‘‘आनर किलिंग’’- सम्मान के नाम पर हत्या या सम्मान के साथ ना जीने देने का जुनून

नमिता

पिछले कुछ सालों से भारत के प्रिण्ट तथा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में ‘‘ऑनर किलिंग’’ की चर्चा होती रही है और यह चर्चा आज भी जारी है। मीडिया में कभी-कभी तो इस मुददे पर ज़ोर-शोर से चर्चा होती है और कभी मद्धिम स्वर में। लेकिन मीडिया की सुर्खियों से दूर सम्मान के नाम पर नौजवान लड़के-लड़कियों की हत्याओं का सिलसिला बदस्तूर जारी है। सम्मान के नाम पर होने वाली सभी हत्याएँ तो मीडिया की सुर्खियों में आती भी नहीं। बहुत सारी हत्याएँ तो आत्महत्या या दुर्घटनाएँ बताकर ही दबा दी जाती हैं। ‘‘आनर किलिंग’’, जैसा कि नाम से ही जाहिर है सम्मान के लिए किसी की हत्या। ‘‘सम्मान’’ के नाम पर हर साल भारत में लगभग 1 हज़ार युवाओं (यह आँकड़ा तो सरकारी है पर असल संख्या इससे कहीं अधिक है।) की हत्या की जाती है। इन युवाओं का (गुनाह) सिर्फ इतना ही होता है कि कि वे अपना जीवन साथी अपनी पसन्द से चुनने की जुर्रत करते हैं। लेकिन प्रतिक्रियावादियों, सामाजिक नैतिकता के तथाकथित ठेकेदारों को इतना भी मंजूर नहीं है।

Honour killing1

यह सिर्फ हमारे देश में ही नहीं होता बल्कि किसी ना किसी रूप में यह दुनिया के कई देशों में होता है। कई देशों में सम्मान के नाम पर होने वाली हत्याओं में अधिकतर स्त्रियों को निशाना बनाया जाता है। ‘विकीपीडिया’ के मुताबिक अल्बानिया, बांग्लादेश, जर्मनी, भारत, ईरान, इराक, इज़राइल, जार्डन, इटली, मोरक्को, पाकिस्तान, तुर्की, युगाण्डा आदि देशों में सम्मान के नाम पर हत्याएँ की जाती हैं। अमेरिका, कनाडा, डेनमार्क, जर्मनी, इटली, स्वीडन आदि ऐसे देश हैं, जिनके विशिष्ट ऐतिहासिक विकास के चलते यहाँ के सामाजिक ताने-बाने में जनवादी मूल्य-मान्यताएँ तुलनात्मक रूप से ज़्यादा गहरी रची-बसी हैं और शक्तिशाली स्त्री आन्दोलन के चलते स्त्रियों ने सामाजिक और राजनीतिक जीवन में निर्णय लेने के अधिकार को लड़कर हासिल किया है। वहाँ किसी भी नागरिक की निजता और व्यक्तिगत आज़ादी का दूसरे नागरिक सम्मान करते हैं। युवाओं के प्रेम और शादी से सम्बन्धित फैसलों को वहाँ के समाजों में खुशी-खुशी स्वीकार किया जाता है। युवाओं के प्रेम और शादी के मामलों में तीसरे व्यक्ति का दख़ल पूरी तरह ख़त्म हो चुका है। ‘अरेंज्ड मैरिज’ की परम्परा बहुत पहले ही वहाँ इतिहास के कूड़ेदान में पहुँच चुकी है। इस समय इन देशों में ‘‘आनर किलिंग’’ के मामले उन्हीं लोगों में सामने आ रहे हैं जो पिछड़े देशों खासकर एशियाई देशों से आकर यहाँ बस गये हैं।

आइए अब ‘‘ऑनर किलिंग’’ की इस व्यापक परिघटना पर एक निगाह डालें। न्यूयार्क टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, 1991 में इराकी कुर्दिस्तान में 12,000 से भी अधिक स्त्रियों की सम्मान के नाम पर हत्या की गई। ब्रिटेन में हर साल 17 हजार से भी अधिक स्त्रियाँ इस तथाकथित सम्मान के लिए हिंसा का शिकार बनती हैं, जिसमें कई बार हत्या भी शामिल होती है। बी.बी.सी. की 2005 की रिपोर्ट के अनुसार पाकिस्तान में चार हज़ार से भी अधिक स्त्रियाँ ‘‘ऑनर किलिंग’’ का शिकार हुईं, जहाँ इसे ‘कारो-कारी’ के नाम से जाना जाता है।

Honour killing

एक महिला के ‘‘ऑनर किलिंग’’ के शिकार होने का कारण सिर्फ प्रेम ही नहीं बल्कि कई अन्य कारण ‘‘सम्मान’’ की ख़ातिर किसी की जान लेने के हक़दार हो जाते हैं, ख़ासतौर पर स्त्रियों की। जैसे अगर स्त्री पति से तंग आकर तलाक चाहती है या किसी अन्य पुरुष से सम्बन्ध रखती है, आदि। बहुत सारे मामलों में तो सिर्फ शक़ के आधार पर ही उनकी हत्या को जायज़ माना जाता है। उदाहरण के लिए जार्डन में 2007 मे एक 17 साल की लड़की को सिर्फ इसलिए मार दिया गया क्योंकि कातिलों को शक था कि उसका किसी पुरुष के साथ सम्बन्ध है।

‘‘सम्मान’’ के नाम पर हत्या का तरीका इतना घिनौना और भयंकर होता है जैसा कि जानवरों के साथ भी नहीं किया जाता होगा। ‘‘दोषियों’’ को पत्थर मारकर, गला दबाकर, गोली मारकर और जि़न्दा जलाकर ये हत्यारे अपने ‘‘सम्मान’’ की रक्षा करते हैं। आमतौर पर स्त्रियों को इतना ज्यादा परेशान किया जाता है कि वे खुदकुशी करने को मजबूर हो जाती हैं।

हालाँकि इसके खिलाफ भी कई कानून बने हैं, जो अन्य कानूनों की ही तरह फाइलों की धूल चाट रहे हैं जिन पर कोई अमल नहीं होता। कई देशों में तो ऐसे भी कानून हैं जो ‘‘सम्मान’’ के लिए की जाने वाली हत्याओं को जायज़ ठहराते हैं और कातिलों को ऐसा करने की खुली छूट देते हैं।

पाकिस्तान में ‘‘ऑनर किलिंग’’ के लिए सज़ा है पर अमल में पुलिस और कोर्ट इसका खुलेआम उल्लंघन करते हैं। अगर कातिल यह दावा कर दे कि उसने यह करतूत ‘‘सम्मान’’ के लिए की है तो वह दोषमुक्त हो जाता है। ज़्यादातर कानून ऐसे हैं जो पीडि़तों की मदद ना करके कातिलों की रक्षा करते हैं।

पाकिस्तान में जि़या उल-हक के शासन के दौरान बने कानून के अनुसार कातिल पीडि़त के रिश्तेदारों को कुछ मुआवजा देकर आराम से बरी हो सकते हैं। यह कानून आज भी पाकिस्तान में ‘कारो-कारी’ को खुलेआम बढ़ावा दे रहा है। ज़्यादातर मामलों में तो कातिल पीडि़त का करीबी रिश्तेदार ही होता है, इसलिए उसे माफी के लिए बिना कोई मुआवजा दिये मुक्ति मिल जाती है।

जार्डन के वर्तमान कानून ‘पैनल कोड 340’ के मुताबिक, जिसे अपनी पत्नी या स्त्री रिश्तेदार के ‘‘नाजायज़’’ सम्बन्धों का पता लग गया है वह उसे मार सकता है या जख़्मी कर सकता है और बिना किसी सज़ा के खुलेआम घूम सकता है। सीरियाई कानून के मुताबिक भी अगर किसी की पत्नी, बहन या स्त्री रिश्तेदार के किसी अन्य पुरुष के साथ सम्बन्ध हों तो वह उसकी हत्या करने का हक़दार है। इन सभी देशों का कानून पुरुषों को परिवार के ‘’सम्मान’’ के नाम पर महिलाओं की हत्या करने का साहस देता है। दूसरे शब्दों में कहें तो इन अमानवीय हत्याओं को कानूनी संरक्षण मिला हुआ है। यदि किसी भी रिश्ते में कोई एक साझीदार वफ़ादार न हो तो दूसरे साझीदार को उसे छोड़ने का हक़ नैसर्गिक तौर पर प्राप्त है। लेकिन वफ़ाई-बेवफ़ाई के आधार पर कोई किसी की जान ले, यह असभ्य समाज की ही निशानी हो सकती है।

जो समाज अपनी युवा पीढ़ी को अपनी जि़न्दगी के बारे में फैसले लेने की इजाज़त नहीं देता, जहाँ परिवारों में पुरानी पीढ़ी और पुरुषों की निरंकुश सत्ता आज भी कायम है, जिस समाज में रुढि़यों, परम्पराओं के मजबूत बन्धन आज भी कायम है वह समाज पूँजीवाद के हर तरह के अन्याय को स्वीकारने के लिए अभिशप्त है।

दरअसल ‘‘सम्मान’’ के नाम पर हत्याओं की यह अमानवीय परिघटना उन्हीं देशों में अधिक है जहाँ बिना किसी जनवादी क्रान्ति के, धीमे सुधारों की क्रमिक प्रक्रिया के जरिये पूँजीवादी विकास हुआ है। इन देशों में पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध तो कायम हुए हैं, लेकिन यह पूँजीवाद यूरोपीय देशों की तरह यहां जनवादी मूल्य लेकर नहीं आया। सामाजिक-सांस्कृतिक धरातल पर आज भी यहाँ सामन्ती मूल्यों की जकड़ बेहद मजबूत है। इन देशों (भारत भी इनमें से एक है) के सामाजिक-सांस्कृतिक ताने-बाने में गैरजनवादी मूल्य गहरे रचे-बसे हैं। इसी कारण यहां व्यक्तिगत आज़ादी और निजता जैसी अवधारणाओं के लिए कोई जगह नहीं है। व्यक्ति के जीवन के हर फैसले में समाज दखल देता है चाहे वह प्रेम का सवाल हो, शादी का, रोजगार का या कोई अन्य।

इस समस्या का हल वर्तमान पूँजीवादी व्यवस्था के आमूलचूल परिवर्तन के साथ जुड़ा हुआ है। निश्चित तौर पर हमें पूँजीवाद के अन्त का इन्तज़ार नहीं करना होगा और अभी से ही ज़बर्दस्त सांस्कृतिक प्रचार और स्त्रियों की स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष के जरिये इन घिनौनी प्रवृत्तियों के खि़लाफ़ संघर्ष करना होगा। लेकिन यह भी तय है कि इन समस्याओं का टिकाऊ समाधान एक ऐसे सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में ही सम्भव है जो हर प्रकार से मनुष्यों के बीच शोषण और उत्पीड़न के सम्बन्धों को असम्भव बना दे।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2012

 

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