दिल्ली मेट्रो रेल के कामगारों का अपनी कानूनी माँगों के लिए संघर्ष
अजय
हम सभी मेट्रो रेल को दिल्ली की शान समझते है। मीडिया से लेकर सरकार तक मेट्रो को दिल्ली की शान बताने का कोई मौका नहीं चूकते। मुख्यमंत्री शीला दीक्षित से लेकर प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह तक मेट्रो के कसीदे पढ़ते हुए, इसके कार्यकुशल प्रंबधन को उदाहरण के रूप में पेश करते हैं, तो दूसरी तरफ़ जगमगाती, चमकदार, उन्नत तक्नोलॉजी से लैस मेट्रो को देखकर कोई भी दिल्लीवासी फ़ूला नहीं समाता। लेकिन बहुत कम ही लोग जानते हैं कि इस उन्नत, आरामदेह और विश्व-स्तरीय परिवहन सेवा के निर्माण से लेकर उसे चलाने और जगमगाहट को कायम रखने वाले मजदूरों के जीवन में कैसा अन्धकार व्याप्त है। चाहे वे जान–जोखिम में डालकर निर्माण कार्य में दिनों-रात खटने वाले मजदूर हो, या स्टेशनों पर काम करने वाले गार्ड या सफ़ाईकर्मी, किसी को भी उनका जायज़ हक़ और सुविधाएँ नहीं मिलती।
दिल्ली मेट्रो रेल कारपोरेशन शुरू से ही तीन तरह के कार्य ठेका कम्पनियों के जरिए से कराता रहा है। इसमें सफ़ाई, टिकटिंग, और यात्रियों की सहायता के लिए लगाए सहायक कर्मचारी शामिल है, जिनकी संख्या 2800 के आस-पास है। ये ठेका मज़दूर 69 स्टेशनों और 3 डिपो में ए टू जेड, बेदी एण्ड बेदी, केशव सिक्योरिटी, आल सर्विसेज, ग्रुप फ़ोर सहित नौ ठेका कम्पनियों के माध्यम से कार्यरत हैं। हर तरह की मेंटेनेंस सुविधाओं की सेवा उपलब्ध कराने का दावा करने वाली ये ठेका कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों को ही कोई सुविधा नहीं देती औैर सारे श्रम कानूनों को ताक पर रखकर कर्मचारियो का शोषण कर रही हैं। यूँ तो पूरा दिल्ली मेट्रो मजदूरों के खून-पसीने और हडि्डयों की नींव पर खड़ा किया गया है लेकिन इसके बदले में मजदूरों को न्यूनतम मज़दूरी, साप्ताहिक छुट्टी, पी.एफ़. और ई.एस.आई जैसी बुनियादी सुविधाओं से वंचित रखा जाता है और श्रम कानूनों की खुले-आम धज्जियाँ उड़ाते हुए 16 घण्टे ओवरटाइम काम लिया जाता है। हालांकि सभी मेट्रो स्टेशनों के अन्दर मेट्रो प्रशासन ने एक बोर्ड जरूर लटका दिया है कि ‘‘यहाँ सभी श्रम कानून लागू किये जाते हैं’’ लेकिन सच्चाई यह है कि मेट्रो में काम करने वाले सफ़ाई मज़दूर हो या फ़िर निर्माण मज़दूर सभी से जानवरों की तरह हाड़तोड़ काम लिया जाता है। और जब मज़दूर अपने कानूनी हक माँगते हैं या स्टेशन मैनेजर से शिकायत करते हैं तो उन्हें तरह-तरह से डराने-धमकाने की कोशिशें की जाती हैं। मेट्रो प्रशासन और ठेकेदार चाहते हैं कि मज़दूर भेड़-बकरियों की तरह सिर झुकाकर काम करते रहें, लेकिन हक-अधिकार न माँगे।
वैसे सरकार के न्यूनतम मज़दूरी कानून, 1948 के अनुसार प्रत्येक सफ़ाईकर्मी को 186 रु. प्रति दिन के हिसाब से वेतन मिलना चाहिये। लेकिन मेट्रो सफ़ाईकर्मियों को 90 रु. से 110 रु. प्रति दिन के हिसाब से मज़दूरी मिलती है। असल में तो सारे कानूनों को कायदे से लागू करने की जिम्मेदारी मेट्रो प्रशासन की है। चूँकि, मेट्रो प्रशासन ही सभी ठेका मज़दूरों का प्रधान नियोक्ता है, इसलिए उसकी यह जिम्मेदारी बनती है कि वे सफ़ाईकर्मियों को उनका हक दिलवाये। लेकिन मेट्रो प्रशासन सब कुछ जानते हुए भी अनजान बने रहने का नाटक करता है। और सारा दोष ठेका कम्पनियों के मत्थे मढ़कर साफ़ बच निकलना चाहता है। मेट्रो प्रशासन अपने कार्यरत मज़दूरों के मामले में कितना संवेदनशील है इसे हाल के उस वाकये से समझा जा सकता है जिसमें एक सुरक्षा गार्ड का हाथ ट्रेन के दरवाज़े में फ़ंस गया और लटकते हुए अगले स्टेशन तक चला गया। इस पूरे मामले में मेट्रो प्रशासन मामले की लीपापोती करने में लगा रहा और घटना की जिम्मेदारी खुद उस गार्ड और यात्रियों पर डालने की कोशिश करता रहा। और हर्जाना कम से कम देना पड़े इसके लिए मेट्रो प्रशासन ने डाक्टरों पर दबाव तक डाला कि वे चोट को मामूली बतायें।
मेट्रो मजदूरों के ये हालात बताते है कि दिल्ली मेट्रो के चमचमाते ग्रेनाइट के फ़र्शों और शीशे की दीवारों की चमक जिन मजदूरों की बदौलत कायम है उनकी जिन्दगी कितने गहरे अंधेरे में डूबी हुई है। लेकिन जहाँ शोषण और अन्याय है वहाँ प्रतिरोध होना लाजिमी है। दिल्ली मेट्रो के भीतर सभी श्रम कानूनों की नग्न अवहेलना के खिलाफ़ ‘मेट्रो कामगार संघर्ष समिति’ ने एक संघर्ष की शुरूआत की है और मज़दूरों को एकजुट और संगठित करने का काम शुरू किया है। संघर्ष समिति ने ठेका कम्पनियों की मनमानी के खिलाफ़ एक हस्ताक्षर अभियान शुरू किया, जिसमें अभियान में लगभग 60 सफ़ाईकर्मी शामिल रहे हैं। और गत 23 जनवरी को हस्ताक्षर किया ज्ञापन संघर्ष समिति ने डी.एम.आर.सी. के प्रबंधक निर्देशक (डक्) श्रीधरन, अध्यक्ष रामचंद्रन और क्षेत्रीय श्रमायुक्त, मुख्यमंत्री शीला दीक्षित और केन्द्रीय श्रम मन्त्री आस्कर फ़र्नाडीज को सौंपा।
संघर्ष समिति के जुझारू संघर्ष के बाद मेट्रो प्रशासन मज़दूरों से डर गया है। मज़दूरों की सोई हुई ताकत के जाग उठने के ख्याल से मेट्रो प्रबन्धन तथा ठेकेदारों को बुरे सपने आने लगे हैं। उसे डर है कि आजादी और हकों की यह लड़ाई मेट्रो के अन्य मज़दूरों तक न पहुँच जाये। इसलिए मज़दूरों की एकजुट आवाज को भाँपते हुए, मेट्रो प्रशासन उनकी जुबान बन्द करने पर आमादा हो गया है। गत 4 फ़रवरी को मेट्रो प्रशासन ने अपने कर्मचारियों के नाम ‘कोड ऑफ़ वैल्यू एण्ड एथिक्स’ नाम से सर्कुलर जारी करके मज़दूरों से उनके सभी जनतांत्रिक व कानूनी अधिकार छीन लेने की कोशिश कर रहा है। इस सर्कुलर में मज़दूरों व कर्मचारियों से स्पष्ट कहा गया है कि वे किसी भी अन्य सरकारी विभाग में मेट्रो प्रशासन की शिकायत नहीं कर सकते हैं। वे मेट्रो में चल रहे किसी भी अन्याय या धाँधली के खिलाफ़ मीडिया में नहीं जा सकते हैं। न्यायालय में भी जाने पर मनाही है। और अगर न्यायालय में जाना हो तो पहले डी.एम.आर.सी. के सतर्कता विभाग में शिकायत करनी होगी। यानी, हर मामले में गवाह भी मेट्रो प्रशासन, वकील भी मेट्रो प्रशासन और न्यायधीश भी मेट्रो प्रशासन! ऐसे में मज़दूरों के साथ कौन–सा न्याय होगा इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।
मेट्रो प्रशासन की तानाशाही के जवाब में संघर्ष समिति ने पर्चा वितरित किया और इस फ़ासीवादी सर्कुलर के खिलाफ़ मज़दूरों का आह्वान करते हुए कहा कि हमें अपने अधिकारों के लिए आखिर दम तक लड़ना होगा और मिलकर अपनी आवाज़ बुलन्द करनी होगी। क्योंकि मज़दूरों के पास संघर्ष के अलावा और कोई रास्ता नहीं है।
मेट्रो प्रशासन के इस मज़दूर विरोधी रवैये के खिलाफ़ मेट्रो कामगार संघर्ष समिति 25 मार्च को आन्दोलन को आगे बढ़ते हुए मेट्रो भवन पर चेतावनी प्रदर्शन किया। चार घण्टे चले प्रदर्शन को सारे मीडिया ने दिखलाया और नागरिकों ने इसका ज़ोरदार समर्थन किया। प्रदर्शन के दौरान कर्मचारियों के एक प्रतिनिधिमण्डल ने जब अपनी माँगों से सम्बन्धित ज्ञापन देने के लिए मेट्रो परिसर के भीतर जाने की कोशिश की तो उन्हें गेट पर ही रोक दिया गया और कहा गया कि मेट्रो प्रशासन उनका ज्ञापन नहीं लेगा। इस पर सभी कर्मचारी गेट को जाम कर धरने पर बैठ गये और मेट्रो के खिलाफ़ नारेबाजी शुरू कर दी। स्थिति को बिगड़ता देख तत्काल पुलिस बुला ली गयी। पुलिस ने भी मामले में कुछ भी कर पाने में अक्षमता जता दी। अंततः, पुलिस के हस्तक्षेप से मेट्रो प्रशासन ने ठेका कम्पनी एराइस के प्रतिनिधि विजय को भेजकर कर्मचारियों का ज्ञापन स्वीकार किया। संघर्ष समिति ने माँग की है कि न्यूनतम वेतन 186 रुपये दिया जाये, साप्ताहिक अवकाश, ई.एस.आई., पी.एफ़. की सुविधा दी जाय तथा ठेका प्रथा बन्द करके कर्मचारियों को स्थायी किया जाये। संघर्ष समिति के अजय स्वामी ने बताया कि मेट्रो प्रशासन ठेका मज़दूरों की जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ते हुए सारा जिम्मा ठेका कम्पनियों पर डाल रहा है। जबकि सच्चाई यह है कि मेट्रो प्रशासन ने मेट्रो कामगार संघर्ष समिति के आर.टी.आई. आवेदन के जवाब में लिखित रूप में यह स्वीकार किया है कि डी.एम.आर.सी. ही मेट्रो में काम करने वाले सभी ठेका मज़दूरों की प्रमुख नियोक्ता है और मज़दूरों के अधिकार दिलाने की जिम्मेदारी डी.एम.आर.सी. की ही है। उन्होंने कहा यदि डी.एम.आर.सी. दस दिनों के भीतर हमारी माँगों की सुनवाई नहीं करती तो हम मेट्रो भवन पर धरना देंगे ओर उसके सभी गेटों को जाम कर देंगे। इस छोटे-से एकजुट प्रदर्शन ने मेट्रो की तानाशाही को चुनौती दे डाली और उसे हिलाकर रख दिया। इस प्रदर्शन की विजय दिखलाती है कि अगर सभी सफ़ाई कर्मचारी निडर होकर एकजुट हो जायें तो वे मेट्रो प्रशासन को अपनी जायज माँगों पर झुका सकते हैं।
इस प्रदर्शन के बाद मेट्रो कामगार संघर्ष समिति के इस आन्दोलन में मेट्रो फ़ीडर बस सेवा के चालक व परिचालक भी शामिल हो गये। मेट्रो फ़ीडर बस सेवा दिल्ली के अलग-अलग क्षेत्रों से लोगों को मेट्रो रेल के स्टेशनों तक ले जाने का काम करती है। यहाँ पर भी ठेका प्रथा का राज है और राजस्थान–बॉम्बे ट्रांस्पोर्ट कम्पनी नामक कम्पनी को ठेका मिला हुआ है। यह कम्पनी भी चालकों व परिचालकों का जमकर शोषण-उत्पीड़न कर रही है। पहले भी इन चालकों-परिचालकों ने आन्दोलन किया था लेकिन वह सफ़ल नहीं हो पाया था। इसके बाद ये कर्मचारी मेट्रो सफ़ाई मज़दूरों के आन्दोलन के साथ आकर शामिल हो गये। इससे पूरे आन्दोलन की ताक़त में भारी वृद्धि आई। 5 मई को मेट्रो कामगार संघर्ष समिति ने मेट्रो भवन पर फ़िर से एक ज़ोरदार प्रदर्शन किया जिसमें बड़े पैमाने पर मज़दूरों ने शिरकत की। लेकिन इस बार मेट्रो प्रशासन ने दिल्ली पुलिस के साथ पहले से ही गठजोड़ कायम कर रखा था। मज़दूरों के प्रदर्शन के अभी 15 मिनट ही बीते थे कि पुलिस ने धारा 144 तोड़ने के आरोप में 46 मेट्रो आन्दोलनकारियों को गिरफ्तार कर लिया। उन्हें गिरफ्तार करके तिहाड़ जेल ले जाया गया, जहाँ अगले दिन शाम को उनकी जमानत हो गई। लेकिन इस दौर में पूरे दिल्ली शहर में यह बात आग की तरह फ़ैल गई कि मेट्रो कर्मियों का कोई आन्दोलन चल रहा है। मेट्रो प्रशासन पर भारी दबाव बना और वह सफ़ाइयाँ देता अभी तक घूम रहा है। मेट्रो कामगार संघर्ष समिति के प्रवक्ता ने बताया कि जेल जाने के बाद मेट्रो के आन्दोलनकारियों का जोश ठण्डा नहीं पड़ा है बल्कि वे संघर्ष के अगले कदम की तैयारी में लग गये हैं। आगे की योजना सभी मेट्रो कामगारों की एक यूनियन खड़ी करना और श्रम अधिकारों के नग्न उल्लंघन के ख़िलाफ़ मेट्रो प्रशासन और ठेकेदारों पर कानूनी कार्रवाई करना।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, अप्रैल-जून 2009
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