बॉब वूल्मर की मौत, क्रिकेट, अपराध, राष्ट्रवाद और पूँजीवाद
प्रदीप
हाल ही में ख़त्म हुए क्रिकेट विश्व कप ने भारत के क्रिकेट प्रेमियों के दिल में एक कड़वी याद छोड़ दी। मीडिया के जबर्दस्त शोरगुल और डागे-बाजे के साथ विश्व कप गई भारतीय टीम शर्मनाक ढंग से पहले ही दौर में बाहर हो गयी। तमाम विश्व प्रसिद्ध सितारों से सजी टीम वेस्टइण्डीज़ में धूल चाटती नज़र आयी। स्वदेश वापस लौटने के बाद आरोपों-प्रत्यारोपों का दौर शुरू हो गया। कोच को हटा दिया गया। कई सीनियर खिलाड़ियों पर उंगलियाँ उठीं। और भी बहुत कुछ हुआ जिसका ब्यौरा यहाँ पर देना बेकार है क्योंकि इस टिप्पणी लेखक को लगता है इससे सम्बन्धित ख़बरें पाठकों ने उससे भी ज़्यादा दिलचस्पी के साथ पढ़ी होंगी!
इस विश्व कप के दौरान एक और ऐसी घटना हुई जिसने सबको चौंका कर रख दिया। भारत की तरह ही पाकिस्तान की टीम भी पहले ही दौर में बाहर हो गयी। पाकिस्तान का बाहर होना तभी तय हो गया जब वह आयरलैण्ड की टीम से अप्रत्याशित रूप से हार गयी। इसके अगले दिन ही बॉब वूल्मर, जो कि पाकिस्तानी टीम के कोच थे, की लाश उनके होटल के कमरे में पायी गयी। लम्बे समय तक इस पर अटकलें लगती रहीं कि यह हत्या थी या नहीं। कुछ समय बाद जमैका पुलिस इस नतीजे पर पहुँची कि यह हत्या थी। अभी ताज़ा ख़बर मिलने तक पुलिस अब इस नतीजे पर पहुँचती दिख रही है कि यह हत्या नहीं है। चाहे जो भी हो हम जो कहना चाहते हैं वह कह सकते हैं। बॉब वूल्मर की मौत ने कई सवाल खड़े कर दिये हैं।
घबराइये मत! यहाँ हम किसी बाज़ारू न्यूज़ चैनल की तरह वूल्मर की मौत को कोई सनसनीखेज़ माल बनाकर पेश नहीं करने जा रहे हैं, न ही खोजी पत्रकारिता की गटर–गंगा में उतरने जा रहे हैं। हम जो सवाल उठाना चाहते हैं वे यह नहीं हैं कि ‘वूल्मर की मौत हत्या थी या नहीं?’ या ‘किसने मारा वूल्मर को!?’! हम जो बात कहना चाहते हैं वह यह है कि किसी भी वस्तु का एक हद से अधिक व्यापारीकरण और बाज़ारीकरण कर दिया जाय तो देर-सबेर उसमें अपराध का प्रवेश हो ही जाता है। चाहे वह कोई धंधा हो या खेल। जैसा कि प्रसिद्ध फ्रांसीसी उपन्यासकार ओनोरे दि बाल्ज़ाक ने कहा था, सभी सम्पत्ति साम्राज्यों की बुनियाद अपराध होता है। उसी प्रकार हर वाणिज्यीकरण और बाज़ारीकरण या रोज़मर्रा की भाषा में कहें तो मुनाफ़े की हवस अंततः अपराधीकरण की ओर ले जाती है। खेल आज खेल रह ही नहीं गये हैं। वे एक बहुत बड़ा व्यवसाय हैं। इसलिए किसी भी खेल को आज खेल भावना के साथ नहीं खेला जाता बल्कि व्यवसाय भावना के साथ खेला जाता है। यानी खेलों में से नैतिकता का लोप हो रहा है, खिलाड़ी ड्रग्स लेकर या अन्य अनैतिक जरियों का उपयोग करके किसी भी तरह जीतने के उन्माद में लगे रहते हैं। ठीक उसी तरह जैसे व्यवसाय जगत में एक व्यवसायी दूसरे व्यवसायी को तबाह करने के लिए उचित-अनुचित तरीकों के इस्तेमाल से नहीं कतराते। असफ़ल हो जाने पर हताशा और निराशा में कोई अतिवादी कदम उठा लेना भी खेल और व्यवसाय, दोनों की अभिलाक्षणिक विशेषता है। जैसे बरबाद होने पर व्यवसायियों द्वारा आत्महत्या या हत्या किया जाना और खेल में हार पर बॉब वूल्मर द्वारा आत्महत्या या फ़िर सटोरिये खिलाड़ियों के नाम का खुलासा करने की बात करने पर किसी फ़ँसने वाले व्यक्ति द्वारा उनकी हत्या।
बाज़ार और व्यवसाय का सवाल ही हमें राष्ट्रवाद के प्रश्न की ओर भी ले जाता है। इतिहास बताता है कि पूँजीपति वर्ग का राष्ट्रवाद मण्डी में पैदा हुआ था। साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि पूँजीवादी समाज में खेल का ‘मण्डीकरण’ हो जाता है। पूँजीपति वर्ग जब सामन्तवाद के ख़िलाफ़ लड़ रहा था तो बिखरे हुए स्थानीय बाज़ार उसके आर्थिक विकास में बाधा थे। नतीजतन, पूँजीवाद ने राष्ट्रीय एकीकृत बाज़ार का निर्माण किया। इसके लिए उसने एक राष्ट्र, एक भाषा आदि की बात करनी शुरू की क्योंकि इसके बिना एकीकृत बाज़ार बनना असम्भव था। यहीं से पूँजीवादी राष्ट्रवाद का उदय होता है जिसका इस्तेमाल पूँजीपति वर्ग पहले सामन्तवाद से सत्ता छीनने और फ़िर अपनी लूट को सुचारू बनाने के लिए जनता के एक हिस्से को अपने पक्ष में करने के लिए करता है। साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा के दौर में युद्ध से पैदा किया जाने वाला मुनाफ़ा भी जनता में अंधराष्ट्रवादी भावनाएँ भड़का कर ही हड़पा जा सकता था। जनता के समर्थन के बिना पूँजीवादी देश युद्ध नहीं लड़ सकते थे। और जनता का समर्थन राष्ट्रवाद के नाम पर ही जीता जा सकता था।
खेल से मुनाफ़ा कमाने के लिए भी लोगों की राष्ट्रवादी भावनाओं को उभाड़ा जाता है। इसके जरिये ही तमाम माल बिकते हैं। खेल खेल न होकर एक व्यवसाय में तब्दील हो जाता है। नतीजतन, कोई खेल भावना भी नहीं बचती। टीमों के जीतने-हारने पर अरबों रुपयों का सट्टा लगा होता है। सटोरिये खिलाड़ियों को ख़रीदते हैं और मैच फ़िक्स करते हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का अरबों-खरबों का मुनाफ़ा भी खेलों से जुड़ा होता है। खेलों के परिप्रेक्ष्य में यह समझना बेहद महत्वपूर्ण है कि एक पूँजीवादी समाज में खेल का क्या हाल होता है।
खेल-एक ऐसा शब्द जिसे सुनकर ताज़गी और स्फ़ूर्ति का अहसास होने लगता है। खेल मानवता के इतिहास में श्रम प्रक्रिया और उससे जुड़े सांस्कृतिक क्रिया-कलापों के साथ-साथ मनुष्य की ज़रूरत के रूप में सामने आये थे, उन्हें पूँजीवाद ने अपने मुनाफ़े के लिए व्यवसाय में तब्दील कर दिया है। मुनाफ़े की आँधी में तमाम कम्पनियाँ खेलों की ताज़गी और स्फ़ूर्ति को नष्ट कर रही हैं।
बाज़ार में खोते खेल और खिलाड़ी
“हमने क्रिकेट पर पैसा लगाया है न कि भारत के प्रदर्शन पर।“ यह कहना था एल.जी. कम्पनी के उपाध्यक्ष का। इसके अलावा बाकी प्रायोजकों ने भी अपने सुर–ताल में परिवर्तन करते हुए कहा कि ‘हमें भारत की जीत या हार से कोई फ़र्क नहीं पड़ता।’ ऐसा उन्होंने तब कहा था जब भारत 2007 के क्रिकेट विश्व कप से बाहर हो गया था। जबकि यह सभी प्रायोजक विश्व कप शुरू होने से पहले भारत की जीत की दुआएँ कर रहे थे। नये-नये अनुबन्ध किये जा रहे थे। खिलाड़ी खिलाड़ी कम और सेल्समैन ज़्यादा दिख रहे थे। ऐसे में खेल भावना की तलाश खेलों में करना आकाश कुसुम की अभिलाषा करने के समान ही होगा।
दुनिया का कोई भी खेल आयोजन हो, उसमें खेलने वाले खिलाड़ियों और उनके प्रदर्शन पर सभी की नज़रें टिकी रहती हैं। यही वह समय होता है जब बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ इन उम्मीदों को कैश करके अरबों-खरबों की कमाई में तब्दील करने के लिए अपने शातिर दिमाग़ का इस्तेमाल शुरू कर देती हैं। इन कम्पनियों की दिलचस्पी न तो खेलों में होती है, न खिलाड़ी में और न ही देश की प्रतिष्ठा में क्योंकि इन बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का अपना कोई देश नहीं होता। उन्हें जिस देश में जिस खेल पर पैसा लगाकर मुनाफ़ा मिल सकता है वहाँ वे पैसा लगाती हैं। ऐसे में कोई भी बड़ा-छोटा खेल आयोजन कपड़े, मोबाइल, मोटरबाइक, कार, टायर, और यहाँ तक कि चड्ढी-बनियान तक बेचने के लिए 24 घण्टे विज्ञापन दिखलाने का एक सुनहरा मौका होता है और इसे भला कोई कम्पनी क्यों छोड़ेगी।
आज खेलों पर और खेल आयोजनों के समस्त अन्तरराष्ट्रीय तन्त्र पर धनी देशों का पूर्ण रूप से अधिकार है। खेलों के नायक आज बाज़ार के नायक होते हैं। वे वस्तुओं के प्रचारक होते हैं और कई बार तो वस्तुओं का ही एक विस्तार बन जाते हैं, जिसके लिए उनकों नोटों की गडि्डयों के तले दबा दिया जाता है। आज खिलाड़ी जब मैदान पर उतरते हैं तो वह सिर से पाँव तक कम्पनियों के चलते-फ़िरते विज्ञापन लगते हैं। जो जितना सफ़ल है उस पर विज्ञापनों के अनुबन्धों की बौछार उतनी ही ज़्यादा! देश के लिए खेलना गौण और पैसों के लिए खेलना खिलाड़ियों के लिए प्राथमिक प्रेरक शक्ति बन जाती है। क्रिकेट को वर्तमान बाज़ारीकृत रूप देने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई थी आस्ट्रेलियाई पूँजीपति कैरी पैकर ने। ओलम्पिक खेलों में भी खिलाड़ियों के लिए जीतना सबसे महत्वपूर्ण हो गया है। इसलिए नहीं कि सोने-चाँदी के तमगे मिलते हैं, बल्कि इसलिए कि एक जीत का अर्थ होता है करोड़ों डॉलर के विज्ञापन अनुबन्ध। किसी भी तरह जीत हासिल करना सबसे बड़ी बात बन जाती है और नतीजतन खिलाड़ी ड्रग्स और प्रतिबन्धित दवाओं का सेवन करने से भी नहीं हिचकिचाते हैं और खेल भावना को लांछित करते हैं। आधुनिक ओलम्पिक खेलों के जन्मदाता कूबर्ते ने कहा था कि ओलम्पिक में भाग लेना ज़्यादा महत्वपूर्ण है न कि जीतना। खेल आज विज्ञापन व मनोरंजन उद्योग के लिए ऐसा माध्यम बन गये हैं जिससे ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा बटोरा जा सके। और सफ़ल खिलाड़ी इस मुनाफ़े के कारोबार में छोटे-मोटे भागीदार बन जाते हैं। बाज़ारवाद ने खेलों की स्वस्थ, परस्पर प्रोत्साहन से भरी प्रतिस्पर्धा को ख़त्म कर उसमें अंधी, गलाकाटू होड़ भर दी है, जिसका दुष्परिणाम हम वर्तमान में बॉब वूल्मर की हत्या जैसे काण्ड में तो देख ही रहे हैं, भविष्य में यह और भी भद्दे रंग में दिखाई देगा।
खेलों की आड़ में जनता का ज़बर्दस्त शोषण
सभी पूँजीवादी देश अपने यहाँ ओलम्पिक और राष्ट्रमण्डल जैसे बड़े खेल आयोजन कराने के लिए छोटे बच्चों की तरह मचलते रहते हैं। ऐसा वे इसलिए नहीं करते कि देश में खेल को बढ़ावा मिले, बल्कि इसलिए कि ऐसे मौके पर दर्जनों विशाल स्टेडियम, तरणताल, होटल, हज़ारों खिलाड़ियों के रहने के लिए खेलगाँव आदि बनते हैं, जिससे देश के बड़े-बड़े बिल्डरों, ठेकेदारों और बड़ी-बड़ी कम्पनियों की चाँदी हो जाती है। टैक्स के रूप में जनता से वसूला गया पैसा पानी की तरह बहाया जाता है और मुनाफ़े की इस गटर–गंगा में राजनीतिज्ञों से लेकर छोटे-बड़े अफ़सर तक हाथ ही नहीं धोते बल्कि अच्छी तरह नहाते भी हैं।
भारत में भी 2010 में राष्ट्रमण्डल खेल होने वाले हैं, जिसकी तैयारियाँ दिल्ली में ज़ोर-शोर से चल रही हैं। विश्व भर से आने वाले खिलाड़ियों और दर्शकों को ध्यान में रखते हुए दिल्ली का सौन्दर्यीकरण किया जा रहा है। इसके लिए झुग्गी-बस्तियों को उजाड़ा जा रहा है, आम आदमी को दर-बदर किया जा रहा है क्योंकि इन झुग्गियों और छोटा-मोटा धन्धा करने वाले लोगों की वजह से दिल्ली की खूबसूरती पर कई बदनुमा दाग़ लग जाते हैं। इन राष्ट्रमण्डल खेलों में जो खरबों रुपये ख़र्च किये जा रहे हैं वह कहीं और से नहीं बल्कि जनता की जेब से ही कर के रूप में वसूले गये हैं। लेकिन इस पूरे निवेश पर मिलने वाले फ़ायदे की मलाई ऊपर के बीस फ़ीसदी लोग ही हड़प जाते हैं। यहाँ पर भी जनता के मध्यवर्गीय हिस्से की राष्ट्रवादी भावना को उभाड़कर उसका इस्तेमाल श्रमशक्ति को जुटाने और उसके भयंकर शोषण पर पर्दा डालने के लिए किया जाता है। यह कहकर कि राष्ट्रमण्डल खेलों का आयोजन हमारे देश के लिए गौरव की बात है, बड़ी-बड़ी इमारतों, स्टेडियमों, होटलों आदि का निर्माण किया जाता है। इसमें मज़दूरों का भयंकर शोषण किया जाता है और ठेकेदारों-पूँजीपतियों के दिन बहुर जाते हैं। जब मज़दूर खून-पसीना एक करके सारे निर्माण कार्यों को पूरा कर देते हैं तो उन्हें उनके बनाए गए स्वर्ग से विदा कर दिया जाता है।
खेलों में बढ़ता भ्रष्टाचार
मुनाफ़े पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था में हर क्षेत्र में, चाहे वह नौकरशाही हो, उद्योग जगत हो, पुलिस हो, या न्याय-व्यवस्था, भ्रष्टाचार का बोलबाला होता है। चूँकि पूँजीवादी समाज में हर काम किसी न किसी निजी फ़ायदे के लिए किया जाता है इसलिए भ्रष्टाचार की ज़मीन उपजाऊ बनी रहती है। खेल भी इससे अछूते नहीं रहते। जब से खेल में पूँजी का प्रवेश हुआ है तब से इसका भ्रष्टीकरण और अपराधीकरण जारी है।
ओलम्पिक जैसे बड़े खेल आयोजन हों या छोटे-मोटे खेल आयोजन, इनमें भ्रष्टाचार हमें विभिन्न रूपों में देखने को मिल जाता है। खिलाड़ी जीतने के ज़बर्दस्त दबाव में प्रतिबन्धित दवाओं का सेवन करते हैं, खेल अधिकारी खिलाड़ियों के चयन में दलाली खाते हैं, जिससे कई उभरते हुए खिलाड़ियों का कैरियर भी चौपट हो जाता है। इसके अलावा कम्पनियों द्वारा मुनाफ़े के लिए पैदा किया गया झूठा उन्माद दर्शकों में हिंसा कराता है। इन सब परिघटनाओं का एक ही कारण है-मुनाफ़े की हवस, खेलों का व्यापारीकरण (या आप इसे अपराधीकरण भी पढ़ सकते हैं), जो खेल के व्यापारियों और खिलाड़ियों दोनों को ही अन्धा कर देते हैं।
टेनिस, फ़ुटबॉल, एथलेटिक्स, मुक्केबाज़ी और हॉकी आदि सभी खेलों में आज भ्रष्टाचार फ़ैला हुआ है। लेकिन कुछ वर्षों से यह क्रिकेट में ज़्यादा नज़र आने लगा है। आज क्रिकेट का नियन्त्रण क्रिकेट नियन्त्रण बोर्ड और खिलाड़ियों का प्रदर्शन कम करते हैं, सटोरिये ज़्यादा करते हैं। सटोरिये जिस टीम को चाहें जिता सकते हैं, जिस टीम को चाहें हरा सकते हैं। वह भी घर बैठे! कुछ क्रिकेट खिलाड़ियों को पैसे के लालच में लाकर यह काम सटोरिये बखूबी अंजाम देते हैं। क्रिकेट में सट्टेबाज़ी की शुरुआत तो काफ़ी पहले हो चुकी थी, लेकिन हैंसी क्रोनिये प्रकरण ने उसे चर्चा का विषय बना दिया। इस प्रकरण में कई खिलाड़ियों के नाम आये थे। सट्टेबाज़ी तमाम मुनाफ़ाखोरों के प्रवेश के साथ क्रिकेट की दुनिया में पूरे शबाब पर है। बॉब वूल्मर की हत्या के पीछे भी सट्टेबाज़ी एक कारण के रूप में सामने आती दिख रही है। अपनी मौत से ठीक पहले वूल्मर ने कहा था कि अपनी जीवनी में वे पाकिस्तानी टीम के ऐसे कई खिलाड़ियों के बारे में खुलासा करेंगे जो सट्टेबाज़ी और फ़िक्सिंग में संलग्न हैं।
खेलों में इस तरह के अपराध अभी एक शुरुआत मात्र हैं। आने वाले समय में ये और तेज़ी से बढ़ेंगे। पैसे की हवस में अन्धे लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं। पैसे की हवस बाज़ारीकरण के साथ ही पैदा होती है। जैसे-जैसे बाज़ारीकरण बढ़ेगा, पैसे की हवस बढ़ेगी और जैसे-जैसे पैसे की हवस बढ़ेगी वैसे-वैसे अपराधीकरण बढ़ेगा।
हम खेलों में पीछे क्यों?
खेलों में हम पीछे हैं यह सोचकर हमारी राष्ट्रवादी भावनाओं को काफ़ी ठेस पहुँचती हैं। उस वक्त हम खिलाड़ियों के विज्ञापन करने और चयन समिति की नीति की, और साथ ही खिलाड़ियों के अफ़ेयर चलने आदि की काफ़ी आलोचना करते हैं। लेकिन सोचने की बात यह है कि हम खेलों में पीछे क्यों हैं? इतनी बड़ी जनसंख्या लेकर भी हम एक विनर पैदा नहीं कर पाते हैं ओलम्पिक की स्तर पर? फ़ुटबॉल विश्व कप के लिए कभी क्वालिफ़ाई तक नहीं कर पाते? पश्चिमी दुनिया के कई देश जिनका आकार सिक्किम और हिमाचल प्रदेश जितना है वे तक बड़े खेल आयोजनों की पदक तालिका में ऊपर दिख जाते हैं। लेकिन हम उसमें से नदारद रहते हैं।
इसकी वजह साफ़ है। पश्चिमी पूँजीवादी देशों ने अपनी साम्राज्यवादी लूट के बूते अपने देश की जनता के बड़े हिस्से को बुनियादी सुविधाएँ मुहैया करा दी हैं। हालाँकि इसकी कीमत तीसरी दुनिया के देशों की जनता ने ही चुकाई। नतीजतन, एक असमान विकास हुआ जिसके कारण पश्चिमी देशों की आबादी के एकदम निचले हिस्से को छोड़कर शेष आम आबादी की पहुँच तमाम सुविधाओं तक है। दूसरी तरफ़, भारत जैसे देशों में खेल सुविधाओं, कोचिंग, सामग्री आदि तक पहुँच इस देश के सिर्फ़ 10–15 फ़ीसदी लोगों तक की ही है।
दूसरी बात यह है, कि खेलों में ऊपर से नीचे तक बेईमानी, भ्रष्टाचार और भाई–भतीजावाद का बोलबाला है। खेल जगत और मीडिया में अक्सर इसकी चर्चा भी होती है। उन्नत देशों में आबादी का पूरा हिस्सा खेल-कूद में शिरकत करता है जबकि भारत जैसे देशों में भ्रष्टाचार, ग़रीबी आदि के कारण आबादी का एक बेहद छोटा हिस्सा ही खेल-कूद आदि को कैरियर बना पाता है। ऊपर के 10–15 प्रतिशत में से योग्य, प्रतिभाशाली खिलाड़ियों का पैदा होना मुश्किल है क्योंकि यह आबादी ऐशो-आराम में डूबी हुई है।
आज का खेल आधुनिक तकनीक और विलक्षण प्रतिभा की माँग करता है जबकि यहाँ की आबादी में आधे से अधिक लोग भूखे-नंगे हैं। बाकी में से अधिकांश लोग इंसानी ज़िन्दगी की बुनियादी शर्तों से महरूम हैं। ऐसे लोगों से ये उम्मीद करना व्यर्थ होगा कि वे खेलकूल में चैम्पियन बनें। देश की 80 फ़ीसदी आबादी के पास न तो आधुनिक खेलकूद के साधन हैं, न समय और न ही हालात। शेष 20 प्रतिशत आबादी में से 10 प्रतिशत उन थैलीशाहों, नेताओं, नौकरशाहों तथा तरह-तरह के काले धंधे वालों का है जो ऐश्वर्य और ऐयाशी का जीवन बिताते हैं। इनके पास साधन तो सभी हैं, पर इनकी जीवन शैली और मानसिक बनावट ऐसी है कि इनमें सामान्य साहस का भी अभाव है।
ऐसी स्थिति में क्या आश्चर्य कि हम खेलों में इतने पीछे हैं। जब तक मनुष्य की सामान्य ज़रूरतें पूरी नहीं हो जातीं तब तक वह खेलने के बारे में नहीं सोच सकता। इन ज़रूरतों को पूरा करके ही खेलों को धनपशुओं की बपौती से आज़ाद कराया जा सकता है और तभी समस्त जनता की प्रतिभा का प्रस्फ़ुटन होगा और तभी खेल के नक्शे पर भारत नाम उभर सकेगा। यह तभी हो सकता है जब इस मुनाफ़े पर टिकी अवैज्ञानिक और अतार्किक व्यवस्था का ध्वंस कर एक मानव-केन्द्रित व्यवस्था का निर्माण किया जाय, जिसमें संसाधनों और सत्ता की बागडोर पूरी जनता के हाथ में होगी।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-सितम्बर 2007
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