मीडिया का असली चरित्र

दीपक

mumbai terror attackआजकल बौद्धिक जगत में मीडिया के चरित्र को लेकर काफ़ी चिन्तन–मनन चल रहा है। यह चर्चा ख़ास तौर पर मुम्बई की आतंकवादी घटना के बाद शुरू हुई जिसमें इलैक्ट्रानिक मीडिया ने लाइव टेलीकास्ट की होड़ में हद ही कर दी। सूचना प्रसारण मंत्री प्रियरंजनदास मुंशी मीडिया को नियंत्रण में रहने की सलाहें दे रहें हैं। कुछ नामी-गिरामी बुद्धिजीवी यह कहते हुए पाए गए कि अगर टी.वी. चैनल वाले पत्रकार बंधु थोड़ी कम अकुलाहट दिखाते या इसे सनसनीखेज अपराध कथा के रूप में दिखाने के लोभ में नहीं पड़ते तो अच्छा होता।

ऐसी पावन नैतिकता के वातावरण में लगता है कि सचमुच हमारे बुद्धिजीवीगण और मंत्री महोदय कितने भोले हैं! समाज की चिन्ता में दुबले हो रहीं ये अतिमहत्वपूर्ण हस्तियाँ क्या मीडिया के मौजूदा ‘सदाचार और सुचरित्र’ से बिल्कुल अंजान हैं? चौबीसों घण्टे न्यूज चैनलों पर क्या परोसा जाता है, इनकी गिद्ध निगाहें किन खबरों को पेश करती हैं और कैसे पेश करती हैं ये बताने की जरूरत नहीं है। अपराध, रोमांस, हत्या, बलात्कार को सनसनीखेज ख़बरों के रूप में परोसते इन ख़बरनवीसों से आप संवेदनशील मुद्दों पर धीरज की माँग कर रहें हैं। हम जिस समाज में जीते हैं वह लोभ-लाभवादी संस्कृति का समाज है। यहाँ हर चीज़ माल है और बिकाऊ है। अगर कोई चीज़ माल नहीं बन सकती, बिकने लायक नहीं बनाई जा सकती तो उसे बिकने लायक माल बनाओ, नहीं तो उसकी कोई गिनती नहीं। इसीलिए बच्चों की मुस्कान, इनकी तुतलाहट से लेकर भीड़ की पाशविकता सब कुछ इस तरीके से पेश किया जाता है कि लोग चौंकें, चैनल छोड़े नहीं। क्योंकि जो न्यूज चैनल ज्यादा देखा जाएगा उसकी उतनी ही टी.आर.पी. बढ़ेगी और उसी की मार्केट वैल्यू बढ़ेगी।

इसके बावजूद अगर यह भ्रम पैदा करने की कोशिश की जाये कि लोकतंत्र का चौथा खम्भा मीडिया अपनी भूमिका जनपक्ष में खड़ी होकर दिखाये तो इस बात पर हँसा ही जा सकता है। किसी तथ्य के समाचार बनने की कुछ पूर्वशर्तें होती हैं। या तो उसका रिश्ता उच्च वर्ग और उनकी जीवन शैली से हो तो उसे विशेष कवरेज मिलेगा; या फ़िर वह जनता को किसी भी रूप में और ज़्यादा अतार्किक, कूपमण्डूक और अन्धविश्वासी बनाती है; या वह जनता की संवेदनाओं की हत्या करती हो। इन शर्तों को पूरा करने पर ही कोई तथ्य या किस्सा ख़बर बन जाता है। अगर उसका सम्बन्ध आम तबके के लोगों से हैं या उनके संघर्षों से है तो वह हाशिये की चीज बनकर रह जायेगी। रूपर्ट मार्डोक, हिन्दुजा, बिड़ला ग्रुप, गोयनका आदि देशी-विदेशी मीडिया दैत्यों के कब्जे़ में आज की मीडिया अपने मालिक वर्गों की सेवा, उनकी संस्कृति(लोभ, लालच, जलन) के प्रसार और लाभ कमाने का जरिया बन गया है। वैश्विक पूँजी के घटाटोप में यही इसका वर्ग-चरित्र है। अपने वर्गीय हितों के अनुरूप ही इसका व्यवहार है।

आज अखबार, पत्रिकाएँ, रेडियो-दूरदर्शन और दर्जनों टी.वी. चैनल एक ओर व्यापक जनता में चन्द खाये-पीये-अघाये लोगों की ‘खाओ–पियो-ऐश करो’ की संस्कृति को परोसने का काम कर रहे हैं और मनोरंजन के नाम पर उच्च मध्यम वर्ग के घरों की कहानी परोस रहे हैं तो समझा जा सकता है कि उसके अनुसरण की कोशिशों का व्यापक ग़रीब जनता और निम्न मध्यवर्गीय जनता में क्या नतीजा होता होगा। ज़ाहिर है कि उस जीवन शैली और संस्कृति का ख़र्च उठा पाना इन वर्गों के लोगों के बूते की बात नहीं होती। लेकिन “आदर्श जीवन” तो वही है! नतीजा यह होता है कि इस वर्ग के तमाम लोग जो मीडिया के मानसिक वर्चस्व का शिकार हैं, कुण्ठित होते रहते हैं, हताश होते रहते हैं और निम्न आत्मसम्मान का शिकार हो जाते हैं। दूसरी तरफ़ खेल के नाम पर क्रिकेटोन्माद परोसा जाता है और मनोरंजन के नाम पर उथली, अश्लील और भोंड़ी संस्कृति परोसी जाती है जो श्रोता/दर्शक को सोचने-समझने की ताक़त से मरहूम करता जाता है। दर्शक एक विवेकहीन सूचना उपभोक्ता बन जाता है-सूचनाओं से भरपूर, लेकिन स्वयं सोच पाने की ताक़त से रिक्त; एक निष्क्रिय प्राप्तकर्ता या एक ऐसा ऑर्गनिज़्म जो इण्टरैक्ट करना भूल जाता है। वह वही देखता, सुनता और सोचता है जो उसे दिखाया, सुनाया और सोचवाया जाता है। आलोचनात्मक विवेक और चिन्तन का कहीं कोई स्थान नहीं। यही तो यह व्यवस्था चाहती है!

कुछ खबरिया चैनल ऐसे भी हैं जो जनपक्षधर होने का डींग हाँकते हैं और ऐसे चैनलों की ‘पक्षधरता’ उनकी ख़बरों में उस समय साफ़ नज़र आ जाती है जब देश के किसी हिस्से में आम लोग अपने हकों-अधिकारों के लिए लड़ रहे होते हैं। उदाहरण के लिए नोएडा की ग्रेज़ियानो कम्पनी की ही ले लें। जब कम्पनी से निकाले जाने पर कम्पनी के करीब 300 मज़दूरों ने अपने अधिकारों को लेकर आन्दोलन शुरू किया तब तक किसी न्यूज चैनल या अखबार ने इस घटना को खबर बनाने की कोशिश नहीं की। लेकिन जब हादसे में कम्पनी का सी.ई.ओ. मारा जाता है तो रातों-रात यह घटना समाचार जगत की सुर्खी बना जाती है।

पत्रकारिता के क्षेत्र में हमारे देश का एक गौरवशाली इतिहास रहा है। आज़ादी की लड़ाई में राधामोहन गोकुल जी, राहुल सांकृत्यायन, प्रेमचन्द, गणेशशंकर विद्यार्थी और शहीदे-आज़म भगतसिंह जैसे लोगों ने अपनी लेखनी से समाज को आगे ले जाने का काम किया। आज के समय में भी पूँजी के ताक़त से लैस हावी मीडिया के बरक्स जन संसाधनों के बूते एक जनपक्षधर क्रान्तिकारी वैकल्पिक मीडिया खड़ा करना किसी भी व्यवस्था परिवर्तन के आन्दोलन का एक ज़रूरी कार्यभार होगा। इक्कीसवीं सदी में तो मीडिया की पहुँच और प्रभाव और भी अधिक बढ़ गयी है। ऐसे में एक क्रान्तिकारी वैकल्पिक मीडिया को खड़ा करने के काम की अनदेखी नहीं की जा सकती।

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2009

 

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