फर्जी मुठभेड़ों और हिरासती मौतों के रिकॉर्ड तोड़े उत्तर प्रदेश पुलिस ने
लालचन्द
एक राष्ट्रीय समाचार पत्र ने 20 अप्रैल को एक ख़बर प्रकाशित की। उत्तर प्रदेश में पुलिस द्वारा हो रही हिरासत में मौतों के बारे में। यह ख़बर इन आँकड़ों के साथ प्रकाशित की गई थी कि पुलिस हिरासत में 2006 में 7 मौतें, 2008 में 5 मौतें, 2009 में 4 मौतें, 2010 में (जनवरी से अप्रैल तक) 9 मौतें, जिसमें 2 लोग फर्जी मुठभेड़ों में मारे गये थे। यह तथ्य एक बार फिर इस बात को साबित करता है कि डेढ़ सौ साल की अंग्रेज़ी हकूमत ने उतने लोगों को मौत के घाट नहीं उतारा जितनों को 63 साल की हिन्दुस्तानी हुकूमत ने। यह बात आगे के और तथ्यों से साफ तौर से दिखने लगेगी।
ह्यूमन राइट्स वॉच ने 7 अगस्त 2009 को लखनऊ में एक रिपोर्ट जारी की जिसका शीर्षक हैः ‘ब्रोकेन सिस्टम, डिस्फंक्शनल एब्यूज़ एण्ड इम्प्यूनिटी इन इण्डियन पुलिस’। इस रिपोर्ट की शुरुआत एक पुलिस अधिकारी के इस कुबूलनाम से होती है कि ‘‘इस हफ्ते मुझे एक एनकाउण्टर करने के लिए कहा गया है…मैं उसकी तलाश कर रहा हूँ, मैं उसे मार डालूँगा; हो सकता है कि मुझे जेल भेज दिया जाय लेकिन यदि मैं ऐसा नहीं करता तो मेरी नौकरी चली जाएगी।’‘ यह कुबूलनामा उत्तर प्रदेश पुलिस की कार्यप्रणाली के बारे काफी कुछ बताता है। पिछले तमाम सालों में मुठभेड़ों के जरिये देश में हुई हत्याओं के लिए उत्तर प्रदेश कुख्यात रहा है। आँकड़ों पर नज़र डालें तो हम पाते हैं कि 2006 में भारत में मुठभेड़ों में हुई कुल 122 मौतों में से 82 अकेले उत्तर प्रदेश में हुई। 2007 में यह संख्या 48 थी जो देश में हुई 95 मौतों के 50 फीसदी से भी ज़्यादा थी। 2008 में जब देश भर में 103 लोग पुलिस मुठभेड़ों में मारे गये तो उत्तर प्रदेश में यह संख्या 41 थी। 2009 में उत्तर प्रदेश पुलिस ने 83 लोगों को मुठभेड़ों में मारकर अपने ही पिछले सभी रिकॉर्ड ध्वस्त कर डाले।
एशियन सेण्टर फॉर ह्यूमन राइट्स की ‘टॉर्चर इन इण्डिया’ नामक रिपोर्ट में पुलिस हिरासत में हुई मौतों पर प्रकाश डाला गया है। यह रिपोर्ट यह बताती है कि पिछले 8 वर्षों में (अप्रैल 2001 से 31 मार्च 2009 के बीच) देश भर में एक अनुमान के अनुसार पुलिस हिरासत में तकरीबन 1184 मौतें हुईं। हिरासत में हुई मौतें सबसे अधिक महाराष्ट्र में हुईं (129)। उत्तर प्रदेश 128 मौतों के साथ इस मामले में दूसरे स्थान पर रहा। रिपोर्ट में आगे यह भी कहा गया है कि मौतों की यह संख्या पुलिस हिरासत में मौतों की वास्तविक संख्या नहीं बताती है। दरअसल देश में हिरासती मौतों के जो मामले उपरोक्त संस्थान द्वारा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के संज्ञान में लाए गए, उनसे पता चलता है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को पुलिस द्वारा हिरासत में हुई मौतों की जानकारी नहीं दी जाती है। हालाँकि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग का स्पष्ट निर्देश है कि पुलिस हिरासत में हुई मौतों की जानकारी 24 घण्टे के अन्दर दी जाय, परन्तु उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा इसका उल्लंघन बदस्तूर जारी है। उत्तर प्रदेश पुलिस द्वारा जारी किये गये अपराध के आँकड़ों में इस प्रकार हुई मौतों को शामिल नहीं किया जाता है।
उत्तर प्रदेश में दलितों की तथाकथित मसीहा मायावती का राज है जो अपनी हर रैली व सभा में दलित अस्मिता की रक्षा का दम भरती है। इनका मूलमन्त्र है ‘बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय’। उत्तर प्रदेश में यह मोहतरमा कानून का राज्य कायम करने पर तुली रहती हैं। वहाँ की पुलिस किस तरह बेलगाम होकर ‘’कानून का राज्य’‘ चला रही है, आपने आँकड़ों मे देखा और अन्य अपनी जिन्दगी के रोज़-ब-रोज़ के तजुरबों से जानते हैं। अब पुलिस ही न्यायाधीश की कुर्सी पर विराजमान दिखती है। उसके अनुसार हर अपराध की एक ही सज़ा है और वह है सज़ा-ए-मौत। न कोई कोर्ट-कचहरी का चक्कर, न कोई झंझट। न्याय ऑन दि स्पॉट!
अब जब आप हिरासत में मरने वाले लोगों के बारे में पता करते हैं तो आप पाते हैं कि वे सभी ग़रीब पृष्ठभूमि से सम्बन्ध रखते हैं। ज़्यादातर मामलों में वे दलित परिवारों के होते हैं जिनकी आवाज़ सुनने वाला कोई नहीं होता।
राजधानी लखनऊ में हुए एक सम्मेलन में प्रदेश के पुलिस प्रमुख कर्मवीर का कहना था कि जो लोग मरते हैं वे सामाजिक-आर्थिक रूप से कमज़ोर होते हैं। कभी ईनामी अपराधी की पुलिस हिरासत में मौत नहीं होती। इस स्वीकारोक्ति से मामला एकदम स्पष्ट है कि न्याय किसके पक्ष में खड़ा है। एक हालिया घटना पर नज़र डालें। हिरासत में मारे गये एक दलित हरिहर की पुलिस ने जबरन अन्त्येष्टि कर दी। हरिहर के पिता बच्चूलाल कहते हैं कि पुलिस वालों ने मिट्टी का तेल डालकर हरिहर के शव को जला दिया। परिवार को उसकी चिता को आग तक नहीं लगाने दी। समाचार पत्रों में इस ख़बर के आने के बाद मुख्यमन्त्री मायावती का बयान आया कि पुलिस हिरासत में यदि कोई मरा तो पुलिस व उनके अधिकारियों को दण्डित किया जाएगा। ठीक उसी दिन मुख्यमन्त्री के बयान के ठीक नीचे उनके बयान की धज्जियाँ उड़ाती एक ख़बर छपी थी कि पुलिस थाने में एक दलित महिला के साथ सामूहिक बलात्कार। भारत में अपराधों पर जारी नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि 2008 में उत्तर प्रदेश के पुलिसकर्मियों के खि़लाफ मानवाधिकार के उल्लंघन की शिकायतें 6015 पायी गयीं थीं। लेकिन मामला केवल एक ही दर्ज हुआ जिसमें तीन पुलिसकर्मियों के खिलाफ आरोप.पत्र दाखिल किये गये। बाकी मामले फाइलों में दबे रह गये। इसी तरह मुठभेड़ में हुई हत्याओं में भी शायद ही किसी पुलिसकर्मी के खि़लाफ कोई मामला दर्ज हो पाता है। उल्टे मुठभेड़ों को अंजाम देने वाले पुलिसकर्मियों को नियमों को ताक पर रखकर पदोन्नति दी जा रही है। जल्दी पदोन्नति पाने के लिए पुलिस ऐसे कारनामों को और अधिक चाव से अंजाम देती है।
पुलिस का यह बर्ताव व्यवस्था की गड़बड़ी नहीं बल्कि उसका स्वाभाविक अंग है। यह कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे इस व्यवस्था के रहते दुरुस्त किया जा सकता है। एक बर्बर, मानवद्रोही, मुनाफा-केन्द्रित, और पूँजी की निरंकुश तानाशाही पर टिकी व्यवस्था की पुलिस से आप और कैसा होने की उम्मीद कर सकते हैं? अलग से पुलिस सुधार आदि की कितनी भी बात कर ली जाय, इससे कुछ भी नहीं होने वाला। एक निरंकुश पूँजीवादी राज्यसत्ता की एक निरंकुश बर्बर पुलिस। इससे निजात जनता को तभी मिल सकती है जब वह पूरी पूँजीवादी व्यवस्था से ही निजात के बारे में सोचे और कदम उठाये।
मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, मई-जून 2010
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