प्रधानमंत्री महोदय की अमेरिका-यात्रा
अभिनव
मनमोहन सिंह की अमेरिका यात्रा एक सप्ताह तब अखबार की सुर्खियों में बनी रही। व्हाइट हाउस में उनका भव्य स्वागत हुआ और अमेरिका मीडिया ने इस यात्रा को काफ़ी जगह और अहमियत दी। इतनी अहमियत वाजपेयी की अमेरिका-यात्रा को भी नहीं मिली थी। इस तथ्य से कई बातें खुलती हैं।
मनमोहन सिंह कई जगह थोड़ा झुके और उसके बदले कुछ रियायतें, वायदे और आश्वासन लेकर आए। जैसे कि ईरान से आने वाली गैस-पाइपलाइन पर मनमोहन सिंह थोड़ा नरम पड़े। बदले में अमेरिका ने नाभिकीय क्षेत्र में सहयोग का आश्वासन दिया। अमेरिका भारत को कुछ छूट देने को वस्तुगत रूप से बाधय हुआ है। विश्व पटल पर हुई हालिया घटनाओं से साफ़ हो गया है कि आज के दौर में एक ध्रुवीय विश्व का बनना संभव नहीं है। पिछले कुछ वर्षों में रूस की अर्थव्यवस्था ने फ़िर से शक्ति ग्रहण की है और वह ऐसी स्थिति में पहुँच गया है जहाँ वह पूरी अमेरिकी अर्थव्यवस्था के संतुलन को बिगाड़ सकता है। रूस और चीन ने अभी संयुक्त सैनिक अभ्यास करके अपने घनिष्ठ होते संबंधों को बिल्कुल जाहिर कर दिया है। इस चीनी-रूसी धुरी के अलावा यूरोप में फ्रांसीसी-जर्मन धुरी पहले से ही मौजूद है जो यूरोपीय संघ के जरिए डॉलर की सत्ता को चुनौती देती रहती है। कई मुद्दों पर इन दोनों धुरियों के बीच सहमति बनती नज़र आ रही है। ऐसे में अमेरिकी शक्ति को तत्काल तो कोई गंभीर चुनौती नहीं है लेकिन यह साफ़ है कि भविष्य में एक ध्रुवीय विश्व की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं है। अमेरिका का इन दोनों ही धुरियों से समझौता भी है और प्रतिस्पर्धा भी। विश्व साम्राज्यवादी शक्तियों की प्रतिस्पर्धा जिस स्थिति में पहुँच गई है उसमें तीसरी दुनिया की उभरती अर्थव्यवस्थाओं की मोलभाव करने की ताकत बढ़ गई है। भारत को दुनिया भर में जो अधिक महत्व दिया जा रहा है उसके पीछे विश्व राजनीति के नए समीकरण मौजूद हैं। हाल ही में विश्व के उन्नत देशों के समूह चार के सम्मेलन में भारत को ”स्पेशल इनवाइटी“ के रूप में बुलाया गया। मनमोहन सिंह को अमेरिका में काफ़ी तरजीह दी गई।
दूसरी ओर भारत का पूँजीपति वर्ग भी अपने आपको किसी कैंप के साथ न जोड़कर ‘टाइटरोप वॉकिंग़ कर रहा है। उसने अमेरिका के साथ रूस-चीन धुरी और यूरोपीय संघ से भी घनिष्ठता कायम रखी है। वह इन सबसे मोलभाव कर रहा है। यह कोई नई बात नहीं है। भारत का पूँजीपति वर्ग कोई कठपुतली दलाल या घुटनाटेकू पूँजीपति वर्ग नहीं है। वह सभी से सम्बन्ध रखकर अपना हित साधाने में माहिर है। इस बात से कोई इंकार नहीं है कि साम्राज्यवाद पर उसकी आर्थिक निर्भरता है, लेकिन यह निर्भरता किसी एक साम्राज्यवादी देश पर नहीं है बल्कि पूरे विश्व साम्राज्यवाद पर है। वह किसी एक पर निर्भर होकर अपनी राजनीतिक स्वतंत्रता पर ख़तरा मोल नहीं लेना चाहता और इसलिए वह विश्व पूँजीवाद-साम्राज्यवाद के अलग-अलग धड़ों पर अपनी आर्थिक निर्भरता के बीच इतनी कुशलता से तालमेल करता रहा है कि उसकी निर्णय लेने की क्षमता बरकरार रहे। इसीलिए वह विश्व पूँजीवाद का दलाल नहीं बल्कि ‘जूनियर पार्टनर’ की भूमिका में है और इसी कारण से प्रधानमंत्री महोदय को अमेरिका, रूस, इंग्लैण्ड, जर्मनी, फ्रांस, जापान सभी महत्व दे रहे हैं। ये सभी ज़रूरत पड़ने पर थोड़ी बाँह भी मरोड़ते हैं। पर इतनी नहीं कि भारतीय पूँजीपति वर्ग प्रतिस्पर्धी खेमे के ज़्यादा करीब हो जाए और अपने पास लाने के लिए रियायतें भी देते रहते है।
आह्वान कैम्पस टाइम्स, जुलाई-सितम्बर 2005
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