कैम्पसों में बढ़ती पुलिस मौजूदगी – आख़िर किस बात का डर है उन्हें?

शिवानी

duपिछले कुछ समय से एक नयी परिघटना विश्वविद्यालय कैम्पसों में नज़र आ रही है-विश्वविद्यालय और कॉलेज कैम्पसों में बढ़ती पुलिस मौजूदगी और छात्र राजनीति में इनका बढ़ता हस्तक्षेप। इस परिघटना को परिधिगत विश्वविद्यालयों में तो काफ़ी पहले से ही देखा जा रहा है। लेकिन अब तक महानगरीय विश्वविद्यालय कैम्पस इस परिघटना से अपेक्षतया अछूते रहे थे। दिल्ली विश्वविद्यालय, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय जैसे विश्वविद्यालयों को जनवाद का गढ़ माना जाता था और पुलिस की किसी भी अनधिकार चेष्टा पर छात्र तीखी प्रतिक्रिया देते थे। दरअसल, पुलिस खुद ही छात्र समुदाय को तब तक छेड़ने से बचती थी जब तक कि यह अत्यन्त आवश्यक न हो जाय या उससे बचा न जा सकता हो। पहले विश्वविद्यालय प्रशासन स्वयं पुलिस हस्तक्षेप का समर्थन नहीं करता था और पुलिस को कैम्पस में घुसने से भरसक रोकता था। लेकिन अब मामला पलट गया है। अब स्वयं कुलपति, प्रॉक्टर, डीन आदि की शह पर पुलिस कैम्पसों में घुस चुकी है। चौराहों, चाय की चट्टियों, कॉलेज गेटों, हॉस्टल गेटों से लेकर कैम्पस के ढाबों, बाज़ारों आदि में ख़ाकी वर्दी की उपस्थिति आँखों में चुभती रहती है। चारों तरफ़ पुलिस भारी संख्या में नज़र आती है। पिछले पाँच-छह वर्षों में कैम्पस में ख़ाकी वर्दी की मौजूदगी ने जो छलाँग लगायी है, वह तो यहाँ पढ़ने वाले छात्र-छात्रओं की संख्या में भी नहीं दिखती है! कैम्पस का वातावरण अब किसी पुलिस छावनी से कम नहीं लगता। यह ग़ौरतलब है कि आख़िर पुलिस की अचानक इतनी ज़रूरत प्रशासन को क्यों महसूस होने लगी है? क्या अचानक छात्र आबादी में आपराधिक प्रवृत्तियाँ बढ़ गयी हैं? या कोई और चिन्ता प्रशासन और ऊपर बैठे नीति-निर्धारकों को खाये जा रही है?

कैम्पस में बढ़ती पुलिस मौजूदगी कोई स्थानीय परिघटना नहीं है। ऐसे सभी कैम्पसों में पुलिस बलों की संख्या में तेज़ी से वृद्धि हुई है जो जनवाद, अभिव्यक्ति की आज़ादी के गढ़ कहलाते थे, जिनका इतिहास आन्दोलनों का इतिहास रहा है। इस पूरे बदलाव को एक व्यापक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखना होगा क्योंकि पहली नज़र में ही यह एक नीतिगत परिवर्तन दिखलाई पड़ रहा है। कैम्पस में पुलिस संरक्षण की ज़रूरत के बढ़ते “अहसास” को सरकार द्वारा लागू की जा रही शिक्षा नीतियों की रोशनी में देखना ही तर्कसंगत होगा। 1990 में नयी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद से लगातार शिक्षा का बाज़ारीकरण किया जा रहा है। निजीकरण की प्रक्रिया ने कई पाठ्यक्रमों को तो एकदम से बाज़ार का माल बना दिया है, जो बिक रहे हैं। जिनकी औकात हो वे ख़रीद लें! साथ ही, सीटों में सापेक्षिक कमी लगातार जारी है और फ़ीसों में निरपेक्ष बढ़ोत्तरी भी तेज़ी से की जा रही है। ऐसी स्थितियाँ पैदा की जा रही हैं कि निम्न वर्ग व निम्न मध्यवर्ग के बेटे-बेटियाँ कैम्पसों में पहुँच ही न सकें। कैम्पसों का कुलीनीकरण किया जा रहा है। और यह सब सरकार बेहद सोचे-समझे तरीके से कर रही है। एक तो आम घरों के लड़के-लड़कियाँ कैम्पसों में जारी बाज़ारीकरण की प्रक्रिया का लगातार विरोध करते हैं और सरकार की मंशाओं को लागू करने की प्रक्रिया को सुचारू रूप से नहीं चलने देते। साथ ही, यही वह छात्र आबादी होती है जो शिक्षा पूरी कर लेने के बाद सड़कों पर स्नातक-स्नातकोत्तर की डिग्रियाँ बगल में दबाए बेरोज़गार घूमती है। नतीजतन, कैम्पस के बाहर भी वह “सामाजिक अशान्ति“ का कारण बनती है। इसका सबसे अच्छा इलाज यही हो सकता है कि निम्न वर्ग और निम्न मध्यवर्ग के छात्र-छात्रओं को कैम्पस पहुँचने ही न दिया जाय।

लेकिन दिक्कत इस नुस्खे से हल होती नज़र नहीं आ रही है। कैम्पसों में फ़िर भी पहुँच जाने वाली आम छात्र आबादी ख़ासे सिरदर्द का कारण बन रही है क्योंकि यह शिक्षा के वाणिज्यीकरण के हर प्रयास का पुरज़ोर विरोध करती है। इसके अतिरिक्त, एक छात्र आबादी ऐसी भी है जो खाते-पीते मध्यवर्ग से आती है और बढ़ती फ़ीसें और घटती सीटें उस रूप में उसकी व्यक्तिगत समस्या तो नहीं है लेकिन एक नौजवान होने के नाते, इंसाफ़पसन्द और तरक्कीपसन्द होने के नाते वह अन्यायपूर्ण नीतियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाती है। कई बार यह छात्र आबादी आम छात्रों के संघर्ष में शामिल भी होती है। एक सोचने की बात यह भी है कि शिक्षा प्राप्त कर लेने के बाद रोज़गार और मनपसन्द कैरियर को चुन पाने का सवाल खाते-पीते मध्यवर्गीय युवाओं के सामने भी आने लगा है। इसलिए कैम्पसों को मुर्दा शान्ति से भरने का कोई उपाय कारगर होता नहीं नज़र आ रहा है।

लिहाज़ा, एक विचारणीय छात्र आबादी ऐसी है जो कैम्पस में है और सुलग रही है। हो सकता है कि वह बेहद कुलीन कॉलेजों में न दिखाई दे, लेकिन परिधिगत कॉलेजों और फ़ैकल्टियों में वह मौजूद है, और भारी संख्या में मौजूद है। इसको फ़ीसें बढ़ाकर तुरन्त बाहर कर पाना सरकार के बूते की बात नहीं है। क्योंकि एकमुश्त इतनी फ़ीसें बढ़ाने की आँच वह वर्ग भी महसूस करेगा जिसे यह व्यवस्था अपने सामाजिक अवलम्बों के रूप में चाहती है। कैम्पस में व्यवस्था के प्रति आक्रोश छात्रों के एक हिस्से में मौजूद है और रहेगा। यह सच है कि यह आबादी इतनी बड़ी नहीं होगी जो 1960 या 70 के दशकों की तरह कैम्पसों को छात्र आन्दोलनों का केन्द्र बना दे। लेकिन यह कैम्पसों को राजनीतिक संघर्ष और क्रान्तिकारी संगठनों के निर्माण और भर्ती के तमाम केन्द्रों में से एक महत्वपूर्ण केन्द्र बनाए रखेगी। कई यूरोपीय और लातिनी अमेरिका के देशों के अनुभव भी इस बात को पुष्ट करते हैं कि कैम्पसों का वर्ग चरित्र फ़ीसें बढ़ाकर और सीटें घटाकर बदलने में व्यवस्था सफ़ल ज़रूर हुई है लेकिन केवल इसी युक्ति से वह कैम्पसों में श्मशान का सन्नाटा नहीं फ़ैला सकती। पिछले दो दशकों में, नवउदारवादी नीतियों के लागू होने के शीर्ष युग में भी, कई लातिनी अमेरिकी व यूरोपीय कैम्पस शानदार छात्र आन्दोलनों का केन्द्र बने हैं, चाहे वह मेक्सिको के यूनाम विश्वविद्यालय पर छात्रों का नौ महीने का कब्‍ज़ा रहा हो या फ्रांस के छात्रों-नौजवानों के अनेक आन्दोलन। कैम्पस में वर्ग ध्रुवीकरण तेज़ हुआ है और छात्र समुदाय विखण्डित होकर वर्ग खेमों में लामबन्द हुआ है। ऐसे में कैम्पस आन्दोलनों के केन्द्र के रूप में कमज़ोर हुए हैं लेकिन क्रान्तिकारी भर्ती के केन्द्रों के रूप में मज़बूत भी हुए हैं। और यही वह डर है जिसके कारण सरकार कैम्पसों में पुलिस की मौजूदगी को बढ़ा रही है। आम छात्रों के दिल में पहले से ही व्यवस्था का भय बिठाकर उनका विराजनीतिकरण करने की साज़िश की जा रही है। उन्हें डरा-धमकाकर अनुशासित करने का प्रयास किया जा रहा है। कैम्पसों में अमीरज़ादों की तादाद बढ़ी है और इसके साथ ही कैम्पस उनकी लफ़ंगई और गुण्डागर्दी का अड्डा भी बना है। हाल ही में, कारधारी नवधनाढ्य लम्पटों ने कैम्पसों में कई घिनौने अपराधों को अंजाम दिया है। इन्हीं “अप्रिय घटनाओं” का हवाला देकर प्रशासन पुलिस की उपस्थिति को कैम्पसों में बढ़ा रहा है। लेकिन यह पुलिस आम तौर पर उन्ही लम्पटों के साथ गलबँहियाँ करते, और उन्हें संरक्षण देते नज़र आती है जिनके अपराधों का हवाला देकर उसकी उपस्थिति को सही ठहराया जाता है। पुलिस की ज़ोर–ज़बर्दस्ती और बदतमीज़ी का शिकार हर–हमेशा आम छात्र होते हैं न कि पूँजीवादी चुनावी पार्टियों के लग्गू-भग्गू संगठनों से जुड़े वे लम्पट छात्र जो कैम्पस में होने वाली अधिकांश “अप्रिय घटनाओं” के लिए उत्तरदायी होते हैं। आँकड़े बताते हैं कि पुलिस की मौजूदगी बढ़ने के बाद से भी कैम्पस में होने वाले अपराधों में कोई कमी नहीं आयी है। बल्कि आँकड़े तो इसका उलट बताते हैं; पुलिस मौजूदगी बढ़ने के बाद इन अपराधों में वृद्धि हुई है। पिछले चार वर्षों का दिल्ली विश्वविद्यालय का ही रिकॉर्ड उठाकर देख लीजिये।

आम छात्रों को किसी भी सकारात्मक कार्रवाई और राजनीतिकृत होने से रोकने के लिए पुलिस का डण्डा इस्तेमाल किया जा रहा है। भारी तादाद में कैम्पसों में पुलिस का होना, वहाँ के आम छात्रों को किसी भी क्रान्तिकारी छात्र राजनीति के झण्डे तले गोलबन्द और संगठित होने की हर सम्भव कोशिश को निष्फ़ल करने की एक सोची-समझी रणनीति का सूचक है।

वहीं कैम्पसों में पिछले कुछ समय में पुलिस दमन की कुछ निन्दनीय घटनाएँ हुईं हैं। मिसाल के तौर पर, पिछले वर्ष मानसरोवर छात्रावास में हुई पुलिस दमन की घटना जिसमें पुलिसवालों ने छात्रों को छात्रावास के कमरों में घुस-घुसकर पीटा। इन पीटे गये लोगों में तमाम ऐसे शोधार्थी थे जो अनियमित या अस्थायी शिक्षकों की भूमिका में भी आ चुके हैं। ग़ौरतलब बात यह थी कि यह सारा काण्ड दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रॉक्टर महोदय के प्रत्यक्ष निर्देशन में हो रहा था। बाद में छात्रों ने इस कार्रवाई के ख़िलाफ़ आन्दोलन किया जिसमें आंशिक सफ़लता हासिल हुई। आंशिक इसलिए कि हर आन्दोलन की तरह उसमें चुनावी छात्र संगठनों के दलाल घुसे हुए थे जिन्होंने एक शानदार आन्दोलन को पूरी तरह सफ़ल होने से रोक दिया। इस तरह की घटनाएँ भी बीच-बीच में इसलिए अंजाम दी जाती हैं ताकि छात्रों के मन में पुलिस का भय बैठे। या प्रशासनिक शब्दावली में कहें तो छात्र “अनुशासित हो सकें, यानी “सभ्य” और “सुशील” बन जायें!

अब जब कैम्पस की बात हो ही रही है तो एक बार इस बात का ज़िक्र करना भी अनावश्यक नहीं होगा कि पुलिस की भूमिका ऊपर बताए गये रूप में ही नहीं बढ़ी है। बल्कि उसका दख़ल छात्रों की निजी ज़िन्दगी तक में भी काफ़ी बढ़ गया है। अब कैम्पस में छात्र रात में 11 बजे के बाद घूमें या बैठें तो पुलिस की वैन रुकती है और उनसे पूछताछ शुरू हो जाती है-‘कौन हो?’, ‘आई.कार्ड दिखाओ?’, ‘इस समय यहाँ क्यों बैठे हो?’, वगैरह। और अगर कोई लड़का और लड़की साथ बैठे हों तब तो पुलिसवालों को ख़ास तौर पर नाराज़गी होती है और अगर समय रात का हो तब तो खुदा खै़र करे। उन्हें ऐसे देखा जाता हो जैसे रात के समय कैम्पस में साथ बैठकर वे कोई अपराध कर रहे हों। उनसे इस तरह से पूछताछ शुरू हो जाती है जैसे कि वे अपराधी हों। कैम्पसों में छात्रों की निजी ज़िन्दगियों में बढ़ता पुलिस हस्तक्षेप भी दिखलाता है कि कैम्पस के जनवादी स्पेस को जानबूझकर सिकोड़ा और समेटा जा रहा है। कैम्पसों को छावनियों में तब्दील किया जा रहा है।

कुल मिलाकर इस सारी कवायद का मक़सद यही है कि छात्रों को और कैम्पसों को मरघट की शान्ति से भर दिया जाय। कहीं कोई आवाज़ न उठाये; कहीं लोग एक-दूसरे से मिलें नहीं और आपसी संवाद और सम्बन्ध न कायम करें; कोई हक़ की बात न करे; सब शान्त रहें! यही चाहत है इस व्यवस्था और प्रशासन की। लेकिन पुलिस का डण्डा छात्रों को डराकर उनकी नौजवानी को कुचल नहीं सकता। छात्रों-युवाओं में एक सहज न्यायबोध होता है। उसे ऐसे किसी भोंडे प्रयास से कुचला नहीं जा सकता। साथ ही, छात्रों के राजनीतिकरण को भी रोकना इस व्यवस्था के बूते की बात नहीं। अंततः कैम्पस के भीतर या कैम्पस के बाहर नौजवानों को अपनी ज़िन्दगी की जद्दोजहद से यह समझ लेना है कि संगठित हुए बग़ैर उन्हें कुछ हासिल नहीं होगा। कैम्पसों को छावनियों में तब्दील करने की तमाम कोशिशों के बावजूद छात्र अपनी यह फ़ितरत नहीं भूल सकते-अन्याय के विरुद्ध विद्रोह न्यायसंगत है!

 

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जुलाई-सितम्‍बर 2007

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