देश में स्त्रियों की स्थिति और स्त्री मुक्ति का प्रश्न
प्रसेन
विगत 8 मार्च को अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस के एक दिन पहले सोनिया गाँधी ने देश भर में ग्राम पंचायतों से लेकर राजधानी दिल्ली तक की महिलाओं के लिए एक ख़ास किस्म का बहुरंगी झण्डा देश के विभिन्न हिस्सों से आयी ग्राम पंचायतों की निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के बीच लोकार्पित किया और काफ़ी गम्भीर मुद्रा बनाकर महिलाओं की स्थिति पर “चिन्ता” प्रकट की। सरकारी चैनलों, अखबारों, मीडिया, तथाकथित बुद्धिजीवियों और नारी संगठनों का ‘गम्भीर–भाव-मुद्रा-पाव’ तो साल के बारहों महीने बना रहता है, जो महिलाओं की स्थिति पर चिन्ता प्रकट करते हुए इस बात पर जाकर ख़त्म होता है कि फ़िर भी स्त्रियाँ पुरुषों से पीछे नहीं हैं, स्त्रियाँ सेना से लेकर चाँद तक पुरुषों से कदम से कदम मिलाकर चल रही हैं, वगैरह। फ़िर सानिया मिर्ज़ा, किरण बेदी, ऐश्वर्य राय, लता मंगेशकर जैसी कुछ हस्तियों को गिना दिया जाता है। इसके अतिरिक्त एक सहज उपलब्ध प्रजाति उन लोगों की भी है जो यह मानते ही नहीं कि भारत में स्त्रियों का शोषण-उत्पीड़न है!! वे तो स्त्रियों को ‘देवी’ या ‘मातृशक्ति’ का रूप मानते हैं और यह कहते नहीं थकते कि ‘अजी! भारत में तो प्राचीन काल से ही यह धारणा प्रचलित रही है कि ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यते रमन्ते तत्र देवता’।
तो आइये, इन बहुरंगी झण्डों, बड़े-बड़े दावों और नारों से हटकर ज़रा देखें कि स्त्रियों की स्थिति के बारे में आँकड़े क्या कहते हैं।
ग़ौरतलब है कि भारत में महिला संवेदी विकास सूचकांक (जी.डी.आई.) लगभग 0.5 या उससे भी कम है। भारत में प्रसव के दौरान हर सात मिनट पर एक महिला की मृत्यु हो जाती है जो स्वास्थ्य रक्षा तथा पोषक आहार सुविधाओं में कमियों की ओर इंगित करता है। महिला आर्थिक गतिविधि दर (एफ़.ई.ए.आर.) केवल 42.5 प्रतिशत है। श्रम मंत्रालय से मिले आँकड़ों के अनुसार कृषि क्षेत्र में स्त्री तथा पुरुषों को मिलने वाली मज़दूरी में 27.6 प्रतिशत का अन्तर है। जहाँ तक सामाजिक व पारिवारिक जीवन का प्रश्न है वहाँ भी महिलाओं की स्थिति दारुण है। भारत में हर 77वें मिनट में यौन-उत्पीड़न का एक मामला दर्ज होता है। हर तीन मिनट में महिलाओं के ख़िलाफ़ एक आपराधिक वारदात होती है। राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की रिपोर्ट को देखें तो पता चलता है कि दिल्ली में महिलाओं के साथ बलात्कार की घटनाओं में भारी वृद्धि हुई है। 2001 में बलात्कार के 381 मामले दर्ज किये गये थे। 2005 में इनकी संख्या बढ़कर 660 मामलों तक पहुँच गयी। ध्यान रहे, ये वे मामले हैं जिनकी रिपोर्ट दर्ज़ करायी गयी। आँकड़े बताते हैं कि हर साल स्त्रियों से सम्बन्धित 1.5 लाख अपराधों में से 50,000 मामले घरेलू हिंसा से सम्बन्धित होते हैं। देश की करीब 69 फ़ीसदी महिलाएँ घरेलू हिंसा का शिकार होती हैं। यूनीसेफ़ ने अपने एक हालिया आकलन में बताया है कि भारत में हर दिन सात हज़ार अजन्मी बच्चियों को कोख में ही मार दिया जाता है।
ये आँकड़े महिला सशक्तीकरण के सभी दावों का कच्चा-चिट्ठा खोलकर रख देते हैं। ग़ौरतलब है कि ये सरकारी आँकड़े हैं जो बुरी स्थितियों को हमेशा कम करके आँकते हैं और अच्छी स्थितियों को बढ़ाकर। क्योंकि वे सरकारी होते हैं!
इसके अतिरिक्त महिलाओं के शोषण-उत्पीड़न के ऐसे अनेक रूप हैं जिनको आँकड़ों और संख्याओं से नहीं समझा जा सकता। मसलन, सड़क पर निकलते हुए महिलाओं को घूरती और उनको भोग की वस्तु समझने वाली वे तमाम निगाहें जो किसी भी स्वाभिमानी स्त्री को लगातार अपमान का अहसास कराती हैं। मसलन, समाज में हमेशा दोयम दर्जे का होने के अहसास के साथ जीना।
आज के समाज में जहाँ पुरुषों को पूँजी की गुलामी का शिकार होना पड़ता है, वहीं स्त्रियों को पूँजी की गुलामी के साथ-साथ पुरुषों की गुलामी का शिकार भी होना पड़ता है। इस व्यवस्था में किसी भी इंसान का मूल्य मुनाफ़े के लिए होता है। इंसान का वजूद ही मुनाफ़े के लिए हो जाता है। स्त्रियों की गुलामी सिर्फ़ सांस्कृतिक और सामाजिक ही नहीं है। इसके कारण आर्थिक भी हैं। पूँजीवादी अर्थव्यवस्था में स्त्रियों का श्रम सस्ता होता है और उसका कहीं अधिक भयंकर शोषण होता है। अक्सर घरों में काम करवाकर उनसे अतिरिक्त श्रमकाल निचोड़ा जाता है। जो महिलाएँ बाहर काम नहीं करतीं वे भी घरों में खटती हैं लेकिन आर्थिक रूप से स्वतंत्र न होने के कारण वे निर्भर होती हैं। घरों में उनके शोषण-उत्पीड़न की एक बड़ी वजह उनकी आर्थिक निर्भरता होती है। इस आर्थिक निर्भरता के कारण ऐतिहासिक हैं जो सदियों से चले आ रहे हैं। स्त्रियों की सामाजिक स्थिति ख़राब होने और उनके दमित होने के पीछे का सबसे प्रमुख कारण उनकी आर्थिक निर्भरता है। इस आर्थिक निर्भरता को इस समाज में ख़त्म नहीं किया जा सकता। इस व्यवस्था के लिए यह आर्थिक निर्भरता फ़ायदेमन्द है।
मौजूदा सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में स्त्रियों के शोषण के अलग-अलग संस्तर हैं। उच्च वर्ग व उच्च मध्यवर्ग की स्त्रियाँ भी गुलामी की शिकार हैं। लेकिन यह गुलामी मूल्यों और संस्कृति में ज़्यादा निहित है। आर्थिक रूप से उनका स्वर्ग इसी व्यवस्था में है। वे सुविधापरस्त और विलासी जीवन जीती हैं। उनके जीवन में आधुनिक तकनोलॉजी और जीवन पद्धति के साथ कूपमण्डूकता का ज़बर्दस्त तालमेल होता है। इस अद्भुत संलयन को एकता कपूर के धारावाहिकों में साफ़ तौर पर देखा जा सकता है। ये तबका एक छद्म स्वतन्त्रता के अहसास में जीता है। इस वर्ग की महिलाएँ अपने साथ किये जाने वाले वस्तुकरण के साथ बिल्कुल कम्फ़र्टेबुल हो जाती हैं। शहरी मध्यवर्ग की लड़कियों का एक हिस्सा मजबूरी के कारण नहीं बल्कि चमक-दमक भरे सुविधाजनक जीवन के लिए अनैतिक देह व्यापार की ओर मुड़ रहा है। यह पूरा उच्च मध्यवर्गीय तबका अपने तमाम इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स के साथ अनैतिकता, सांस्कृतिक अधःपतन के गड्ढे में जा रहा है। उन्हें अलग करके क्यों देखा जाये जब पूरी की पूरी पूँजीवादी सभ्यता ही मरणासन्न है और दुर्गंध मार रही है।
दूसरी तरफ़ इसी देश में निम्नमध्य वर्ग और मेहनतकश वर्गों की स्त्रियों की बहुसंख्या है जो मेहनत-मज़दूरी करके अपना तथा अपने परिवार की आजीविका चलाती हैं। कमरतोड़ मेहनत के बावजूद स्त्री होने के नाते जहाँ इन्हें पुरुषों की तुलना में कम मज़दूरी मिलती है वहीं रास्ते से लेकर ऑफ़िसों-कारखानों तक में तमाम आवारा लम्पटों, ठेकेदारों और मालिकों की छेड़छाड़ या यौन-उत्पीड़न का शिकार बनना पड़ता है। स्त्रियों की इस आबादी का एक हिस्सा घर में ही काम करता है। यह बाहर होने वाले उत्पीड़न से भले ही बच जाय लेकिन घर में होने वाले काम की मज़दूरी बेहद कम होने के कारण भयंकर शोषण का शिकार होता है।
ग़रीबी-बदहाली के कारण बेहद कम-उम्र लड़कियों को ज़बर्दस्ती या परिस्थितिवश वेश्यावृत्ति के जाल में फ़ँसना पड़ता है। एक गैर सरकारी संगठन ग्राम नियोजन केन्द्र द्वारा देश भर के सभी 31 राज्यों व केन्द्रशासित प्रदेशों में एक सर्वे किया गया। इसमें पाया गया कि वेश्यावृत्ति में लगी 10 लाख लड़कियाँ ऐसी हैं, जिनकी उम्र 18 वर्ष से कम है। इन्हें कुपोषण, बीमारी, असुरक्षा, अशिक्षा आदि का भी शिकार होना पड़ता है।
तमाम नारीवादी संगठन स्त्रियों की इस स्थिति पर चिन्ता तो जताते हैं लेकिन समाधान के तौर पर या तो कुछ भी नहीं बताते या फ़िर इस सामाजिक ढाँचे के भीतर रहते हुए कुछ रैडिकल संघर्षों की बातें करते हैं। एन.जी.ओ. मार्का स्त्री संगठन स्त्री अस्मिता को उभारने की कोशिशों में लगे रहते हैं। वे स्त्री समस्या को किसी वर्गीय दृष्टिकोण से न देखकर एक वर्गेतर समस्या की तरह देखते हैं, मानो सभी वर्ग की स्त्रियों की गुलामी का मुद्दा एक ही है। ऐसा करना स्त्री प्रश्न को किसी एकाश्मी प्रश्न के रूप में देखना होगा। स्त्री अस्मिता एक वर्ग विभाजित अस्मिता है और स्त्री प्रश्न का हल भी वर्ग दृष्टि के साथ ही किया जा सकता है। कुछ नारी संगठन हैं जिनके लिए स्त्री समस्या के हल का अर्थ ही है पुरुष-विरोध। यह भी एक अनैतिहासिक दृष्टिकोण है। यह दृष्टिकोण एक ख़तरनाकृ दृष्टिकोण भी है क्योंकि यह जनता के बीच के अन्तरविरोधों और जनता तथा शासक वर्गों के बीच के अन्तरविरोधों के बीच फ़र्क नहीं करता। यह वर्ग आधारित एकता के बनने में बाधा पैदा करता है, जो कि व्यापकतम सम्भव प्रगतिशील एकता है और जो एक न्यायपूर्ण और समानतामूलक समाज की स्थापना के लिए अपरिहार्य है।
सबसे अहम बात यह है कि इसी व्यवस्था के भीतर रह कर स्त्री मुक्ति की बात करना बेमानी है। जब तक वर्ग विभाजित समाज और व्यवस्था कायम रहेगी तब तक स्त्री-पुरुष का विभेद भी नहीं मिट सकता। स्त्री और पुरुष के विभेद का आधार भी श्रम विभाजन था और वर्ग विभाजन का आधार भी श्रम विभाजन था। जब तक यह असमान श्रम विभाजन ख़त्म नहीं होता तब तक स्त्री-पुरुष असमानता भी ख़त्म नहीं हो सकती। स्त्री मुक्ति का प्रोजेक्ट मेहनतकशों की मुक्ति के प्रोजेक्ट के एक अंग के तौर पर ही किसी मुकाम पर पहुँच सकता है। मेहनतकशों का भी आधा हिस्सा स्त्रियों का है। यही वे स्त्रियाँ हैं जो स्त्री मुक्ति की लड़ाई को लड़ेंगी और नेतृत्व देंगी, न कि उच्चमध्यवर्गीय घरों की खाई–मुटाई–अघाई स्त्रियाँ जो अपने सोने के पिंजड़े में सुखी हैं।
इसलिए हर स्त्री दिवस पर सोनिया गाँधी सरीखी “मुक्त” हो चुकी शासक स्त्रियों द्वारा स्त्रियों की स्थिति पर कुछ आँसू बहा लेने, अलग-अलग प्रजातियों के एन.जी.ओ. संगठनों द्वारा “महिला जागरूकता” और “महिला सशक्तीकरण अभियान” चला लेने, तमाम नारीवादी संगठनों द्वारा “स्त्री अस्मिता” को उभारने भर से स्त्रियों की मुक्ति नहीं हो सकती। स्त्री मुक्ति का प्रश्न एक ऐसी व्यवस्था की स्थापना से जुड़ा हुआ है जिसमें समस्त मेहनतकश अवाम की आज़ादी निहित होगी और सत्ता और फ़ैसला लेने की ताक़त उनके हाथों में होगी।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-सितम्बर 2007
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