चुनावी पार्टियों के अरबों की नौटंकी भी नहीं रोक सकी महँगाई डायन के कहर को!
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महँगाई के विरोध में भाजपा द्वारा आयोजित रैली के एक दिन पहले मैं अपने कुछ मित्रों के साथ नयी दिल्ली स्टेशन जा रहा था। पूरा शहर मानो भगवा रंग में डुबो दिया गया था। सड़कों, गलियों, दीवारों को बड़े-बड़े होर्डिंग, पोस्टर, वाल राइटिंग, झण्डे और चमचमाते चमकियों से पाट दिया गया था। अख़बारों के पन्ने का भी रंग रैली के विज्ञापनों से सराबोर था। स्टेशन का दृश्य भी कुछ वैसा ही था। जगह-जगह स्वागत डेस्क और सहायता डेस्क लगे हुए थे जहाँ पर कार्यकर्ता चमकते-दमकते कपड़ों में जूस और स्वादिष्ट व्यंजनों का रसास्वदन कर रहे थे। उन्हें देखने से ऐसा प्रतीत हो रहा था कि महँगाई का ज़रा भी असर उनकी सेहत पर नहीं था, उल्टे कुछ की तो कुम्भकरणा स्वरूपम काया थी जिसे देखकर तो मँहगाई डायन भी मूर्छित हो जाती! प्लेटफार्म पर खड़े कुछ लोग बता रहे थे कि कई जगहों से पूरी ट्रेन रिज़र्व होकर रैली के लिए आ रही है। वहीं मज़दूरों की छोटी-बड़ी टोलियाँ भी स्वागत डेस्क के करीब से गुज़र रही थी। यह वह आबादी थी जिस पर मँहगाई डायन ने अपना कहर बरपाया है, जिसे यह भव्य आयोजन खाये-पिये व्यक्ति के द्वारा आयोजित एक भव्य नौटंकी से ज़्यादा कुछ नहीं दिखायी पड़ता होगा।
पिछले कई महीनों से छोटी-बड़ी सभी चुनावी पार्टियाँ महँगाई के सवाल पर एक-दूसरे पर हमला कर रहे हैं ताकि महँगाई की मार से परेशान जनता का सच्चा जनसेवक बन सके। भाजपा, सपा, बसपा, सीपीएम, सीपीआई आदि तमाम विपक्ष की पार्टियाँ कई महीनों से धरना, प्रदर्शन, रैली, भारत बन्द और फिर संसद ठप्प का एक योजनाबद्ध कार्यक्रम कर रहे हैं जिसमें अरबों रुपये इस पूरे प्रकरण में स्वाहा हो चुका है। यह उस देश में हो रहा है जहाँ 9000 से ज़्यादा बच्चे भूख और कुपोषण से इसलिए रोज़ जान से हाथ गवाँ बैठते हैं क्योंकि उनके माँ-बाप के पास स्वस्थ आहार देने के लिए पैसे नहीं होते, जहाँ हर तीसरे व्यक्ति, यानी 35 करोड़ लोगों को हाड़-मांस गलाने के बावजूद भूखे पेट सोना पड़ता है। ये आँकड़े किताबों में नहीं, दिल्ली या देश के किसी भी मज़दूर इलाके में देखे जा सकते हैं, ऐसे में इन चुनावी पार्टियों का असली रंग और वोट बैंक का पागलपन साफ नज़र आता है। जो पार्टी राज्य में है, वह केन्द्र सरकार को; जो केन्द्र में है राज्य में नहीं, वह राज्य सरकार को; जो दोनों जगह में कहीं नहीं है वह दोनों को; और जो पार्टी दोनों जगह है वह सूखा, अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार और पिछली सरकार की नीतियों को महँगाई के लिए दोषी ठहराती है। जनता भी समझ नहीं पा रही कि इस पूरे नौटंकी में नायक कौन है? और खलनायक कौन? यह नौटंकी तो अपने तमाम बन्धन को तोड़ डालती है जब यह संसद भवन में होती है। संसद भवन की एक घण्टे की कार्यवाही पर 20 लाख रुपया ख़र्च होता है और संसद की ख़ूबसूरत कैण्टीन में कौड़ियों की भाव में उपलब्ध चिकन कबाब, लज़ीज़ देशी और विदेशी भोजन, एक रुपये में ग्रीन लीफ की तरोताज़ा करने वाली चाय जिसकी चुस्की लेकर तमाम नेतागण कैमरा ऑन होते ही महँगाई डायन गाने लगते हैं। अब सवाल उठता है इस महँगाई के लिए असल में जिम्मेवार कौन है? और क्या सरकार और विपक्ष के पास इसका समाधान है?
सरकार महँगाई पर काबू पाने के लिए तमाम प्रयास कर रही है (?) फिर भी यह काबू में नहीं आ रही है। सरकार महँगाई की मुख्य वजह सूखा बता रही है लेकिन पिछले वित्त वर्ष की अन्तिम तिमाही यानी इस साल जनवरी से मार्च की अवधि के हाल के आये जीडीपी के आँकड़े में कृषि क्षेत्र में बढ़ोतरी हुई है, देश में रबी की अच्छी पैदावार हुई है और इस बार मानसून भी सन्तोषजनक रहा है। अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में भी गेहूँ और चावल की कम कीमत है। अब सरकार सूखा, मानसून अच्छा न होने या अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में कीमत बढ़ने का तर्क नहीं दे सकती। महँगाई के असल खलनायक तो वे बड़े व्यापारी और सटोरिये हैं जो उपज के बाज़ार पर दादागीरी चलाते हैं। ये वे लोग हैं जो दाम तय करते हैं और जानबूझकर बाज़ार में कमी पैदा करके चीज़ों के दाम बढ़ाते हैं, कालाबाज़ारी, जमाखोरी का समानान्तर बाज़ार चलाते हैं। अब इस खेल में बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ भी शामिल हो चुकी हैं। अपनी भारी पूँजी की अप।र ताकत के बल पर ये कम्पनियाँ पूरे बाज़ार पर नियन्त्रण कायम कर सकती हैं और मनमानी कीमतें तय कर सकती हैं। सरकार ने वायदा कारोबार की छूट देकर व्यापारियों को जमाखोरी करने का अच्छा मौका दे दिया है। सभी पार्टियाँ दबी जुबान से इसे जमाखोरी का कारण बताती हैं लेकिन क्या कोई भी चुनावी पार्टी इन व्यापारियों, सटोरियों, बड़ी कम्पनियों के ऊपर कोई कार्यवाही कर सकती है? उत्तर साफ है नहीं क्योंकि तमाम पार्टियों का चन्दा जो करोड़ों में होता है इन्हीं व्यापारियों के यहाँ से आता हैं जिनके दम पर भव्य रैली से लेकर चुनावों में पानी की तरह पैसा बहाया जाता है। अब भाजपा, कांग्रेस या कोई अन्य चुनावी पार्टी अगर सही मायने में महँगाई पर काबू पाना चाहती है तो अपने-अपने उस आका को पकड़वाना होगा जिसके दम पर ये सभी पार्टियाँ चलती हैं। इस पूरी नौटंकी में नया मोड़ आ जाता है जब आम आदमी को चौंका देने वाला खुलासा राजनीतिक दलों द्वारा भरे गये आयकर रिटर्न से होता है जिसकी जानकारी स्वयंसेवी संस्था एडीआर को सूचना के अधिकार के तहत मिली है। लोक सभा में सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस को पिछले 8 सालों (वित्त वर्ष 2001 से 2008-09 के बीच) में 1518 करोड़ रुपये की आय हुई। इसमें अकेले 2008-09 में पार्टी ने 496.88 करोड़ रुपये कमाये हैं। वहीं महँगाई पर सबसे ज़्यादा हल्ला मचानेवाली भाजपा ने इसी दौरान 753.92 करोड़ और पिछले वर्ष 220 करोड़ कमाये। सबसे धमाकेदार वृद्धि दलितों की नुमाइन्दगी का दावा करने वाली बसपा ने दर्ज की। बसपा ने इस दौरान 357.94 करोड़ रुपये कमाये। यह वृद्धि 30.80 गुना की है। माकपा ने 338.71 करोड़, सपा ने 263.26 करोड़, एनसीपी ने 109.46 करोड़, और राजद ने 14.96 करोड़ कमाये। एक तरफ जहाँ महँगाई ग़रीबों के लिए कहर बन कर उनकी जिन्दगी तबाह करती है वहीं दूसरी और यही महँगाई डायन, जमाखोरों, बड़े व्यापारियों और चुनावी पार्टियों के लिए सम्पत्ति में बेतहाशा वृद्धि करती है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-अक्टूबर 2010
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