नया आतंकवाद-विरोधी कानून – असली निशाना कौन?
श्वेता
हाल ही में मुम्बई में हुए आतंकवादी हमलों ने हुक्मरानों की नींद बुरी तरह से उड़ा दी है। और ऐसा होना स्वाभाविक है क्योंकि इस बाद आतंकवाद का निशाना पाँच-सितारा होटलों में आने वाला खाया-पिया-अघाया कारपोरेट धनपति वर्ग था। इसलिए इस बार आतंकवाद से निपटने के लिए एक कठोर कानून को पेश किया गया। संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार द्वारा यू.ए.पी.ए. नाम के इस कानून की रूपरेखा प्रस्तुत की गयी। 1967 में बने इस कानून में कई नये प्रावधान जोड़कर इसे और अधिक कठोर बनाया गया। नये कानून ने भाजपा को भी बेरोज़गार करने का काम किया क्योंकि आतंकवाद के नाम पर सबसे अधिक शोर–शराबा मचाने का ज़िम्मा तो उसी ने अपने कन्धों पर उठा रखा है। इसके साथ ही इस नये कानून के कठोर स्वरूप ने मध्यम वर्ग में फ़िर से आशा का संचार कर दिया है! यहाँ सवाल यह उठता है कि क्या मात्र ऊपर से किये जाने वाले किसी प्रयास, जैसे कि कोई नया कानून बना देने से आतंकवाद को ख़त्म किया जा सकता है? आतंकवाद है क्या और इसके मूल कारण क्या हैं? क्या इन कारणों को निवारण किये बग़ैर किसी कानून, सेना, पुलिस आदि से आतंकवाद से निपटा जा सकता है?
मगर इन सवालों पर जाने से पहले एक बार इस बात पर ग़ौर किया जाय कि आख़िर यू.ए.पी.ए. यानी ग़ैर कानूनी गतिविधियाँ (रोकथाम) संशोधन विधेयक किन मायनों में कठोर है। ध्यान देने योग्य बात यह है कि इसमें बताया गया कि अदालत यह मानकर चलेगी कि आरोपी ने अपराध किया है और आरोपी को खुद को निर्दोष साबित करने के लिए अदालत में सबूत पेश करने होंगे। यानी कि आरोप लगते ही आप मुलजि़म नहीं बल्कि मुजरिम होंगे! अभियोग पक्ष को अभियोग साबित करने का काम नहीं करना होगा बल्कि अभियुक्त को तब तक अपराधी माना जाएगा जब तक कि वह अपने आप को बेगुनाह न साबित कर दे! साथ ही जिस आरोपी पर अपराध का आरोप है, अगर उसका सह-आरोपी जुर्म कबूल कर लेता है तो आरोपी पर भी जुर्म साबित हो जाएगा। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती कि ऐसे प्रावधान के चलते किसी निर्दोष व्यक्ति को अपराधी सिद्ध करना कितना आसान हो जाएगा। इसके अलावा इस नये कानून के तहत बिना ज़मानत के 180 दिन तक आरोपी को हिरासत में रखा जा सकेगा। पहले यह मियाद 28 दिनों की थी। अब तो 30 दिनों तक आरोपी को पुलिस ही अपनी हिरासत में रख सकती है। इससे पहले केन्द्रीय दंड संहिता के अनुसार पुलिस सिर्फ़ 15 दिनों तक ही किसी आरोपी को हिरासत में रख सकती थी। इन संशोधनों से साफ़ ज़ाहिर होता है कि सत्ता-व्यवस्था की मंशा क्या है। ज़ाहिर है कि इन कानूनों को सख़्त करने से आतंकवाद में कोई फ़र्क नहीं आने वाला है। अमेरिका और ब्रिटेन में इससे भी सख़्त कानूनों के बनने के बावजूद आतंकवादी हमलों में कोई उल्लेखनीय कमी नहीं आई है। उल्टे वहाँ की जनता अब पहले से भी ज़्यादा दहशत और आतंक में जी रही है। ऐसे में यह सवाल उठना लाज़िमी है कि आख़िर इस कानून का मंतव्य क्या है?
इसमें दो राय नहीं हो सकती है कि मुम्बई हमलों में भारतीय पूँजी के शक्ति के प्रतीकों पर हमले के बाद सरकार के लिए ऐसे हमले रोकना एक काम बन गया है। यह बात दीगर है कि लाख प्रयासों के बावजूद वह ऐसा नहीं कर पाएगी। यह इसलिए भी ज़रूरी बन गया है मुम्बई हमलों ने देश की आर्थिक जीवनरेखा को काफ़ी अस्त-व्यस्त कर दिया था। मुम्बई हमलों को प्रभाव तुरन्त शेयरों के दामों पर दिखने लग गया था। लेकिन आतंकवाद ऐसे कानून का एकमात्र निशाना नहीं है। इस कानून की चपेट में इस्लामी कट्टरपंथी आतंकवादी ताकतें कितनी आएँगी यह तो समय बताएगा लेकिन पहले के आतंकवाद-विरोधी कानूनों की चपेट में कौन आया है इसका इतिहास गवाह है। पोटा और टाडा जैसे कानूनों के निशाने पर सबसे अधिक जनपक्षधर ताक़तें, क्रान्तिकारी संगठन और अल्पसंख्यक समुदाय की ग़रीब जनता आयी। इस कानून के साथ भी ऐसा ही होगा यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है। अतीत का अनुभव बताता है कि यह व्यवस्था सामाजिक बदलाव की इच्छा रखने वाले लोगों की गतिविधियों पर आतंकवाद का लेबल चस्पाँ कर उनकी राह में बाधा पैदा कर जनता को संगठित करने के काम को रोकना चाहती है।
तबाही और बदहाली में जीने वाली मेहनतकश जनता आज ग़रीबी, बदहाली और बेरोज़गारी से तंग आकर सड़कों पर उतर रही है। मज़दूर वर्ग में स्वतःस्फ़ूर्त हिंस्र गतिविधियों की घटनाएँ लगातार बढ़ रही हैं। किसी क्रान्तिकारी नेतृत्व के अभाव में जनता चुपचाप नहीं बैठी हुई है। जनअसन्तोष का लावा समय-समय पर फ़ूटकर सड़कों पर आ जा रहा है। कहने की ज़रूरत नहीं है कि यह शासक वर्गों और उनकी सत्ता के लिए काफ़ी डरावना है। ऐसी स्थितियों में आने वाले समय में किसी क्रान्तिकारी नेतृत्व के खड़े हो जाने की सम्भावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है। इस भयाक्रान्त कर देने वाली सम्भावना से सत्ता में बैठे लोगों में जाहिरा तौर पर आतंक पैदा होता है।
यहाँ हम दो बातें स्पष्ट कर देना चाहते हैं जिन्हें हम आह्वान के विगत अंकों में भी कहते रहे हैं। हर प्रकार का आतंकवाद राज्य के दमन और शोषण का नतीजा होता है। राज्य के आतंकवाद के प्रतिरोध के विरुद्ध यदि जनता के पास को अर्थपूर्ण प्रतिरोध का मंच नहीं होगा तो वह हताशा और निराशा में आतंकवादी जरियों की तरफ़ आकर्षित होती है। भारत में राज्य के दमन के शिकार मेहनतकश जनसमुदाय और अल्पसंख्यक समुदायों में हम यह रुझान देख सकते हैं। एक ओर तो मेहनतकश जनसमुदायों के कुछ नौजवान बग़ावती जज़्बे के चलते क्रान्तिकारी आतंकवाद की धारा की ओर आकर्षित होते हैं, वहीं अल्पसंख्यक समुदाय के कुछ नौजवान धार्मिक कट्टरपंथी आतंकवाद की ओर। कहने की ज़रूरत नहीं है कि धार्मिक कट्टरपंथी आतंकवाद एक प्रतिक्रियावादी आतंकवाद है और जनता की वर्ग चेतना को कुन्द करते हुए उन्हें कूपमण्डूकता और पुनरुत्थानवाद के गड्ढे में धकेलता है। लेकिन क्रान्तिकारी आतंकवादी संगठन भी अपने तमाम नेक इरादों के बावजूद जनता के संघर्षों को नुकसान पहुँचाते हैं क्योंकि उनकी नियति में पराजय ही बदी होती है। नक्सलबाड़ी उभार के दमन के बाद भी मेहनतकश जनता के बीच एक निराशा फ़ैली थी। आज भी नक्सलवादी संगठन जनता को संगठित करके व्यवस्था परिवर्तन करने में कम और हथियारों और पिस्तौल पर ज़्यादा भरोसा करते हैं। यही सोच उन्हें फ़िर से असफ़लता की तरफ़ ले जाएगी। इतिहास जनता बनाती है, कुछ बहादुर लोग अपने हथियारों से इतिहास निर्माण नहीं कर सकते।
इस कानून के निशाने पर नक्सली संगठन भी हैं। इस बात को सरकार ने स्पष्ट कर दिया है। प्रणब मुखर्जी ने साफ़ कहा है कि कानून में किये गये संशोधनों के दो लक्ष्य हैं। एक, विदेशी भूमि से चलने वाले इस्लामी कट्टरपंथी आतंकवाद का ख़ात्मा और देश की भूमि से चलने वाले नक्सली आतंकवाद का ख़ात्मा। लेकिन यह भी समझना ज़रूरी है कि नक्सली संगठनों की रोकथाम के नाम पर तमाम जनपक्षधर और क्रान्तिकारी संगठनों को निशाना बनाया जाएगा जो जनता को गोलबन्द और संगठित करके व्यवस्था और समाज में परिवर्तन की सोच रखते हैं। पहले के कानूनों के मामले में भी यह बात साबित हुई है जब अल्पसंख्यक समुदायों, वामपंथी दुस्साहसवाद, राष्ट्रीय अलगाववादियों आदि के साथ तमाम क्रान्तिकारी संगठनों को भी जमकर निशाना बनाया गया।
यही इस कानून का लक्ष्य है। यानी, एक तीर से कई शिकार। आतंकवाद के नाम पर व्यवस्था का विरोध करने वाली और क्रान्तिकारी सम्भावना से सम्पन्न हर ताक़त का सफ़ाया। यही असली निशाना है। यह बात समझ लेने की ज़रूरत है कि जब तक किसी भी प्रकार के आतंकवाद के मूल कारणों का निवारण नहीं किया जाता तब तक किसी भी सख्त कानून, किसी विशेष सशस्त्र बल, सेना या पुलिस या किसी भी दमनात्मक कार्रवाई से या ऊपर से लिए गए किसी कार्यकारी निर्णय से इसे ख़त्म नहीं किया जा सकता। इतिहास गवाह है कि ऐसे दमन से आतंकवाद और बढ़ा ही है। आज पूरी दुनिया में आतंकवाद का बढ़ना इसी बात की ताईद करता है।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, जनवरी-मार्च 2009
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