फैज़ अहमद फैज़ की कविता ‘इंतिसाब’
उन दुखी माओं के नाम
रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और
नींद की मार खाए हुए ब़ाजुओं से संभलते नहीं
दुख बताते नहीं
मिन्नतों ज़ारियों11 से बहलते नहीं
उन दुखी माओं के नाम
रात में जिनके बच्चे बिलखते हैं और
नींद की मार खाए हुए ब़ाजुओं से संभलते नहीं
दुख बताते नहीं
मिन्नतों ज़ारियों11 से बहलते नहीं
फै़ज को अवाम का गायक कहा जाय तो ठीक ही होगा। उनकी कविता में भारतीय उपमहाद्वीप से लेकर दुनिया के तमाम मुल्कों में बसे हुए बेसहारा लोगों, यतीमों की आवाज़ें दर्ज है, उनकी उम्मीदों ने जगह पायी है। अदीबों की दुनियां उसे मुसलसल जद्दोजहद करते शायर के रूप में जानती है। सियासी कारकूनों की निगाह में फै़ज के लफ्ज ‘खतरनाक लफ्ज’ है। अवाम के दिलों में सोई आग को हवा देने वाले लफ्ज है। बिलाशक यही वजह होगी जिसके एवज़ में फ़ैज़ की जिन्दगी का बेहतरीन दौर या तो सलाख़ों में बीता या निर्वासन में, पर हज़ारहों नाउम्मीदी भरे आलम के बावजूद उनकी कविता में उम्मीद की चिनगियाँ कभी बुझी नहीं, उनकी मुहब्बत कभी बूढ़ी नहीं हुई।
कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं लहू का सुराग
नः दस्त-ओ–नाख़ून–ए–कातिल न आस्तीं पेः निशाँ
नः सुर्खी-ए–लब-ए–ख़ंजर , नः रंग-ए–नोक-ए–सनाँ
नः ख़ाक पर कोई धब्बा नः बाम पर कोई दाग़
कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं लहू का सुराग़