एक और छात्र चढ़ा अमानवीय शिक्षा व्यवस्था की बलि

काजल

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के छात्र अनिल कुमार की आत्महत्या ने कई बेहद गम्भीर और परेशान कर देने वाले सवालों को हमारे सामने ला खड़ा किया है। अनिल आरक्षित श्रेणी का एक छात्र था। अपने शैक्षणिक प्रदर्शन से हताश होकर उसने यह कदम उठाया। हिन्दी माध्यम का छात्र होने की वजह से वह कक्षा में अंग्रेज़ी में दिये जाने वाले व्याख्यानों को समझने में दिक्कत महसूस करता था। अध्यापकों से अपनी इस समस्या को साझा करने के बावजूद जब स्थिति ज्यों की त्यों बनी रही तो वह अवसाद का शिकार रहने लगा। नतीजतन, वह प्रथम वर्ष की परीक्षा में असफल हो गया और आखि़रकार उसने खुदकुशी कर ली।

एम्स में यह इस प्रकार की पहली घटना नहीं है। संस्थान में हर स्तर पर आरक्षित श्रेणी के छात्र-छात्राओं के साथ भेदभाव की बातें आम हैं। पिछले साल एक अन्य छात्र मुकुन्द भारती ने अपने साथ होने वाले भेदभाव के चलते आत्महत्या की थी। सितम्बर 2006 में संस्थान में दलितों और पिछड़े वर्ग से आने वाले छात्रों के साथ आपराधिक स्तर तक होने वाले भेदभाव की जाँच के लिए प्रो. थोराट की अगुवाई में एक समिति का गठन भी किया गया था। समिति द्वारा पेश की गयी रिपोर्ट में माना गया था कि एम्स में आरक्षित श्रेणी के विद्यार्थियों के साथ हर स्तर पर भेदभाव किया जाता है। इस भेदभाव को दूर करने के लिए समिति ने कुछ सुझाव भी पेश किये थे। लेकिन इन सिफ़ारिशों पर कितना अमल हुआ होगा यह तो अमित की आत्महत्या ने साफ़ कर दिया है।

सोचने की बात यह है कि जब देश के सबसे प्रख्यात शैक्षणिक संस्थानों में से एक में सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर पृष्ठभूमि से आने वाले छात्रों के साथ इस प्रकार का भेदभावपूर्ण बर्ताव किया जाता है तो अन्य संस्थानों में क्या हाल होगा इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

कुछ वर्ष पहले दिल्ली विश्वविद्यालय के हिन्दू कॉलेज के एक छात्र ने भी अंग्रेज़ी में कमज़ोर होने के चलते और इस स्थिति में अध्यापकों और प्रशासन के असहयोग के चलते आत्महत्या कर ली थी। ये सारी घटनाएँ इस व्यवस्था द्वारा प्रचारित ‘‘काबिलियत की कद्र और पूछ’’ के तमाम खोखले और अर्थहीन दावों की भी पोल खोलकर रखती हैं। ऐसा नहीं है कि ये तमाम छात्र जो इस तरह का कदम उठाने के लिए मजबूर होते हैं वे किसी भी मायने में अन्य छात्रों से कमतर या नाकाबिल होते हैं। रात-दिन मेहनत करके अगर ग़रीब पृष्ठभूमि से आने वाले लड़के-लड़कियाँ इन ‘‘उच्च’’ संस्थानों में पहुँच भी जाते हैं तो वहाँ उन्हें किस किस्म के अमानवीय बर्ताव का सामना करना पड़ता है, यह हमारे सामने है।

देश में उच्च शिक्षा पाने के योग्य आबादी का यदि सात प्रतिशत ही कॉलेज-विश्वविद्यालयों तक पहुँच पा रहा है तो यह उन बाकी के तिरानवे प्रतिशत की काबिलियत पर प्रश्न चिन्ह नहीं है बल्कि उस निकम्मी व्यवस्था पर एक धब्बा है जो उन्हें यह अवसर तक प्रदान नहीं कर सकती। एक ऐसी व्यवस्था जिसमें काबिलियत या नाकाबिलियत का पैमाना आपकी जेब में रखी नोटों की गड्डी के वज़न से तय होता है, जिसमें विश्वविद्यालय और कॉलेज ‘‘शॉपिंग मॉल’’ बन गये हों और सीटों की ख़रीद-फ़रोख़्त खुले तौर पर होती हो, वहाँ सक्षम होना आपकी व्यक्तिगत काबिलियत पर कम और आपकी पारिवारिक एवं सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि पर ज़्यादा निर्भर करता है। वैसे भी पूँजी और मुनाफ़े पर टिकी इस व्यवस्था में सारी मुक्त प्रतिस्पर्द्धा सम्पत्तिधारी वर्गों के बीच ही होती है। इसलिए इस व्यवस्था में मौजूद शिक्षा व्यवस्था से किसी अन्य चीज़ की उम्मीद करना ही मूर्खतापूर्ण होगा।

एम्स की इस हालिया घटना को लें या फिर इस प्रकार तमाम ऐसी घटनाओं, इन्हें आत्महत्या कहना ग़लत होगा। ये सब इस असमानतापूर्ण व्यवस्था द्वारा अंजाम दी गयी हत्याएँ हैं। ये हत्याएँ हैं स्वप्नों की और आकांक्षाओं की। और यह सिलसिला शायद तब तक नहीं थमेगा जब तक कि इस व्यवस्था का ही कोई विकल्प तैयार नहीं किया जाय।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-फरवरी 2012

 

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