पैदा हुई पुलीस तो इबलीस ने कहा…

शिवानी

खुद रक्षक कैसे भक्षक बनता है यदि आपको इसका ज्वलन्त उदाहरण कहीं देखना हो तो राष्ट्रीय महिला आयोग की एक नई रिपोर्ट पर निगाह भर डाल लेना काफ़ी होगा। राष्ट्रीय महिला आयोग द्वारा जारी ताज़ा आँकड़ों के मुताबिक पिछले साल राजधानी में पुलिस द्वारा स्त्री उत्पीड़न के 553 मामले सामने आए। 2007 में यह संख्या 249 थी। इसका मतलब है कि इन मामलों में सीधा दोगुने से भी ज़्यादा की बढ़ोत्तरी हुई। स्त्रियों की वास्तविक जीवन स्थितियों में किसी किस्म की बेहतरी या बढ़ोत्तरी दर्ज़ हो न हो, हर साल उनके ख़िलाफ़ होने वाले अपराधों में इजाफ़ा ज़रूर होता है। लेकिन चौंकाने वाली बात तो यह है कि खुद पुलिस भी अब इस अपराधों में बड़े पैमाने पर भागीदार है। इसलिए कोई ताज्जुब नहीं कि अपने ख़िलाफ़ होने वाली तमाम शोषण-उत्पीड़न की वारदातों की रिपोर्ट तक दर्ज़ कराने में औरतें बहुत कम ही सामने आती हैं। भले ही इसके पीछे मुख्यतः समाज में बदनामी और अपमान की मानसिकता काम करती हो लेकिन इन आँकड़ों को देखकर तो पुलिस पर भरोसा करने की भी कोई वजह नज़र नहीं आती। ख़ैर, यह बात अलहदा है कि जो मामले दर्ज़ भी होते हैं उन पर कभी कोई कार्रवाई होती भी है या नहीं। बहरहाल, इन आँकड़ों के मद्देनज़र तो अब यह स्थिति काफ़ी अजीबो-ग़रीब हो जाएगी। खुद अपने ही ख़िलाफ़ पुलिस किस किस्म की शिकायत दर्ज़ करेगी!

अभी इस घटना को गुज़रे ज़्यादा वक्त नहीं बीता है जब दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैम्पस के निकट स्थित पुलिस लाइन में पुलिस प्रशासन सेवा की एक परीक्षा के लिए आए उम्मीदवारों ने विश्वविद्यालय की छात्राओं के साथ बदतमीज़ी की। ये उम्मीदवाद ही हमारे देश के भावी पुलिसकर्मी हैं! अब इस घटना से सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि जनता की सुरक्षा और उसका दोस्त होने का दम भरने वाला पुलिस प्रशासन किन रूपों में उसकी रक्षा करता है।

बहरहाल, इन आँकड़ों को काफ़ी चिन्ताजनक बताते हुए राष्ट्रीय महिला आयोग की अध्यक्षा गिरिजा व्यास का कहना है कि आयोग पुलिस के उच्च अधिकारियों से इसके ख़िलाफ़ सख़्त कदम उठाने की बात कर रहा है। उन्होंने यह भी बताया कि आयोग स्वयं पुलिसकर्मियों को महिलाओं के प्रति संवेदनशील बनाने के लिए विशेष काउंसलिंग एवं प्रशिक्षण सत्र का अयोजन करने पर भी विचार कर रहा है। लेकिन लगता है श्रीमती व्यास यह भूल रही हैं कि पुलिसकर्मी इसी समाज का हिस्सा हैं, एक ऐसे समाज का हिस्सा जहाँ स्त्रियों को हमेशा दोयम दर्जें का होने के अहसास के साथ जीना पड़ता है। और इसके कारण केवल सांस्कृतिक या सामाजिक नहीं हैं। आज भी स्त्रियाँ कहीं अधिक भयंकर आर्थिक शोषण का शिकार हैं। उनका श्रम पुरुषों के श्रम की अपेक्षा सस्ता होता है। और जो महिलाएँ बाहर काम नहीं करतीं वे भी घरों में खटती हैं। स्त्रियों की सामाजिक स्थिति ख़राब होने और उनके दमित और उत्पीड़ित होने के पीछे का सबसे प्रमुख कारण आर्थिक ही है। इसलिए एक ऐसी व्यवस्था जहाँ स्त्रियों को कदम-कदम पर शोषण-उत्पीड़न का सामना करना पड़ता है वहाँ पुलिस सुधारों के जरिये या फ़िर किसी किस्म की भी सुधारवादी कवायद के जरिये स्त्रियों की स्थिति बेहतर नहीं हो सकती। इसी व्यवस्था के भीतर रहकर स्त्रियों के उत्पीड़न–दमन के उन्मूलन की बात या फ़िर स्त्री-पुरुष के बीच की असमानता को ख़त्म करने की बात ही बेमानी होगी।

पुलिस द्वारा स्त्रियों के बढ़ते उत्पीड़न के मामले सिर्फ़ इसी तथ्य को रेखांकित करते हैं कि समाज में शोषित-उत्पीड़ित और दमित स्त्री एक आसान निशाना या शिकार होती है। पुलिस बल ने कई मौकों पर साबित किया है कि वह देश की सबसे संगठित गुण्डा बल ही है जो व्यवस्था का रक्षक है। जनता का नहीं। जनता के कमज़ोर तबकों को दबाना तो पुलिस अपना कर्तव्य और धर्म समझती है। शायद इसीलिए एक शायर ने एक बार कहा था-

“पैदा हुई पुलीस तो इबलीस ने कहा,
लो आज हम भी साहिबे-औलाद हो गये!”

 

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2009

 

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