विशेष आर्थिक क्षेत्र और जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी पुनर्नवीकरण मिशन के तहत
पूँजीपतियों को ज़मीन का बेशकीमती तोहफ़ा
आशीष
हाल ही में विशेष आर्थिक क्षेत्र (स्पेशल इकोनॉमिक जोन-सेज) को लेकर काफी हंगामा मचा। सत्ताधारी गठबंधन यूपीए के नेता और मंत्री भी इसके बारे में स्पष्टत: कुछ भी बोलने से कतराते रहे। इसके साथ ही पिछले साल दिसम्बर में शुरू हुए जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी पुनर्नवीकरण मिशन (नर्म) पर भी काफी शोर मचा। सेज एक्ट 2005 के तहत नियमों की सूचना जारी की गई जो 300 विशेषाधिकार प्राप्त आर्थिक क्षेत्रों का निर्माण करेंगे। सेज और नर्म के अतिरिक्त लगभग सभी बड़े शहरों के किनारों पर फैले बेशक़ीमती और बेशुमार जमीनों का सरकार द्वारा अधिग्रहण शुरू किया गया है। इन जमीनों को बाद में तमाम निजी बिल्डरों और बड़ी कम्पनियों को बेचा जा रहा है। इन तीनों औजारों का इस्तेमाल करके दरअसल जमीन का निजीकरण करने का काम किया जा रहा है।
सभी बड़े शहरों में जमीनों को औने–पौने दामों पर बड़े बिल्डरों को सौंपा जा रहा है। दिल्ली के इर्द–गिर्द के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में सरकार ने करीब 4.2 लाख एकड़ जमीन अधिग्रहण की है जिसे बिल्डरों और पूँजीपतियों को बेच दिये जाने की योजना है। दिल्ली विकास प्राधिकरण ने हाल ही में 1 लाख एकड़ जमीन बिल्डरों को बेची है। नोएडा और ग्रेटर नोएडा के विकास प्राधिकरणों ने दिल्ली से लगी 80,000 एकड़ जमीन हासिल की है और हडको ने फरीदाबाद में 40,000 एकड़ जमीन अधिग्रहीत की है। गाजियाबाद और गढ़ मुक्तेश्वर के बीच किसानों से 50 रुपये प्रति हेक्टेयर के दाम पर जमीनें ख़रीदी जा रही हैं जो बाजार दर से 20 से 100 गुना कम है। ग्रामीण जमीन का तेजी से औपनिवेशीकरण किया जा रहा है और एक उपशहरीकरण की प्रक्रिया तेजी से चल रही है जिसमें शहरी उच्चमध्यवर्ग की अग्रणी भूमिका है। भूमि निजीकरण की प्रक्रिया अभी आधी पूरी हुई होगी लेकिन उनकी कीमतें अभी से आसमान छू रही है और दिल्ली शहर और उसके आस–पास के इलाके में एक साधारण मकान लेने की हालत भी आम मध्य वर्ग के आदमी की नहीं रह गई है। एक अनुमान के अनुसार कुछ समय में निम्न आय वर्ग के लिए बनाए जाने वाले सरकारी फ्लैट की कीमत दिल्ली में 20 लाख रुपये के आस–पास होगी। अब कौन सा निम्न मध्यवर्ग का व्यक्ति 20 लाख रुपये का फ्लैट ख़रीद सकता है यह तो सरकार ही बता सकती है। ऐसे में 70 से 80 फीसदी शहरी आबादी के लिए रहने का केवल एक विकल्प रह जाता है-झुग्गी–झोपड़ी!
लेकिन यह विषमता उस विषमता के सामने कुछ भी नहीं है जो सेज के कारण पैदा होने वाली है। और विशेष आर्थिक क्षेत्रों के गठन की गति असाधारण है। पिछले नवम्बर से फरवरी 2006 के बीच सरकार ने 56 नये विशेष आर्थिक क्षेत्रों को स्वीकृति दी। और अब स्वीकृति पा चुके सेज क्षेत्रों की संख्या 150 के करीब है। पिछली जुलाई में भारत में 28 विशेष आर्थिक क्षेत्र थे। इनमें से अधिकांश निर्यात क्षेत्र के रूप में स्थापित किये गए थे हालाँकि ये कुल निर्यात का सिर्फ़ 5.1 प्रतिशत हिस्सा ही पैदा करते थे। वाणिज्य मंत्रालय कुल 300 सेज क्षेत्रों को स्थापित करना चाहता है।
सेज क्षेत्रों के निर्माण के पीछे जो तर्क दिया जाता है वह यह है कि इससे निर्यात को प्रोत्साहन मिलेगा और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिस्पर्द्धा करने की क्षमता रखने वाला कारोबार पैदा होगा। इससे विदेशी निवेश को आकृष्ट किया जा सकेगा। इसमें 100 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की छूट होगी। इन्हें किसी भी पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन की आवश्यकता नहीं होगी। यहाँ कोई भी श्रम कानून नहीं लागू होंगे। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि यह सिर्फ़ विदेशी पूँजी को आकृष्ट करने के लिए बनाए जा रहे हैं। यह इसी तथ्य से साफ हो जाता है कि वाणिज्य मंत्रालय के लिए जो सेज आवेदन आए हैं उनमें विदेशी कम्पनियों के साथ–साथ टाटा, महिंद्रा, रिलायंस, डीएलएफ, यूनीटेक जैसी विशाल भारतीय कम्पनियों के भी आवेदन हैं। यह दरअसल बड़ी पूँजी के हाथों अधिकतम संसाधनों को सौंपने और उनके लिए सर्वश्रेष्ठ मुनाफे की स्थितियाँ तैयार करने के लिए किया जा रहा है। यह पूँजी देशी हो या विदेशी इससे कोई गुणात्मक फर्क नहीं पड़ता।
सेज को मिलने वाली टैक्स राहत भी अहम है। पहले पाँच वर्ष तक 100 प्रतिशत कर राहत, अगले पाँच वर्षों के लिए 50 प्रतिशत कर राहत, लाभ पुनर्निवेश पर होने वाले उत्पादन पर फिर पाँच वर्षों की कर राहत। सेज में निर्माण करने वाले बिल्डरों को 10 वर्षों के लिए 100 प्रतिशत कर राहत दी जाएगी। वित्त मंत्रालय के अनुसार इससे 90,000 करोड़ रुपये का राजस्व घाटा होगा। नतीजा यह होगा कि सरकार तमाम सार्वजनिक कल्याण कार्यक्रमों में विनिवेश करेगी जैसे चिकित्सा, शिक्षा, आदि। यानी कुल मिलाकर जनता का भारी घाटा। जबकि जिन पूँजीपतियों के उद्यम सेज क्षेत्र में होंगे, उनकी तो चाँदी हो जाएगी। सेज से विकास का स्वप्न देखना भी एक मूर्खता है क्योंकि सेज क्षेत्र के 75 प्रतिशत हिस्से को गैर–केंद्रीय गतिविधियों जैसे शॉपिंग मॉल, मल्टीप्लेक्स, आदि के लिए भी इस्तेमाल किया जा सकता है। बिल्डर जाहिरा तौर पर रियल एस्टेट के जरिये तुरंत पैसा बनाने में अधिक दिलचस्पी रखेंगे, बजाय निर्यात आधारित उद्योग खड़ा करने के। इस तरह पूरे भारत में हम “गुड़गाँव जैसा विकास” देखेंगे। सेज का अनुभव दुनिया भर में कोई अच्छा नहीं रहा है। सेज के जरिये 10 लाख नये रोजगार पैदा करने का दावा भी खोखला लगता है। भारत के 28 विशेष आर्थिक क्षेत्रों ने सिर्फ़ 1,00,650 रोजगार पैदा किये हैं।
इसके अतिरिक्त विशेष आर्थिक क्षेत्र मजदूरों के लिए गुलामी करने जैसे होंगे। यहाँ कोई श्रम कानून लागू नहीं होंगे, न्यूनतम मजदूरी का कोई नियम लागू नहीं होगा, मजदूरों को शांतिपूर्ण ढंग से इकट्ठा होने, यूनियन बनाने का बुनियादी अधिकार भी नहीं होगा। इन क्षेत्रों के उद्योगों पर उस क्षेत्र के लोगों को रोजगार देने की भी कोई बाध्यता नहीं होगी। वे भूजल का दोहन करेंगे और आस–पास के अन्य प्राकृतिक संसाधनों का भी शोषण करेंगे। पर्यावरण और मनुष्य दोनों के लिए ही विशेष आर्थिक क्षेत्र बेहद ख़तरनाक होंगे। वे वास्तव में दरिद्रता के महासागर में ऐश्वर्य के टापू के समान होंगे।
अब नर्म (जवाहरलाल नेहरू शहरी पुनर्नवीकरण मिशन) पर एक नजर डालते हैं। नर्म जनता के लिए उतना नर्म नहीं साबित होगा। नर्म के तहत 63 शहरों के लिए 50,000 करोड़ रुपये की राशि आबण्टित की गई है। इस वर्ष खर्च के लिए 4,600 करोड़ रुपये की राशि रखी गई है। गौर करने की बात यह है कि यह पुनर्नवीकरण एशियन डेवेलपमेण्ट बैंक (एडीबी) और उसके द्वारा नियुक्त कारपोरेट–समर्थित सलाहकारों के मार्गदर्शन में चल रही है। ऐसे पुनर्नवीकरण का क्या मतलब होगा, यह आसानी से समझा जा सकता है। इस पुनर्नवीकरण में शहर से गरीबों का सफाया किया जाएगा। रिक्शेवालों, खोमचेवालों, फेरीवालों, हॉकरों आदि को शहर से बाहर खदेड़ दिया जाएगा। कार पार्किंग, शॉपिंग आर्केड आदि जैसी सुविधाओं की भरमार हो जाएगी। कुल मिलाकर शहर का नक्शा बदल जाएगा। शहर के अन्दर की सामाजिक संरचना में भारी बदलाव आएगा। पहले ही कोर्ट के आदेश से लाखों लोगों को दिल्ली और मुम्बई जैसे शहरों से बाहर खदेड़ा जा चुका है। अब सेज और नर्म जैसी साजिशों के तहत गरीबों से शहर को ख़ाली करने की योजना है। गरीबी का एक समुद्र दिल्ली और मुम्बई को घेरे हुए है और ये योजनाएँ इस समुद्र को महासमुद्र में तब्दील कर देंगी और ये शहर काफी कुछ रियो डि जेनेरो जैसे हो जाएँगे। शहर के भीतर स्काईस्क्रेपर्स आसमान चूम रहे होंगे और शहर के किनारे करोड़ों की संख्या में आम मेहनतकश आबादी झुग्गी–झोपड़ी बस्तियों में रह रही होगी।
जमीन का निजीकरण इस पैमाने पर कभी नहीं हुआ था। अब भू–समानता की सभी अवधारणाओं को तिलांजलि देकर केन्द्रीय और राज्य सरकारें खुले तौर पर पूँजीपतियों के पक्ष में आ गई हैं और उन्हें सारी जमीनें मिट्टी के मोल बेच रही हैं। लेकिन पूँजीपति वर्ग अपनी ही कब्र खोदने का काम कर रहा है। और इस व्यवस्था की ‘शॉक एब्जॉर्बिंग’ क्षमता को लेकर जो अति–आशावादी अनुमान लगाए जा रहे थे, वे भी जल्दी ही गलत साबित हो जाएँगे। जो लोग कह रहे थे कि आम मध्य वर्ग को पूँजीपति वर्ग और राज्यसत्ता अपने में समाहित (को–ऑप्ट) कर लेगी, उनकी आँखें नर्म और सेज के आधा रास्ता तय करते ही खुल जाएँगी। यह व्यवस्था ज़्यादा से ज़्यादा उच्च मध्य वर्ग को समाहित कर सकती है। 80 फीसदी आबादी को यह व्यवस्था रोटी, कपड़ा और मकान देने में अधिक से अधिक अक्षम होती जा रही है। सरकार पहले से कहीं अधिक साफ तौर पर पूँजीपतियों के पक्ष में खड़ी हो रही है और उसका चरित्र पहले से कहीं अधिक साफ होता जा रहा है। और अभी तो यह शुरुआत है। आगे सेज और नर्म जैसी अन्य कई योजनाएँ आएँगी जो संसाधनों को पूँजीपतियों को सौंपती जाएँगी और मानव संसाधन को भी उनकी दया पर छोड़ देंगी।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2006
'आह्वान' की सदस्यता लें!
आर्थिक सहयोग भी करें!