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देख फ़कीरे, लोकतन्‍त्र का फ़ूहड़ नंगा नाच!

आज पूरी पूँजीवादी राजनीति सर से पाँव तक नंगी हो चुकी है। ऐसे में यदि संसद में कोई कार्रवाई हो भी जाती तो इससे जनता का क्या भला हो जाता? जब कार्रवाई चलती है तो भी तो उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ बनती हैं, जनता के ख़िलाफ साज़िशें होती हैं, काले कानून पास होते हैं, और लूट-खसोट को चाक-चौबन्द करने के नियम-कानून बनते हैं। जब संसद में ही लुटेरे बैठेंगे तो आप और क्या उम्मीद कर सकते हैं? इसलिए, संसद में कोई कार्रवाई हो या न हो, इससे जनता को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। पूँजीवादी संसद की परजीवी संस्था अपने आप में इस देश की जनता पर बोझ है।

यूरोप में छात्रों-नौजवानों और मेहनतकशों का जुझारू प्रदर्शन

पिछले दो महीनों से, यूरोप के विभिन्न शहरों में जनता का गुस्सा सड़कों पर उमड़ रहा है। लाखों की तादाद में मज़दूर-कर्मचारी-नौजवान विरोध प्रदर्शनों और हड़तालों में हिस्सेदारी कर रहे हैं। कई शहरों में सरकारी दफ्तरों पर हमले हो चुके हैं, उत्पादन ठप्प हुआ है और कई मौकों पर तो पूरा देश ही ठहर गया। हालाँकि इन हड़तालों और विरोध प्रदर्शनों के मुद्दे अलग-अलग हैं, लेकिन जनता के गुस्से का कारण एक है – सरकारें सामाजिक सुरक्षा योजनाओं में कटौती कर रही हैं, श्रम कानूनों को ढीला कर रही हैं और एक के बाद एक जन-विरोधी नीतियाँ और कानून बना रही हैं और दूसरी तरफ जन-कल्याण के लिए उपयोग किये जाने वाले पैसे से पूँजीपतियों और वित्तीय संस्थानों को बेलआउट पैकेज और कर-माफी दे रही हैं।

युद्ध, लूट व अकाल से जूझता कांगो!

अपवादों को छोड़कर, पूर्वी कांगो में सारा खनन अनौपचारिक क्षेत्र में होता है। खदान मज़दूर या तो नंगे हाथों काम करते हैं या फिर कुछ पिछडे़ औज़ारों के सहारे। खदानों की कार्य-स्थितियाँ बेहद अमानवीय हैं। मज़दूरों को खनन का कोई प्रशिक्षण नहीं दिया जाता, न ही खदानों में काम करने के लिए ज़रूरी औज़ार व वर्दी उनके पास होती है। मज़दूरों का गम्भीर रूप से घायल हो जाना या मृत्यु की गोद में चले जाना, आम बात है। खदानों के मज़दूरों में एक बड़ी संख्या बाल मज़दूरों की है। काम के घण्टे तय नहीं हैं। हथियारबन्द सैनिकों के कहने पर काम न करने पर मज़दूरों को जान गँवानी पड़ती है। समय-समय पर ये सैनिक महिलाओं व बच्चों को अपनी पाशविकता का शिकार बनाते हैं। अभी तक इस युद्ध के दौरान 2 लाख महिलाओं के साथ बलात्कार हो चुका है।

पूँजीवाद का ढकोसला और डार्विन का सिद्धान्‍त

योग्यतम की उत्तरजीविता का सिद्धांत अलग-अलग प्रजातियों के बीच लागू होता है न कि एक ही प्रजाति के सदस्यों के बीच। डार्विन के अनुसार किसी भी प्रजाति की उत्तरजीविता व विकास के लिए उसके सदस्यों के बीच आपसी निर्भरता व सहयोग की आवश्यकता होती है। इसलिए योग्यतम की उत्तरजीविता का सिद्धान्त मानव समाज के ऊपर लागू नहीं किया जा सकता।

अमेरिका के जनतंत्र-प्रेम की हक़ीक़त

विश्व भर में अपने आप को लोकतंत्र का रखवाला बताने वाले और मानव अधिकारों की पहरेदारी का ढोंग रचाने वाले अमेरिका का असली चेहरा अब उभर कर सामने आने लगा है। आज दुनिया भर में अमेरिकी दादागीरी इतने नंगे रूप में सामने आ चुकी है कि ‘अमेरिकी जनतंत्र’ के चेहरे पर पड़े मानवता के नक़ाब को हटाने पर अब कुछ अमेरिकी बुद्धिजीवी व मीडिया भी मजबूर है। हालाँकि, उनका स्वर अमेरिकी ज़्यादतियों के लिए माफ़ी माँगने वाला ज़्यादा, और अमेरिकी साम्राज्यवाद की पुंसत्वपूर्ण ख़िलाफ़त करने वाला कम है।

कैम्पस के अन्दर भावी पुलिसकर्मियों का ताण्डव

दिल्ली पुलिस में भर्ती के लिए आये लड़कों में से एक भारी मात्रा दिल्ली के आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों में से आती हैं। इन इलाकों से धनी किसानों के लड़के पुलिस में भर्ती होने के लिए आते हैं। इनमें से अधिकांश लड़के खाते-पीते घरों की बिगड़ी हुई औलादें होती है जिन्हें पैसे का नशा होता है। वे समाज को अपनी जागीर समझते हैं और बेहद स्त्री विरोधी होते हैं। उनके लिए स्त्रियाँ भोग की वस्तु से अधिक और कुछ भी नहीं होतीं। जनवादी चेतना से इनका दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं होता। ऐसे में समाज में अपनी लम्पटई को खुले तौर पर करने के लिए अगर कोई बेहतरीन लाईसेंस हो सकता है, तो वह पुलिस की नौकरी ही हो सकती है। इसके अतिरिक्त नवधनाढ्यों के ये लड़के पैसे की संस्कृति के बुरी तरह गुलाम होते हैं। पैसा बनाने का भी तेज़ जरिया इन्हें पुलिस की नौकरी में मिलता है। यही कारण है कि हर वर्ष दिल्ली पुलिस में शामिल होने के लिए आने वाले इन नवधनपतियों की बिगड़ी औलादों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हो रही है। दिल्ली में पुलिस में शामिल होने के लिए लिखित परीक्षा की तैयारी करवाने वाले कोचिंग सेण्टरों की भरमार हो गयी है।