चुनावी घमासान और विकल्पहीनता का चुनाव

प्रसेन

 

सरकार और सारी पार्टियाँ

सुनते-सुनते तंग आ गई हैं

कि उन्होंने जनता का विश्वास खो दिया है

कि ऐसे में उनके लिए क्या यह ज़्यादा आसान नहीं होगा

कि वे इस शक्की, उत्पाती और नामुराद जनता को ही भंग कर दें

और अपने लिए एक दूसरी, सीधी-सादी, भली-सी जनता चुन लें…

(बेर्टोल्ट ब्रेष्ट की कविता के आधार पर)

पाँच राज्यों में हो रहे विधानसभा चुनावों में जनता को पोलिंग बूथ तक लाने के लिए चुनाव आयोग की कसरत तथा तमाम ‘‘प्रबुद्धजनों’’  के प्रवचनों को देखें और सुनें तो ब्रेष्ट की यह कविता इनके परिप्रेक्ष्य में भी कितनी सटीक बैठती है। तमाम चुनावी पार्टियों के चोर-भ्रष्ट नेता जब अपने व अपनी पार्टी के लिए जाति, धर्म, नोट इत्यादि के जरिये जनता को रिझाने में लगे हैं तो चुनाव आयोग इन सबके लिए सामूहिक तौर पर जनता को ‘‘अमूल्य मतों’’ की याद दिला रहा है। सड़कों पर लगे होर्डिंग्स में लिखे गये नारों में इस बेचैनी को समझा जा सकता है। कुछ बानगी-

1. वोट न करने से लोकतन्त्र पर लगने वाले दाग़ से अच्छा है मतदान कर उंगली पर स्याही का दाग़ लगवा लिया जाय। (दाग अच्छे हैं!)

2. वोट फॅार पीपुल्स फ्यूचर (जनता के भविष्य के लिए मतदान करें)

3. हैप्पी वोटिंग डे 15 (इलाहाबाद)

4. वोट फॅार अगेंस्ट करप्शन (भ्रष्टाचार-विरोध के पक्ष के मत डालें)

5. मैं मतदाता हूँ, भविष्य का निर्माता हूँ

6. आपका मत देश के भविष्य से भी अधिक मूल्यवान है

7. ‘प्रतिज्ञा’ (‘स्टार प्लस’ का एक धारावाहिक) की प्रतिज्ञा की प्रतिज्ञा- जो उंगली बिंदिया सजाती है वह एक वोट से प्रदेश सँवार सकती है।

चुनाव आयोग इसी तरह एक-एक गली में विभिन्न तरीकों से जनता को एक-एक वोट कीमत की बताते घूम रहा है। घूमें भी क्यों न! ले दे के एक जनता ही बची है नसीहत देने के लिए! नेताओं पर तो ज़ोर चलता नहीं (और चलाना भी नहीं चाहते) जो रोज़ ही चुनाव की आचार-संहिता की धज्जियाँ उड़ाते घूम रहे हैं (वैसे आचार-संहिता बनी ही इसीलिए है!)। इलाहाबाद में तो चुनाव आयोग के जिला निर्वाचन अधिकारी और डी.एम आलोक कुमार ने तो एक ग़ज़ब का बाज़ार-नुस्ख़ा खोजा है नौजवानों को पोलिंग बूथ तक लाने के लिए। कुछ ‘‘नये स्टेप्स’’ पर विचार हुआ। तय हुआ कि शहर के रेस्टोरेंट संचालकों और दुकानदारों को सहमत किया जाय कि जिन नौजवानों की उंगली में स्याही लगी हो उन्हें ख़रीदारी में उस दिन 5 प्रतिशत से 10 प्रतिशत की छूट दी जाय! इस प्लान से नेता भी खुश! व्यापारी भी खुश (यह भी हो सकता है कि मन्दी में डम्प पड़े माल को इसी बहाने निकाल लेने के इस नायाब नुस्‍खों का आविष्कार व्यापारियों ने ही किया हो)। और नौजवानों को मिले-दाग! और दाग अच्छे जो हैं।

यह तो चुनाव आयोग का मसला था। अब आइए, उन ‘‘प्रबुद्धजनों’’ (जिसमें ‘‘सिविल सोसाइटी’’ के घनघोर चिन्तक, ‘‘सफल’’ कवि, साहित्यकार, फिल्म अभिनेता, खिलाड़ी, कम्पनियों के प्रबन्धक आदि-आदि शामिल है।) की अपीलों, शिकायतों और क्रोध पर भी थोड़ा ग़ौर कर लिया जाये।

इनकी अपील है जनता के नाम! कि देश के संविधान में सबको कुछ अधिकार दिये गये है तो कुछ कर्तव्य भी दिये गये हैं! अधिकार में एक अधिकार मताधिकार भी है। हमें बाकी अधिकार मिले या न मिले (कोई पूछे क्यों?) लेकिन मताधिकार हमसे कोई नहीं छीन सकता। इसलिए उंगली पर लगा निशान, बन जायेगा आपकी शान! मत भूलिए कि वोट देना एक जि़म्मेदारी है। जो इस जि़म्मेदारी को पूरा नहीं करता वह एक अच्छा व ईमानदार इंसान नहीं है (यह है न्यायसंगत सोच कि वर्षों से चुनावों का परिणाम केवल अपनी तबाही-बर्बादी के रूप में पाने वाली जनता की स्वाभाविक बेरुख़ी भी इनको बेईमानी नज़र आती है)। एक महाशय तो जनता के इस ग़ैर-जि़म्मेदाराना रवैये पर इतना क्षुब्ध थे कि अखबार में फतवा ही दे डाला कि जो वोट न करे उसकी नागरिकता ही रद्द कर देनी चाहिए। हाँ! भष्ट्राचार में आकण्ठ डूबे नेताओं की नागरिकता के बारे में इनको कुछ नहीं कहना है। ऐसा करने से तो सारे ‘‘जनप्रतिनिधियों’’ की नागरिकता ही कठघरे में खड़ी हो जायेगी (यद्यपि इससे भी पूरी व्यवस्था पर कोई विशेष फर्क नहीं पड़ेगा)। इधर अण्णा जी की आँधी की जब हवा भी नहीं रह गयी तो अण्णा जी विश्राम कर रहे हैं और ‘‘चिन्तनरत’’ हैं (जब से इनकी टीम के एक प्रमुख सिपहसालार शांतिभूषण पर हाईकोर्ट ने जमीन के मामले में घपले की वजह से 25 लाख का जुर्माना लगाया है तब से वो ‘‘बाहरी दुनिया के सम्पर्क में नहीं है’’)। तो अण्णा टीम वोट दिलवाने के लिए जनता को जागरूक करने में मुस्तैदी से लगी है। पर किसको? वही पुराना राग-ईमानदार को! बाकी ईमानदार तलाशना जनता का काम है।

बड़ी शिकायत है ‘‘प्रबुद्धजनों’’ की कि लोग शराब, कम्बल, नोट इत्यादि के बदले अपना ‘‘अमूल्य वोट’’ बेच देते हैं। इनका भी सवाल बहुत ‘‘मासूम’’ है-क्यों नहीं ईमानदारों को वोट देते? यद्यपि ऐसे पाँच ईमानदारों का नाम पूछते ही बगल झाँकने लगते है! पर अड़ जाते हैं-चलिए जहाँ सभी ख़राब हैं वहाँ उनमें कम ख़राब वाले को वोट दो! तभी मुल्क की तरक्की होगी, सोसाइटी आगे बढ़ेगी! पर बहस थोड़ा आगे बढ़ाइये तो भड़क उठते हैं, उल-जुलूल बकने लगते हैं-यही जनता ऐसे भ्रष्ट लोगों को चुनकर भेजती है और भ्रष्टाचार के लिए जनता ही जिम्मेदार है! इति सिद्धम्!

अब इन काठ के उल्लुओं को कौन समझाये कि ‘जहाँ कूपै में भाँग पड़ी है’ यानी कि जहाँ सारे चोर हैं और उनमें से ही किसी एक को चुनना है तो इससे क्या फर्क पड़ता है कि उन्हें एक वोट से चुना जाता है या फिर सौ वोट से! या साँपनाथ और नागनाथ के चुनाव में चाहे ‘कुछ’ ले के ‘‘अमूल्य वोट’’ दिया जाय या फिर बिना ‘कुछ’ लिए, डसी तो जनता ही जायेगी! जनता सब जानती है। वह जानती है कि चुनाव के समय तो इस ‘‘अमूल्य वोट’’ से कुछ पाया जा सकता है जबकि चुनाव के बाद तो ‘‘जनप्रतिनिधियों’’ के दर्शन निराकार ब्रह्म की तरह दुर्लभ हो जायेंगे। परन्तु ये काठ के उल्लू कितना ख़्याल रखते हैं ‘‘जनप्रतिनिधियों’’ का, उनके टेंटे से ‘कुछ’ भी निकलने ही देना नहीं चाहते। इनका वह ईमानदार प्रत्याशी अमूर्त होता है। इनके ईमानदार नेता को चुनने की बात सुनकर जनता भी ‘कन्‍फ्यूज’ हो जाती है कि वह कहाँ ठप्पा मारे कि सीधे ‘‘ईमानदार’’ को जा लगे और वह अपना अमूर्त रूप छोड़कर साकार हो उठे!

पर वास्तव में ये काठ के उल्लू नहीं है। ये इस पूँजीवादी व्यवस्था के सबसे बड़े समझदार हैं। ये जानते हैं कि चुनावों से किसी तरह के बदलाव का यक़ीन आम जनता में नहीं है। परन्तु उंगली पर दाग लगवाने वाले पर्व में ही जनता की भागीदारी घटती गई तो इस दुनिया के सबसे बड़े लूटतंत्र की वैधता ही कठघरे में खड़ी हो जायेगी। बस! डर जाते हैं। और येन-केन-प्रकारेण जनता को पोलिंग बूथ की तरफ ठेलना चाहते हैं। परन्तु ये यह भी जानते हैं कि सारे वोटे करेंगे नहीं। तो बस! ये समझदार इस सच्चाई को भी पूँजीवादी लूटतंत्र के हित में इस्तेमाल करते हैं। (आखिर इसी का तो सुविधाफल पाते हैं) और सारा दोष वोट न करने पर मढ़ देते हैं ताकि लोग इस अपराधबोध में न बोलें क्योंकि उन्होंने वोट तो दिया नहीं है! या कम से कम उनमें यह भावना तो पैठ ही जाय कि उसने ही तो ‘कुछ’ के बदले अपना ‘‘अमूल्य वोट’’ दिया जिससे ख़राब प्रतिनिधि आ गये! तो अब खुद ही भुगते! देने वालों में यह बात बैठे कि सब न देने वालों या ‘कुछ’ ले कर देने वालों का दोष है। ये कुत्सित समझदार जनता को यह कभी नहीं बतायेंगे कि 100 प्रतिशत वोट से चुनने या बिना ‘कुछ’ लिये चुनने से बेईमान व भ्रष्ट तंत्र ईमानदार व जनहितैषी नहीं हो जायेगा।

इन सबके बावजूद लुटेरों की एक पार्टी से ऊबी हुई जनता का एक हिस्सा चुनाव में लुटेरों की दूसरी पार्टी को वोट डालती है, जैसा कि उत्तर प्रदेश चुनावों में हुआ है। कारण यह है कि जनता विकल्पहीनता की स्थिति में है। ऐसे में, जब तक कोई क्रान्तिकारी विकल्प नहीं खड़ा होता, जो क्रान्ति के जरिये देश की तकदीर को बदलने का माद्दा रखता हो, तब तक जनता का एक हिस्सा एक से ऊबकर दूसरे, और फिर दूसरे से ऊबकर पहले के पास आयेगा। अगर 60 प्रतिशत वोटरों ने वोट डाला तो इसका यह अर्थ नहीं है कि उन सभी का इस व्यवस्था में भरोसा पैदा हो गया है। इसका अर्थ सिर्फ इतना था कि मायावती के भ्रष्ट, ग़ैर-जनवादी, अपराधी राज से तंग आकर जनता का एक हिस्सा एक कम भ्रष्ट, कम अपराधी और कम ग़ैर-जनवादी राज को वोट दे रहा था। इस पूरी प्रक्रिया में मीडिया और पूँजीवादी प्रचार तन्त्र की बहुत बड़ी भूमिका होती है, जो बदलाव का छद्म रचने के लिए बीच-बीच में ‘युवा नायकों’ को खड़ा करता है जो एक भ्रामक ‘परिवर्तन’ की नुमाइन्दगी करते दिखलाये जाते हैं, जैसे कि अखिलेश यादव या राहुल गाँधी! लेकिन ऐसा कोई भी भ्रम दीर्घजीवी नहीं होता। अब जबकि सपा की सरकार बन चुकी है और अखिलेश यादव मुख्यमन्त्री बन चुके हैं, तो शुरू में ही सपा के दबंगों और अपराधियों ने अपने कारनामे शुरू कर दिये हैं। समझा जा सकता है कि आने वाले समय में क्या होगा! आम मेहनतकश जनता और आम घरों से आने वाले छात्रों-नौजवानों को यह समझना होगा कि पूँजीवादी चुनावों के इस स्वाँग में जीते कोई भी हारेगी जनता ही!

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2012

 

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