ख़र्चीला और परजीवी होता “जनतंत्र”, लुटती और बरबाद होती जनता
शिवानी
संसद के मानसून सत्र के ख़त्म होने से पहले 23 अगस्त को लोकसभा में सांसदों के वेतन–भत्तों और सुविधाओं–सहूलियतों में बढ़ोत्तरी का बिल पेश करते हुए संसदीय कार्य मन्त्री प्रियरंजन दासमुंशी ने एतराज जताते हुए बड़े दु:ख के साथ ऐलान किया कि भारतीय सांसद दुनिया के सबसे कम वेतन पाने वाले सांसद हैं। बताने की जरूरत नहीं कि इस मुद्दे पर देश के “जनसेवकों” में आश्चर्यजनक सहमति नजर आई। संसद में यह बिल सभी आपसी मतभेद, मनमुटाव भुलाकर एकमत से पारित किया गया।
आइये, जरा पड़ताल करते हैं कि माननीय मन्त्री महोदय के कथन में कितनी सच्चाई है। आजादी से लेकर अब तक सांसदों के वेतन–भत्तों में जो बढ़ोत्तरी हुई है, वह कुछ इस तरह है :– 1) 1954 में सांसदों का मासिक वेतन 400 रुपये था, जो 1969 में बढ़कर 500 रुपये, 1983 में 750 रुपये, 1985 में 1000 रुपये, 1988 में 1500 रुपये, 1998 में 4000 रुपये, 2001 में 12000 रुपये और 2006 में 16000 रुपये कर दिया गया: 2) दैनिक भत्ता 1954 में 21 रुपये से बढ़कर 1964 में 50 रुपये, 1969 में 51 रुपये, 1983 में 75 रुपये, 1988 में 150 रुपये, 1993 में 200 रुपये, 1998 में 400 रुपये, 2001 में 500 रुपये और 2006 में 1000 रुपये कर दिया गया है; 3) कार्यालय ख़र्च 14 हजार से बढ़ाकर 21 हजार प्रति माह और चुनाव क्षेत्र भत्ता भी 10000 से बढ़ाकर 23 हजार रुपये कर दिया गया है; 4) अगर केवल वेतन–भत्तों की बात करें तो हर सांसद को सालाना लगभग 12 लाख रुपये से ऊपर मिलेंगे। गौरतलब है कि सांसदों का आयकर भी माफ है; 5) इसके अलावा अब यात्रा भत्ता 7 रुपये प्रति किलोमीटर के बजाय 13 रुपये प्रति किलोमीटर और मुफ़्त एकल हवाई यात्राओं की संख्या भी 32 से बढ़ाकर 34 कर दी गई है; 6) सांसदों को पहले दो फिक्स्ड फोन (एक दिल्ली में और एक चुनाव क्षेत्र में) और एक मोबाइल फोन की सेवा मुफ़्त दी जाती थी। अब एक और मोबाइल मिलेगा। पहले इन सब पर कुल मिलाकर एक लाख स्थानीय कॉल या इसके बराबर मूल्य के एस.टी.डी. कॉल मुफ़्त दिये जाते थे लेकिन मुफ़्त कॉलों की संख्या बढ़ाकर दो लाख कर दी गई है; 7) सांसदों को राजधानी में आवास सुविधा पहले भी मुफ़्त दी जाती थी लेकिन सांसद न रहने पर दो महीने में आवास ख़ाली कर देना पड़ता था। अब भूतपूर्व सांसद छह महीने तक मुफ़्त सरकारी आवास में डेरा जमाये रख सकते हैं। आवास पर बिजली मुफ़्त है; 8) भूतपूर्व सांसदों को पेंशन भी बढ़ाकर 3000 से 8000 रुपये कर दी गई है। पहले दिवंगत सांसदों को फैमिली पेंशन केवल दो साल के लिए मिलती थी। अब इसे बढ़ाकर आजीवन कर दिया गया है।
ऊपर दिये गये आँकड़े बेशक माननीय मन्त्री महोदय के कथन से मेल न खाते हों, लेकिन इससे फर्क किसे पड़ता है। देश के इन “जनसेवकों” को तो कत्तई नहीं जिन्हें भारत की दरिद्रता का अनुमान सिर्फ अपने वेतन–भत्तों–पेंशन से चलता है। यह भी इस जनतंत्र के ख़र्चीले होते जाने को ही दर्शाता है कि संसद नामक निठल्ले बहस, गालीबाजी और नौटंकी के अड्डे की एक घण्टे की कार्रवाई पर 16 लाख रुपये ख़र्च होते हैं। संसद के हर सत्र में बहिष्कार, हल्ला–हंगामा, धमाचैकड़ी आदि के चलते 50–60 घण्टे का समय बरबाद होता है। यानी हर सत्र में औसतन 10 करोड़ रुपये यूँ ही स्वाहा हो जाते हैं। यही नहीं, सांसदों के वेतन–भत्तों–सुविधाओं की इस बढ़ोत्तरी से सरकारी ख़जाने पर सालाना 60 हजार करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ेगा। लेकिन इससे भी सरकार को कोई फर्क नहीं पड़ता। इसका इंतजाम तो वित्तमन्त्री महोदय अगले सत्र में कर देंगे। आख़िर उन्हें जनता की जेब काटने का सरकारी लाईसेंस जो मिला हुआ है! “जनतंत्र” का यह बोझ जनता की छाती पर केवल सांसदों–विधायकों के वेतन–भत्तों के रूप में ही नहीं है। देश के राष्ट्रपति पर रोजाना लगभग पाँच लाख रुपये और प्रधानमन्त्री कार्यालय पर रोजाना ख़र्च लगभग तीन लाख रुपये है। केन्द्रीय मन्त्रीमण्डल पर प्रतिदिन 15 लाख रुपये से भी अधिक ख़र्च हो जाते हैं। विशिष्ट व्यक्तियों (! ?) की सुरक्षा पर सालाना लगभग दो अरब रुपये ख़र्च होते हैं। सोचने की बात है कि आख़िर इन सब का ख़र्च कहाँ से निकलता है ? जाहिरा तौर पर आम मेहनतकश जनता की जेब से।
आइये, अब एक सरसरी निगाह दौड़ाते हैं इस तस्वीर के दूसरे पहलू पर। जहाँ आजादी से लेकर अब तक सांसदों–विधायकों के वेतन–भत्तों–पेंशन और निजी सम्पत्ति में जमीन–आसमान का फर्क आया है वहीं आम मेहनतकश के जीवन के हालात बद से बदतर हो गए हैं। देश की लगभग 70 प्रतिशत आबादी जो गरीबी रेखा के नीचे जी रही है, वह जिन नारकीय परिस्थितियों में जिन्दगी बसर कर रही है वह शायद ही किसी से छिपा हो। दिल्ली और इसके आस–पास फैलते जा रहे औद्योगिक इलाकों की मजदूर बस्तियों पर एक नजर डाल लेने से ही पूरी तस्वीर साफ हो जाती है। लाखों मजदूर हफ़्ते में सातों दिन बारह–चैदह घण्टे कमरतोड़ मेहनत करने के बाद बमुश्किल तमाम 2000–2500 रुपये कमा पाते हैं। सरकारी आँकड़ों के मुताबिक देश में 36 करोड़ से अधिक असंगठित मजदूर हैं जिनकी तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। खेती पर पूँजीवादी नीतियों की मार से गाँवों से उजड़कर रोजी–रोटी की तलाश में गाँवों और छोटे शहरों से मजदूरों का महानगरों में आने का सिलसिला तेज होता जा रहा है। खुद सरकारी आँकड़ों और विश्व बैंक आदि की रिपोर्टों के मुताबिक तमाम दावों के बावजूद बेरोजगारी बढ़ रही है। कुछ अर्थशास्त्रियों के मुताबिक 2010 तक भारत की वर्तमान कार्यरत जनशक्ति का 30 प्रतिशत नियमित रोजगार से हाथ धो बैठेगा। इसके अलावा लगातार बढ़ती महँगाई सीधे गरीबों के पेट पर मार कर रही है। इस महँगाई का देश की तीन–चैथाई आबादी के लिए क्या मतलब है, यह हमारे आदरणीय सांसदों की नजर और सोच दोनों से ही बाहर है। सच तो यह है कि आजादी के बाद भी आम मेहनतकश आबादी की वास्तविक आय में कोई ख़ास बढ़ोत्तरी नहीं हुई है।
सरकारी आँकड़ों के मुताबिक आज से 50 साल पहले 5 व्यक्तियों का परिवार एक साल में जितना अनाज खाता था, आज उससे 200 किलो कम खाता है। भोजन में विटामिन और प्रोटीन जैसे जरूरी पोषक तत्वों की लगातार कमी होती गई है। आम आदमी के लिए प्रोटीन के मुख्य स्रोत दालों की कीमत में पिछले एक साल के अन्दर 110 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी हुई है। हरी सब्जियाँ, दालें और दूध तो गरीब आदमी में भोजन से नदारद ही हो चुके हैं। इसी का नतीजा है कि कुपोषण के कारण कम वजन वाले बच्चों की सबसे बड़ी संख्या भारत में है। बेतहाशा बढ़ती महँगाई ने आम मेहनतक़श लोगों को जीवन की बुनियादी जरूरतों में कटौती करने के लिए विवश कर दिया है।
ख़ैर, कहने की जरूरत नहीं है कि “माननीय” मन्त्री महोदय की सांसदों के वेतन को लेकर चिन्ता वाकई “जायज” है। तभी तो बढ़ती गरीबी, लोगों को बुनियादी जरूरतों से भी वंचित करती महँगाई, बेरोजगारी, भयानक शोषण, आम मेहनतकश जनता के लगातार छिनते अधिकार, शहरों में नरक से भी बदतर हालात में जीने को मजबूर बीसियों करोड़ की आबादी, विकास के नाम पर उजाड़ी जाती करोड़ों की आबादी, दवाओं के इन्तजार में तिल–तिलकर दम तोड़ते गरीब, कुपोषण के शिकार दुनिया के सबसे अधिक बच्चे, थानों में मरते गरीब नौजवान, हर वाजिब हक की माँग करने पर लाठी, गोली, जेल-पूँजीवादी जनतंत्र की इस तस्वीर पर उनकी निगाह तक नहीं पड़ती। और निगाह पड़े भी क्यों ? जनतंत्र की यह परिभाषा कि वह “जनता को, जनता के लिए, जनता के द्वारा” होता है, महज किताबी बकवास है। दरअसल, यह जनतंत्र तो “सांसदों को, सांसदों के लिए, सांसदों के द्वारा” है!
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2006
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