शिक्षा व्यवस्था की बलि चढ़ा एक और मासूम
विजय, दिल्ली
अभी हाल ही में दिल्ली के द्वारका स्थित मास अपार्टमेण्ट्स में ग्यारवीं कक्षा की एक छात्रा ने आत्महत्या कर ली। कारण का अन्दाजा आपमें से कई लोग लगा चुके होंगे-परीक्षा में अपेक्षानुसार अंक न ला पाना। यह अपनी तरह की कोई अकेली घटना नहीं है। इस किस्म की सैकड़ों घटनाएँ आए दिन अख़बार में देखने को मिल जाती हैं। बेहद कम उम्र से ही परीक्षा में अच्छे नम्बर लाने की एक उन्मादी होड़ बच्चों के अन्दर उनके माँ–बाप, शिक्षकों और पूरे समाज के माहौल से पैदा कर दी जाती है। दूसरी–तीसरी कक्षा से ही बच्चे ट्यूशन सेण्टरों का चक्कर काटते नजर आते हैं। इस होड़ में कुछ की नैया तो पार लग जाती है, लेकिन एक भारी आबादी “नाकाबिल” करार दी जाती है। जो पीछे रह जाते हैं उनकी बड़ी आबादी कुण्ठा का शिकार होना शुरू हो जाती है। इनमें से कुछ ऐसे होते हैं जो अवसादग्रस्त होकर आत्महत्या करने जैसा कदम उठा लेते हैं। आख़िर इन मासूम बच्चों की इस स्थिति का जिम्मेदार कौन है ? यह सोचने की बात है। स्कूल में दाखिले के पहले दिन से ही उनके नन्हें कन्धों पर सपनों, आशाओं और आकांक्षाओं का बोझ लाद दिया जाता है। उनके दिमाग में यह बात बैठा दी जाती है कि अगर अव्वल न आए तो कितनी बेइज़्जती होगी, तो पढ़ना बेकार है, बल्कि जीना ही बेकार है। नतीजा यह होता है कि अच्छे नम्बर न ला पाने की सूरत में वे कुण्ठा व अवसाद का शिकार हो जाते हैं और कुछ आत्महत्या तक कर लेते हैं।
शैक्षणिक जीवन शुरू होते ही बच्चों का दिमाग इस बात में उलझ जाता है कि “बड़े होकर क्या बनना है ?”; “कौन सा कैरियर अपनाना है ?” आदि। और इसका पूरा श्रेय हमारे परिवारों और इस सामाजिक–आर्थिक व्यवस्था और शिक्षा प्रणाली को जाता है। ख़ैर, ऐसी व्यवस्था से जो ज्ञान को निजी सम्पत्ति मानती हो, जो शिक्षा को बड़ी बेहयायी के साथ बाजार में ख़रीदे और बेचे जाने वाले माल की तरह देखती हो और जिसके पोर–पोर में पूँजी घुस चुकी हो, इससे अलग कोई अपेक्षा करना सरासर बेवकूफी होगी। और जब तक यह व्यवस्था बनी रहेगी, तब तक कई मासूमों की बलि हर रोज चढ़ती रहेगी।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2006
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