Category Archives: मीडिया

फ़ेसबुक के बारे में चलते-चलाते कुछ ‘इम्प्रेशंस’

दो-दो लाइन के शेरों, घटिया ग़ज़लों से फ़ेसबुक भरा रहता है। सस्ती तुकबन्दियों और कवितानुमा लाइनों की भरमार रहती है। नाम में ही ‘कवि’ जोड़े हुए फ़ेसबुकियों की भरमार है। ये सारे साहित्याकांक्षी गणों को एक अतिविनम्र सुझाव है कि उन्हें विश्व के कुछ प्रसिद्ध कवियों को पढ़ना चाहिए, निराला, प्रसाद, पन्त, मुक्तिबोध, शमशेर, त्रिलोचन, नागार्जुन, केदार आदि को पढ़ना चाहिए, अग्रणी समकालीन कवियों को पढ़ना चाहिए और साहित्य-सैद्धान्तिकी पढ़नी चाहिए। हिन्दी कविता की स्थिति इतनी बुरी भी नहीं है कि चार लाइनें जोड़-तोड़कर कोई भी गण्यमान्य बन जाये। ख़ूब लिखिये, आपको अपने मन की कहने की आज़ादी है, पर उसे डायरी में लिखकर अपने घरवालों और दोस्तों को सुनाइये। फ़ेसबुक एक सार्वजनिक स्पेस है। वहाँ अपनी भँड़ास निकालकर बहुत सारे लोगों का समय खाने और उन्हें बोर करने का काम ठीक नहीं है।

फ़्री एवं ओेपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर आन्दोलन: कितना ‘फ़्री’ और कितना ‘ओपेन’

बावजूद इसके कि फ़्री एवं ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर के विचार को अब कारपोरेट्स का समर्थन मिल रहा है, एक विचार के तौर पर यह अपने आप में एक प्रगतिशील अवधारणा है, क्योंकि यह ज्ञान के एकाधिकार की पूँजीवादी सोच पर कुठाराघात करती है। सॉफ़्टवेयर उत्पादन का यह सहकारितापूर्ण और सामूहिकतापूर्ण तरीक़ा निश्चित ही इस समाजवादी सोच को पुष्ट करता है कि मनुष्य सिर्फ़ भौतिक प्रोत्साहनों और निजी फ़ायदे के लालच में आकर ही श्रम प्रक्रिया में भाग नहीं लेता बल्कि श्रम उसकी नैसर्गिक आभिलाक्षणिकता है। परन्तु फ़्री एवं ओपेन सोर्स सॉफ़्टवेयर आन्दोलन के कुछ अति-उत्साही समर्थक इस तर्क को खींचकर यहाँ तक कहने लगते हैं कि यह एक कम्युनिस्ट प्रोजेक्ट है और यह इतना ‘सबवर्सिव’ है कि साइबर स्पेस में पूँजीवादी उत्पादन-सम्बन्धों को छिन्न-भिन्न कर देगा।

पूँजीवादी विज्ञापन जगत का सन्देश: ‘ख़रीदो और खुश रहो!’

एक सांस्कृतिक उत्पाद के तौर पर भी विज्ञापनों का असर लम्बे समय तक रहता है। क्योंकि लगातार दुहराव के ज़रिये ये लोगों के मस्तिष्क पर लगातार प्रभाव छोड़ते रहते हैं। हमें पता भी नहीं चलता कि हम कब विज्ञापनों में इस्तेमाल किये जाने वाले जिंगल गुनगुनाने लगते हैं या फिर उनके स्लोगन और टैगलाइन ख़ुद दोहराने लगते हैं। पूँजीवाद विज्ञापनों द्वारा माल अन्धभक्ति (कमोडिटी फ़ेटिशिज़्म) को एक नये मुक़ाम पर पहुँचा देता है। बार-बार लगातार विज्ञापनों के ज़रिये हमें यह बताने का प्रयास किया जाता है कि यदि हमारे पास फलाना सामान नहीं है तो हम ज़िन्दगी में कितना कुछ ‘मिस’ कर रहे हैं। हमें बार-बार लगातार यह बताया जाता है कि सुखी-सन्तुष्ट जीवन का एकमात्र रास्ता बाज़ार के ज़रिये वस्तुओं का उपभोग है। केवल माल और सामान ही हमें खुशी और सामाजिक रुतबा प्रदान कर सकते हैं। बिना किसी अपवाद के हर विज्ञापन का यही स्पष्ट सन्देश होता है – चाहे वह विज्ञापन किसी कार कम्पनी का हो या किसी बीमा कम्पनी का, किसी सौन्दर्य प्रसाधन के ब्राण्ड का हो या फिर किसी शराब या मोबाइल फ़ोन की कम्पनी का – यही सन्देश बार-बार रेखांकित किया जाता है। सामानों, वस्तुओं, मालों को प्रसन्नता, स्वतन्त्रता और रुतबे का समतुल्य बना दिया जाता है।

यहाँ सिर्फ़ ‘पेड न्यूज़’ नहीं, बल्कि मीडिया ही पूरी तरह पेड है

यह तो तय है कि जैसे-जैसे मीडिया पर बड़ी पूँजी का शिंकजा कसता जायेगा, वैसे-वैसे मीडिया का चरित्र ज़्यादा से ज़्यादा जनविरोधी होता जायेगा और आम जनता के जीवन की वास्तविक परिस्थितियों और मीडिया में उनकी प्रस्तुति के बीच की दूरी बढ़ती ही जायेगी। आज के दौर में कारपोरेट लोग मीडिया को विज्ञापन देते हैं जिनसे मीडिया की हर साल लगभग 18 हज़ार करोड़ रुपयों की कमाई होती है। सरकारी विज्ञापनों से, काग़ज़-कोटे में मिलने वाली कमाई तो है ही। ऐसे में मीडिया जगत की पक्षधरता के बारे में भ्रमित होने की ज़रूरत नहीं है। मौजूदा मीडिया कारपोरेट जगत का मीडिया है और उसकी आलोचना नहीं करता है। साफ़ है जो जिसका खायेगा, उसी के गुण गायेगा।

पूँजीवादी कारपोरेट मीडिया का राजनीतिक अर्थशास्त्र

मौजूदा मीडिया कुछ ख़बरें हम तक पहुँचाता है, जबकि कुछ अन्य ख़बरें हम तक पहुँचने से रोकता है। वास्तव में, वह जो ख़बरें हम तक पहुँचाता है उनमें से अधिकांश का देश व दुनिया की बहुसंख्यक आबादी के लिए कोई वास्तविक महत्त्व नहीं होता है। जबकि अप्रासंगिक सूचनाओं और ख़बरों को व्यापक पैमाने तक उन लोगों तक पहुँचाया जाता है और उनके लिए उन्हें अहम भी बना दिया जाता है। ऐसा क्यों है? मीडिया को तो लोकतन्त्र का चौथा खम्भा कहा गया है! ऐसे में मीडिया हमारे समय की प्रातिनिधिक ख़बरों और यथार्थ को चित्रित क्यों नहीं करता है?

मर्डोक मीडिया प्रकरण के आईने में भारतीय मीडिया

168 वर्ष पुराना ब्रिटिश अखबार ‘न्यूज़ ऑफ द वर्ल्ड’ पिछले कुछ महीनों या सालों से नहीं बल्कि एक-डेढ दशक से फिल्मी सितारों, खिलाड़ियों, राजनेताओं और प्रसिद्ध व्यक्तियों के जीवन में ताक-झाँक के लिए फोन हैंकिग और ईमेल पढ़ने सहित निजी जासूसों के इस्तेमाल से लेकर पुलिस अफसरों को घूस देने जैसे तमाम गैरकानूनी हथकंडे इस्तेमाल कर रहा था। पत्रकारिता की आड़ में फोन हैकिंग लगभग कारोबार के स्तर पर पहुँच गया है जहाँ उसकी चपेट में ब्रिटिश राजपरिवार से लेकर इराक युद्ध में मारे सैनिकों के परिवारजन, व लंदन बम विस्फोट के पीड़ित तक नहीं बच सके।

मीडिया का असली चरित्र

किसी तथ्य के समाचार बनने की कुछ पूर्वशर्तें होती हैं। या तो उसका रिश्ता उच्च वर्ग और उनकी जीवन शैली से हो तो उसे विशेष कवरेज मिलेगा; या फ़िर वह जनता को किसी भी रूप में और ज़्यादा अतार्किक, कूपमण्डूक और अन्धविश्वासी बनाती है; या वह जनता की संवेदनाओं की हत्या करती हो। इन शर्तों को पूरा करने पर ही कोई तथ्य या किस्सा ख़बर बन जाता है। अगर उसका सम्बन्ध आम तबके के लोगों से हैं या उनके संघर्षों से है तो वह हाशिये की चीज बनकर रह जायेगी।

‘सर! आप क्या बेच सकते हैं?’

पूँजीवादी युग में आपकी उपयोगिता में चार–चाँद लग जाते हैं, अगर आप कुछ बेच सकें। चाहें अच्छे गायक होने के चलते, चाहे अच्छे एक्टर होने के चलते; और अगर आप खिलाड़ी हैं तब तो कहने ही क्या! बस आप अच्छा खेलते रहिये और बेचते रहिये