कहीं भी नहीं है लहू का सुराग़…

योगेश, दिल्ली

हर संवेदनशील व्यक्ति को मुम्बई में हुई आतंकवादी घटना का दुख होगा और इस कृत्य की कठोर निन्दा की जानी चाहिए। सामान्यतः ऐसी घटनाओं में ज्यादातर आम लोग ही मरते रहे है। पर तब यह इतना बड़ा मुद्दा नहीं बना और अगर यह आतंकी हमला भी केवल मुम्बई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनल पर ही हुआ होता जहाँ सबसे ज्यादा लोग मारे गए हैं तो भी इतना हो-हल्ला नहीं मचता। इस बार सबसे अधिक बंवडर इसलिए भी मचा कि आतंकवादियों ने ताज होटल जैसे भारत के आर्थिक प्रतीकचिन्हों पर हमला किया है। इसीलिए इस घटना के बाद मीडिया, बुद्धिजीवी और भारत के उच्चमध्यम वर्ग के लोग जिन सवालों को लेकर सड़कों पर उतर आए और बहुत चिंतित दिख रहे है उन सवालों को व्यापक रूप में समझने की जरूरत है। हमारे देश के खाते-पीते वर्ग पर हुए हमले के बाद इस बात को बहुत जोर-शोर से उठाया जा रहा है कि हमारी वर्तमान नेताशाही बिलकुल भ्रष्ट और निकम्मी हो चुकी है। सभी पार्टियों के नेता अपनी सुरक्षा पर तो लाखों-करोड़ों रुपये खर्च कर देते है पर उन्हें लोगों की सुरक्षा की कतई चिंता नहीं हैं। लोगों की यह धारणा शत-प्रतिशत सही है। पर सोचने की बात तो यह है कि इस घटना के बाद ही क्यों समझ आ रहा कि हमारे देश की नेताशाही चोर, भ्रष्ट, विलासी और अपराधिक हो चुकी है? यह सही है कि मुनाफ़ा-केन्द्रित मौजूदा ढाँचे की राजनीति ही ऐसी ज़मीन तैयार करती है कि इस तरह की घटनाएं होती है और प्रत्यक्ष रूप से लोग मारे जाते है। लेकिन इसी ‘‘जनतंत्र’’ की नीतियों के कारण जो सामाजिक-आर्थिक विषमता पैदा होती है और देश की बहुसंख्यक आम आबादी भूख, कुपोषण ओैर बीमारी से धीरे-धीरे मरती रहती है। ये मौतें इस व्यवस्था द्वारा की गई ऐसी हत्याएं है जिसमें सीधे तौर पर गुनाहगार या उसका कोई नामों-निशान नहीं मिलता है। अन्तरराष्ट्रीय एजेसियों और पूँजीवादी अखबारों की रिपोर्टों और सर्वे से प्राप्त आकड़ों से इन चीखती सच्चाईयों को जाना जा सकता है। संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य व कृषि संगठन की रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनिया में 85 करोड़ 50 लाख भुखमरी, कुपोषण या अल्पपोषण के शिकार है इनमें से 35 करोड़ लोग भारतीय है। यानी, तीन में से एक भारतीयों को प्रायः भूखे पेट सोना पड़ता है और सरकार के द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक देश के 84 करोड़ लोग 20 रुपये रोज पर ही गुजारा करते है। ऐसे कई आंकड़े है जिनसे पता चलता है कि भारत की एक बड़ी आबादी गरीबी के कारण असमय ही मर जाती है। इसी तरह के हालातों के सन्दर्भ में इंग्लैण्ड के प्रसिद्ध साहित्यकार मार्क ट्वेन ने कहा था कि – ‘लोगों के सिर कलम कर दिये जाने को तो हम भयंकर मानते है। पर हमें जीवनपर्यन्त बरकरार रहने वाली मृत्यु की उस भयंकरता को देखना नहीं सिखाया गया है जो गरीबी और अत्याचार द्वारा व्यापक आबादी पर थोप दी गयी है।’ आतंकवाद को रोकने को लिए भारत सरकार पोटा जैसा ही नया कानून लाई है। फ़िर कोई नयी घटना घटेगी तो फ़िर और कड़े कानूनों की वकालत होने लगेगी। सवाल है इन घटनाओं को खाद-पानी देने वाली असमानता पर टिकी मौजूदा व्यवस्था के बारे में कौर सोचेगा? जिस ढाँचे तले पिस कर लोगों की क्षण-क्षण हत्यायें होती हैं। न खून के धब्बे दिखते हैं न औजार। फ़ैज़ के शब्दों में-

कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं लहू का सुराग
नः दस्त-ओ–नाख़ून–ए–कातिल न आस्तीं पेः निशाँ
नः सुर्खी-ए–लब-ए–ख़ंजर , नः रंग-ए–नोक-ए–सनाँ
नः ख़ाक पर कोई धब्बा नः बाम पर कोई दाग़
कहीं नहीं है, कहीं भी नहीं लहू का सुराग़

 

 

मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2009

 

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