देख फ़कीरे, लोकतन्त्र का फ़ूहड़ नंगा नाच!
आज पूरी पूँजीवादी राजनीति सर से पाँव तक नंगी हो चुकी है। ऐसे में यदि संसद में कोई कार्रवाई हो भी जाती तो इससे जनता का क्या भला हो जाता? जब कार्रवाई चलती है तो भी तो उदारीकरण-निजीकरण की नीतियाँ बनती हैं, जनता के ख़िलाफ साज़िशें होती हैं, काले कानून पास होते हैं, और लूट-खसोट को चाक-चौबन्द करने के नियम-कानून बनते हैं। जब संसद में ही लुटेरे बैठेंगे तो आप और क्या उम्मीद कर सकते हैं? इसलिए, संसद में कोई कार्रवाई हो या न हो, इससे जनता को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। पूँजीवादी संसद की परजीवी संस्था अपने आप में इस देश की जनता पर बोझ है।