसकर नीचे भी पहुँचेगी। लेकिन 1991 के बाद मज़दूरों को लूटने की दर अभूतपूर्व बढ़ गयी है। ठीक उसी तर्ज़ पर राष्ट्रीय मैनुफैक्चरिंग नीति द्वारा ‘राष्ट्रीय मैनुफैक्चरिंग एवं निवेश जोन’ (एन.एम.आई.ज़ेड.) बनाने का प्रस्ताव है जिसमें मज़दूरों के तमाम अधिकारों को समाप्त किया जा रहा है। वैसे तो इस देश में पहले से मौजूद श्रम कानून व आम जनता तथा मज़दूरों के कानूनी अधिकार अपर्याप्त हैं और जो हैं भी उसे वह प्राप्त नहीं कर सकता क्योंकि पूँजी की दुनिया में न्याय व अधिकार पैसे की ताक़त का बन्धक है। विशेष आर्थिक क्षेत्र एवं इसी तरह की तमाम श्रम विरोधी नीतियाँ मौजूद है। पूँजीपतियों को देश की अकूत प्राकृतिक सम्पदा औने-पौने दामों पर लुटाया जा रहा है। शासक वर्ग का लोभ-लूट-लालच इतने से ही शान्त नहीं हो रहा है और लूट की नित नयी नीतियाँ बनायी जाती हैं।
‘राष्ट्रीय मैनुफैक्चरिंग नीति’ के उद्देश्य में तमाम आकर्षक बातें कही गयी हैं। मसलन, इस देश के सकल घरेलू उत्पाद में मैनुफैक्चरिंग का योगदान 15 प्रतिशत से बढ़कर 25 प्रतिशत हो जाएगा; इससे एक करोड़ लोगों के लिए अतिरिक्त रोजगार का सृजन होगा। प्रथम दृष्टया ऐसा लग सकता है कि इस देश के पूँजीपति बेरोजगारों की समस्या से अत्यधिक दुखी हैं और उसको दूर करना चाहता है। लेकिन भारत में देशी और विदेशी पूँजी की इस महाकृपा के कारण और ही है। पहली बात तो यह है कि पूँजीपतियों की गिद्ध दृष्टि भारत की अकूत सस्ती श्रमशक्ति पर लगी हुई है। आज देश की लगभग 60 प्रतिशत आबादी 15-59 वर्ष के बीच है। बेरोजगारों की 30 करोड़ की संख्या श्रम का खुला स्रोत है जिसे पूँजीपति निचोड़ना चाहता है। दूसरे तरफ 121 करोड़ आबादी वाला भारत एक विशालकाय बाज़ार है। पूँजीपति के लिए यह एक बड़ा कारक है। माल बेचकर ही पूँजीपति अपनी पूँजी को बढ़ाता है। गोदाम में पड़े माल का पूँजीपति के लिए कोई अर्थ नहीं। तीसरी बात, मन्दी से जूझ रहे पूँजीवाद को संजीवनी प्रदान करने के लिए रहे-सहे विनियमन को ख़त्म करने की ज़रूरत है। आज तमाम देशों में मैनुफैक्चरिंग उद्योग की तुलना में भारत के मैनुफैक्चरिंग उद्योग में निवेश और लाभ की अधिक सम्भावनाएँ हैं। थाइलैण्ड में 40 प्रतिशत, चीन में 34 प्रतिशत, मलेशिया में 30 प्रतिशत सकल घरेलू उत्पाद मैनुफैक्चरिंग से आता है जबकि भारत में केवल 15 प्रतिशत सकल घरेलू उत्पाद ही मैनुफैक्चरिंग से आता है।
राष्ट्रीय मैनुफैक्चरिंग नीति जिसे भारत की विकास दर को तेज़ करने वाला इंजन बताया जा रहा है, जिसको प्रधानमंत्री व नीति निर्देशक बेरोज़गारी और ग़रीबी को ख़त्म करने वाला हथियार बता रहे है, आइये देखें उससे इस देश की जनता व पूँजीपतियों के हिस्से में क्या आयेगा।
राष्ट्रीय मैनुफैक्चरिंग नीति से स्थापित होने वाला राष्ट्रीय मैनुफैक्चरिंग एवं निवेश जोन (एन.एम.आई.ज़ेड.) एक ऐसा क्षेत्र होगा जिसका निर्माण विशेष रूप से मैनुफैक्चरिंग उद्योग तथा निर्यात को बढ़ाने के लिए किया जाएगा। एन.एम.आई.ज़ेड. में उत्पादन इकाई से लेकर सार्वजनिक सेवाओं व रिहायशी इलाके तथा प्रशासनिक सेवाएँ होगी। उत्पादन इकाई में एक या अधिक सेज़, औद्योगिक पार्किंग, गोदाम, निर्यात आधारित व अन्य इकाइयाँ होगी। एन.एम.आई.ज़ेड. का विकास डेवलपर कम्पनियों द्वारा किया जाएगा व इसके बाहर की तमाम सुविधाएँ केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा प्रदान की जाएगी। एन.एम.आई.ज़ेड. का प्रशासनिक ढाँचा एक विशेष कमेटी- ‘विशेष उद्देश्य वाहन’ (Special Purpose Vehicle- SPV) द्वारा किया जाएगा जिसके मुख्य कार्यकारी अधिकारी के पास पर्याप्त स्वायत्तता होगी। मुख्य कार्यकारी अधिकारी डेवेलपर एवं औद्योगिक एसोशियसन के साथ मिलकर काम करेगा। जाहिर है एन.एम.आई.ज़ेड. का प्रशासनिक ढाँचा पूर्णतया पूँजीपतियों के पक्ष में है।
अपने चुनावी भाषणों में जनता का नाम लेने वाले चुनावी मदारी वास्तव में किसके पक्ष में हैं वह इस योजना में सरकार की भूमिका से स्पष्ट हो जाता है। केन्द्र तथा राज्य सरकारों का मुख्य काम इस योजना में पूँजीपतियों की राह में आने वाली बाधाओं को हटाना है। केन्द्र सरकार एक उच्चस्तरीय कमेटी का गठन करेगी जिसका काम राज्य सरकारों व विभिन्न मंत्रलयों के बीच समन्वय स्थापित करना है। जनता से चुनाव में ढेर सारे वायदे करने वाली केन्द्र सरकार एन.एम.आई.ज़ेड. में बाह्य भौतिक आधारभूत संरचनाएँ जैसे रेलवे, रोड, हाइवे, बन्दरगाह, एयरपोर्ट और संचार सुविधाओं का निर्माण करेगी। यह सारी सुविधाएँ पूँजीपतियों के लिए जनता की गाढ़ी कमाई से वसूले गए टैक्स के पैसों से की जाएगी तथा इसके निर्माण में लूट का गोरखधन्धा पूँजीपति वर्ग ही करेगा।
राज्य सरकारें कांग्रेस समेत कांग्रेस का विरोध करने वाली भाजपा तथा अन्य पार्टियाँ इस मुद्दे पर एकमत हैं। राज्य सरकार लोगों से ज़मीन छीनकर पूँजीपतियों को मुहैया कराएगी। राज्य के अर्न्तगत आने वाली रोड, सीवेज एवं औद्योगिक अपवाह के निपटारे की व्यवस्था करेगी। कम्पनियों के लिए प्रचुर मात्र में पानी व बिजली उपलब्ध करवाने की िज़म्मेदारी राज्य सरकारों की होगी। दूसरे पूँजीपतियों को दी जाने वाली ज़मीन के भुगतान के लिए सस्ता ऋण उपलब्ध होगा। सुरक्षा की व्यवस्था राज्य सरकारें करेगी। अर्थात इन सब पर अगर जनता प्रतिरोध करे तो फौज व पुलिस के दमन से उस प्रतिरोध को कुचल देने की व्यवस्था।
तमाम श्रम कानूनों को उद्योगपतियों के हित के लिए और अधिक लचीला बनाया जाएगा। अर्थात मजदूरों के रहे-सहे अधिकार भी उनसे छीनने की पूरी व्यवस्था की गयी है। जिस देश की 77 प्रतिशत आबादी को भुखमरी के कगार पर ठेल दिया गया है वहाँ श्रम कानूनों को पूँजीपतियों की मंशा पर छोड़ने का सीधा मतलब जनता को मुनाफे की दहन भट्ठी में झोक देना है। एन-एम-आई-ज़ेड- में रोज़गार के स्थायित्व को खत्म कर दिया जाएगा। जो सीधे-सीधे श्रम कानूनों का उल्लंघन है। ठेका श्रमिक उन्मूलन कानून एन.एम.आई.ज़ेड. क्षेत्रों में लागू नहीं होगा अर्थात पूरी तरह श्रम का ठेकाकरण करके मज़दूरों को जब मन में आये बाहर करने का रास्ता साप़फ़ कर दिया गया है। इसके साथ साथ एन.एम.आई.ज़ेड. में प्रति शिफ्ट काम में घण्टे बढ़ाने की माँग पूँजीपतियों द्वारा की जा रही है। आज जब तकनीकी विकास एवं विज्ञान की उन्नति हुई है तो होना तो यह चाहिए कि काम के घण्टे को कम किया जाए लेकिन यहाँ काम के घण्टे को बढ़ाकर शोषण को और अधिक घनीभूत किया जा रहा है। श्रमिकों के सामाजिक सुरक्षा के सारे अधिकार एस-पी-वी- के पास सुरक्षित रहेगा। जाहिर है इसका सी-ई-ओ- इन्हीं उद्यमों द्वारा चुना जाएगा एवं इसके साथ मिलकर काम करेगा तो श्रामिकों के अधिकार क्या सुरक्षित होंगे। इन सबसे भयंकर बात तो यह है कि श्रमिकों को यूनियन बनाने के अधिकार से वंचित करने तक का प्रावधान भी इस नीति में है। यह प्राविधान इस देश के प्रधानमंत्री की अध्यक्षता में किया जा रहा है जो अक्सर संविधान की दुहाई देते रहते हैं और हर बात पर विरोध की नौंटकी करने वाली तमाम पार्टियाँ चुप हैं। संविधान का अनुच्छेद 19 भारत के नागरिक को यूनियन बनाने के अधिकार देता है। तो समझा जा सकता है कि संविधान का उल्लंघन कौन कर रहा है?
जहाँ एक ओर श्रम अधिकारों को कम किया जा रहा है दूसरी और एन-एम-आई-ज़ेड- में स्थापित उद्यमों व उद्योगों को सेज़ में दी जाने वाली तमाम सुविधाओं के साथ-साथ पूँजीपतियों को आयात पर कोई कर नहीं लगाया जाएगा। 5 वर्ष तक आयकर से पूरी तरह छूट दी जाएगी। इसके साथ ही सेवाकर व बिक्रीकर से ये औद्योगिक इकाइयाँ पूरी तरह मुक्त होंगी। राज्य सरकार द्वारा लगाया जाने वाला बिक्रीकर तथा अन्य वसूलियों से पूँजीपतियों को मुक्त रखा जाएगा। सेज़ के विकास से होने वाली आय पर 10-15 वर्ष तक टैक्स नहीं लगाया जाएगा।
एन-एम-आई-ज़ेड- में निर्यात आधारित इकाईयों (Export Based Units) के लिए किसी भी तरह के आयात लाईसेंस की आवश्यकता नहीं होगी और इनको एक्साइज़ कर से पूरी तरह मुक्त रखने का प्रावधान है। घरेलू बाज़ार मे जो भी बिक्री होगी उसके लिए उद्यमों को नाममात्र का ही कर देना होगा। ईंधन तेल की खरीदारी पर दिये गए कर कम्पनियों से नहीं लिए जाएँगे। अर्थात इस देश का सबसे ग़रीब व्यक्ति तेल ईधन पर इसकी लागत से दुगुना कर देगा लेकिन अकूत मुनाफा कमाने वाले पूँजीपतियों को छूट दी जाएगी। देश को फ्महाशक्तिय् जो बनाना है! सम्भवतः यहीं मनमोहनी विकास है। राज्य सरकारें द्वारा नगर निगम के करों सहित अन्य स्थानीय करों से 10 वर्ष की छूट दी जाएगी।
हरित तकनीकी और कार्बन मुक्त तकनीकी के नाम पर मैनुफैक्चरिंग इकाइयों की स्थापना के लिए तमाम मानकों एवं प्रमाणों की बाध्यता को समाप्त किया जा रहा है अथवा सरल बनाया जा रहा है, पर्यावरणीय स्वीकृति एवं वन स्वीकृति के नियमों में ढील दी जा रही है, कई उद्यमों में पर्यावरणीय स्वीकृति की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया गया है, पर्यावरणीय स्वीकृति के दौरान मुकदमों की सुनवाइयों में पहले से जो जनभागीदारी का प्रावधान है उसे या तो समाप्त किया जाएगा या केवल उस इलाके के लोगों को ही उसमें शामिल होने की अनुमति दी जाएगी। जाहिर है इस देश में सरकारें व पूँजीपति जिसे चाहे उजाड़े लेकिन दमन और उत्पीड़न की शिकार जनता के पक्ष में अन्य लोग खड़े नहीं हो सकते। गुजरात के गाँधी चम्पारण में सत्याग्रह कर सकते थे लेकिन आज उड़ीसा, जैतापुर या कलिंग नगर में सरकार लोगों को उजाड़े तो उनके पक्ष में भारत के दूसरे भाग में रहने वाला भारतीय विरोध नहीं कर सकता।
दूसरी तरफ तमाम मुनाफा निचोड़ने वाले पूँजीपति मुनाफ़ा कमाने के कुछ वर्षों बाद जब कर चुकाने की बारी आये तो उनके लिए कम्पनियों को बन्द करने के रास्ते को आसान बनाया गया है। मज़दूरों का भुगतान कम्पनी को बिना किये भी उसे अपनी सम्पति ले जाने एवं कम्पनी बन्द करने की पूरी छूटी दी गयी है। दरअसल मज़दूरों के बकाया भुगतान मुख्य कम्पनी न करके उसे एक बीमा कम्पनी के ऊपर स्थानान्तरित करके अपने दायित्वों से मुक्ति पा जायेगी और मज़दूर बीमा कम्पनी का चक्कर काटता फिरेगा। अब तक औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत किसी भी कम्पनी को बन्द करने से पहले मज़दूरों के सारे भुगतान का निपटारा ज़रूरी था । लेकिन औद्योगिक विवाद अधिनियम के अनुच्छेद 25 में संशोधन कर के मज़दूरों का बिना भुगतान किये मालिक अपनी कम्पनी बन्द कर देगा और मज़दूरों को भुगतान के लिए बीमा कम्पनी से एक और लड़ाई लड़नी पड़ेगी।
मामला साफ है इसमें देश की अकूत सम्पदा को लूटने व मज़दूरों के शोषण के लिए पूँजीपति को छूट दी गई है। तमाम विरोध की नौंटकी करने वाले बाबा रामदेव व अण्णा हजारे जैसे कानूनी जादुई छड़ी से सब कुछ ठीक कर देने का राग अलपने वाले ‘‘सिविल सोसायटी’’ के आन्दोलनकारी इस तरह की कारपोरेट लूट एवं कानूनी भ्रष्टाचार पर कुछ भी नहीं बोलते । दरअसल यह पूँजीवादी तन्त्र जो लोभ लालच एवं मुनाफे पर टिका है स्वयं सबसे बड़ा भ्रष्टाचार है मार्क्स ने पूँजीवादी उत्पादन प्रणाली के अपनें विश्लेषण में बताया था, ‘’अतिरिक्त मूल्य पैदा करना और धन कमाना इस उत्पादन प्रणाली का सर्वोच्च नियम है।’’ दरअसल पूँजीवादी राज्य पूँजीवादी नीतियों को लागू करने वाली मशीनरी है यह छद्मवेशी जनतन्त्र वास्तव में निजी मालिकाने की पूँजीवादी व्यवस्था में पूँजीपति वर्ग का सेवाकारी निकाय ही है। पूँजीवादी नीतियों का एक ही मतलब है। लगातार पूँजीपतियों को मुनाफा पहुँचाना। श्रम का शोषण करना पूँजीवादी राज्य की हर नीति के केन्द्र में जनता नहीं वरन पूँजीपति वर्ग होता है और एक वर्ग आधार पर खड़ी राज्य व्यवस्था में शासक वर्ग अपने वर्ग की सेवा करता है। आज पूँजीवादी शासक वर्ग वही कर रहा है। पूँजी की स्वचालित गति की उसे लगातार जिस असमाधेय मन्दी की तरफ ले जाकर संकट में डाल रही है उसी से उबरने के लिए वह लगातार शोषण के घनीभूत और क्रूरतम तरीके ढूँढकर उससे निकलने का प्रयास करता है। लगातार अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए मनुष्य एवं प्रकृति के शोषण व दोहन के नये तरीके निकालता है अपने द्वारा पैदा किये गए संकट से उबरने का असफल प्रयास करता है। और पुनः एक बड़े संकट में फँसता जाता है। लेकिन इन सबके साथ ही वह लगातार मजदूर वर्ग को और अधिक दरिद्र बनाकर एक और लूट की तरफ भी ठेल देता है।
वास्तव में एक ऐसी व्यवस्था जिसकी बुनियादी ही शोषण है वह अपने नैसर्गिक गति से ऐसा ही करेगी यह सहज ही है 1948 की औद्योगिक नीति, 1956 की नीति और 1991 में शुरू भूमण्डलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण वास्तव में पूँजीवाद राज्यसत्ता द्वारा विभिन्न दौरों में पूँजीपतियों के अनुरूप नीतियों का गठन ही था। आज राष्ट्रीय मैनुफैक्चरिंग नीति इसी दौर की अगली कड़ी है जो पूँजी की सेवा में संलग्न है लेकिन पूँजी के अन्त के बीज स्वतः उसी से पैदा होता है। यह घनीभूत शोषण ही प्रतिरोध का बिगुल फूंकेगा और संगठित मेहनतकश का सचेतन प्रयास ही पूँजीवादी लूट और दमन से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करेगा।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, नवम्बर-दिसम्बर 2011
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